धूप उग आई थी, पर गाँव में उजाला नहीं था।
चंद्रवा — धूम्रखंड के दक्षिणी किनारे पर बसा एक भूला हुआ गाँव,
जहाँ मिट्टी की झोपड़ियाँ हवा से नहीं, बल्कि थकी हुई इच्छाओं और बिखरी हुई उम्मीदों से बनी थीं। सुबह की हवा में धुएँ का रंग था — यह धुआँ चूल्हों का नहीं, उन सपनों का था जो हर दिन पकने से पहले ही राख हो जाते थे।
गाँव का कुआँ सूखा था, पर औरतों की आँखें कभी न सूखतीं। बच्चे नंगे पाँव खेतों में दौड़ते, लेकिन उनकी दौड़ में खेल नहीं था — भूख का पीछा था। यह स्थान ऐसा था जहाँ न सवेरा जल्दी आता था, न राहत देर तक टिकती थी। पानी के लिए लोग सुबह-सुबह लाइन में लगते — एक टूटी कुएँ से। खाने के लिए दिन भर मजदूरी — किसी ज़मींदार की ज़मीन पर। बूढ़े लोग चुप थे, युवा गुस्से में, और बच्चे? बच्चे सपने नहीं देखते थे — वे सिर्फ साँस लेते थे।
इन्हीं साँसों के बीच धरम का घर था — मिट्टी और लकड़ी का बना, जिसकी दीवारें सर्द हवा को रोकने में नाकाम रहती थीं, और छत से बारिश की हर बूँद सीधे दिल तक टपकती थी। धरम का चेहरा कठोर था, पर उसकी आँखें गहराई में डूबी हुई झील जैसी थीं। उसमें दर्द भी था, और किसी अज्ञात ताक़त को थाम लेने की जिद भी।
धरम की झोपड़ी में पाँच साँसें थीं—
धरम स्वयं,
उसका बचपन का साथी बिनाल, जो घर का हिस्सा ही हो गया था,
और तीन मासूम चेहरे—
बबलू, बारह बरस का,
रेखा, आठ साल की,
और सबसे छोटा गगन, जिसकी किलकारियाँ ही सबकी थकान मिटातीं।
इसी घर की एक कोने में जगह बनी एक अनचाहे, पर अनिवार्य मेहमान के लिए, मिट्टी से सना, गर्दन झुकाए, नंगे पाँव एक बालक बैठा — आर्यन।
धरम उसे जंगल के खंडहरों के पास से उठा लाया था। उस क्षण गाँव की भीड़ चीख पड़ी थी —
“उसे मत उठाओ! अशुभ है, अनजान है!”
धरम का अपना मित्र तक विरोध में खड़ा हो गया था।
पर धरम ने अपने हाथों से उस शिशु को थामते हुए मन ही मन पूछा था —
“क्या मैं भगवान बन रहा हूँ, या ग़रीबों की दुनिया का गद्दार?”
उस रात बारिश हो रही थी। धरम ने जब आर्यन को अपनी झोंपड़ी में जगह दी, तो लगा मानो पूरी दुनिया में एक दरार खुल गई हो — एक तरफ गाँव की खामोशी और दूसरी तरफ धरम का साहस।
धरम का परिवार खुद भूखा था, पर फिर भी आर्यन को अपनाया। किसी ने सवाल किया — "क्यों एक अजनबी का बोझ?" — तो धरम ने बस इतना कहा था:
"हर बच्चा पहले भगवान की साँस होता है, फिर किसी का बेटा।"
धीरे-धीरे आर्यन इस घर का हिस्सा बन गया।
पहली बार जब खाने को केवल एक रोटी थी धरम ने रोटी बाँटी— बच्चों को,बिनाल को और अंत में खुद भूखा रह गया।
बबलू (धीरे-धीरे): “बाबा, मेरे हिस्से का भी छोटा टुकड़ा इसको दे दो।”
रेखा (नाक सिकोड़कर): “तो मैं भी दूँगी! पर मेरी गुड़िया इसे मत देना।”
गगन हँसा, उसके पास कहने को शब्द ही कहाँ थे।
बिनाल ने गहरी साँस लेकर कहा—
“धरम, तू पागल है… पर अगर तूने इसे अपनाया है, तो मैं भी पीछे नहीं हटूँगा।”
उस रात भूख और अपनापन एक ही आग के चारों ओर बैठे थे।
गाँव में जीवन कठिन था। सुबह होते ही औरतें टूटी कुएँ पर पानी भरने जातीं, मर्द किसी ज़मींदार के खेत में झुक जाते, और बच्चे नंगे पाँव धूल में खेलते। लेकिन खेल भी यहाँ खेल नहीं थे — ज़्यादातर भूख भुलाने की तरकीब थे।
दिन गुज़रते गए।
आर्यन और बबलू हमउम्र थे। दोनों साथ खेलते, खेतों में मिट्टी से गुज़रते, नदी के किनारे बैठकर पत्थर उछालते। पर दोनों में फर्क भी था। बबलू का मन व्यावहारिक था — “खाना कहाँ से आएगा, जीना कैसे होगा?” यही सोचता। जबकि आर्यन का मन सवाल पूछता —
“क्यों भूख हमेशा गरीब के हिस्से आती है?
क्यों पानी के लिए औरतें पल्लू से चेहरा ढँक लेती हैं?
क्या शर्म का पानी ज़रूरत के पानी से भारी होता है?”
आर्यन अब बबलू और बिनाल के साथ खेतों में भागता।
गगन उसकी नकल करता, रेखा खिलखिलाकर देखती।
बबलू (गंभीर): “आर्यन, ये खेल खेलना छोड़। देख, बाबा रोज़ कहता है हमें खेत में मदद करनी चाहिए।”
आर्यन: “खेत? हाँ… लेकिन जब खेत में अनाज नहीं होगा, तब खेलना भी तो ज़रूरी है।”
कभी-कभी उसके सवाल सबको चुप कर देते।
धरम अक्सर आर्यन को खेतों में काम करवाता। मिट्टी से थककर जब वह बैठ जाता, धरम उसके पास आकर कहता —
“धूप से मत डर, बेटा। जो जलता है, वही चमकता है।”
आर्यन सिर हिलाता, पर उसकी आँखें कहीं और देख रही होतीं — शायद किसी ऐसी दुनिया की तरफ, जहाँ चमक बिना जलन के भी मिल सके।
समय बीता।
बबलू जिम्मेदार होता गया, गगन हँसी की तरह मासूम रहा, रेखा अब गीत गुनगुनाने लगी।
बिनाल और आर्यन की अब दोस्ती गहरी हो रही थी, पर अकसर झगड़े भी होते।
बिनाल (कड़क आवाज़ में): “तेरे कारण हमारा हिस्सा कम पड़ता है। तू क्यों हर किसी के दुख में उलझता है?”
आर्यन (हँसते हुए): “क्योंकि अगर सब दुखी रहेंगे, तो हमारा हिस्सा किस काम का?”
रेखा बीच में आ जाती—
“तुम दोनों लड़ना बंद करो! गगन डर जाएगा।”
धरम की बेटी सुधा, आर्यन को भाई की तरह मानती थी। जब कभी वह खिलखिलाती, आर्यन उसे देखता और उसके चेहरे की रोशनी से अपने अँधेरे को थोड़ा-सा बाँट लेता।
बबलू चुपचाप उन्हें देखता, जैसे मन ही मन तय कर रहा हो कि उसे सबका संरक्षक बनना है।
बरसों के उतार-चढ़ाव से साल गुजर चुके थे।
आर्यन अब बालक से किशोर हो गया था।
उसकी आँखों में अजीब गहराई थी— जैसे सवालों की खदान हो।
गाँव वाले अब भी फुसफुसाते— “धरम का बोझ, पराया, अनाथ।”
पर धरम उसका हाथ पकड़े रहा।
एक तूफ़ानी रात, जब झोपड़ी से पानी टपक रहा था, सब बच्चे सो चुके थे।
धरम ने धीमे से पूछा—
“आर्यन, बड़ा होकर तू क्या बनेगा?”
आर्यन ने चुप्पी तोड़ी—
“मैं वो बनूँगा… जिससे कोई छोटा न बने।”
धरम ने मोमबत्ती बुझा दी, ताकि आँसुओं की चमक आर्यन न देख पाए। उसने जाना — यह बच्चा मिट्टी से जन्मा है, पर उसकी आत्मा किसी आग से बनी है।
एक दिन आर्यन खेत के पास एक पगडंडी पर बैठा था। उसने देखा — एक आदमी बीमार है, लेकिन कोई मदद नहीं कर रहा। धरम पास आया।
"क्यों बैठा है यहाँ?"
आर्यन ने कहा:
"क्योंकि वो मर रहा है... और सब देख रहे हैं।"
धरम चुप रहा। एक क्षण बाद वो बोला:
"क्या करना चाहिए?"
आर्यन की आवाज़ धीमी थी, पर उसके शब्द किसी युद्ध जैसे थे:
"शायद हमें देखना नहीं चाहिए... हमें कुछ करना चाहिए..."
वो गाँव, जो आर्यन को बड़ा कर रहा था, उसे सिर्फ भूख, शोषण, और खामोशी नहीं सिखा रहा था — वो उसे देखना सिखा रहा था — उस सच्चाई को, जो बाकी सबने मान ली थी, पर जिसे आर्यन मानने को तैयार नहीं था।
एक दिन दोनों बच्चे खेत के पास खेल रहे थे। गगन मिट्टी से मिट्टी का घर बना रहा था। आर्यन उसे चुपचाप देखता रहा, फिर बोला:
"अगर कल बारिश आई तो ये घर गिर जाएगा।"
गगन ने हँसकर कहा:
"तो क्या हुआ? मैं नया बना लूँगा।"
आर्यन ने गहरी साँस ली और धीरे कहा:
"काश इंसान भी ऐसे ही नया बन पाता।"
गगन उस वक़्त नहीं समझा। पर उसके कानों में यह वाक्य गूँजता रहा।
गाँव का जीवन यूँ ही चलता रहा। पर आर्यन का मन सामान्य बच्चों जैसा नहीं था। उसकी चुप्पी धीरे-धीरे गहराई बन रही थी। जब कोई बीमार हो जाता और लोग सिर्फ देखते रहते, वह मन-ही-मन पूछता:
"क्या इंसान सिर्फ देखने के लिए पैदा हुआ है… या बदलने के लिए?"
उसकी आँखों में अब बालपन की हल्की चमक नहीं थी। वहाँ एक गहराई थी — ऐसी गहराई, जो उम्र से नहीं, दर्द से जन्म लेती है।
गाँव अब उसे एक साधारण बच्चा नहीं मानता था। कुछ लोग कहते, "ये बच्चा ख़ामोश है, पर उसकी नज़र में सवाल चुभते हैं।" कुछ कहते, "ये धरम के बेटे जैसा है, पर उसकी आत्मा कहीं और से आई है।"
पर आर्यन खुद?
वह बस इतना जानता था — दुनिया अधूरी है, और उसे देखना ही उसका पहला कर्म है।
यह कहानी सिर्फ एक बच्चे की नहीं, उस मिट्टी की है जिसमें वह जन्मा है।
चंद्रवा की गलियों में, टूटी झोपड़ियों के बीच, भूख और आँसुओं के बीच —
आर्यन का बचपन ऐसा बीज था, जो मिट्टी में दबकर भी सूरज की ओर बढ़ना चाहता था।
“जो मिट्टी में जन्मा है, वो सूरज बनना चाहे — यह पाप नहीं है।”
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