Raktrekha - 6 in Hindi Adventure Stories by Pappu Maurya books and stories PDF | रक्तरेखा - 6

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रक्तरेखा - 6

साँझ उतर रही थी। धूप का रंग हल्का सुनहरा हो चुका था, जैसे किसी ने आकाश पर पुराने पीतल की थाली पलट दी हो। खेतों में खड़े धान के पौधे हवा से लहराते थे और उनकी हर सरसराहट में मानो कोई भूली-बिसरी लोककथा दुहराई जाती थी। नदी का पानी अब गहरा नीला हो गया था, और किनारे बैठे बच्चे छोटी-छोटी नावें बनाकर बहा रहे थे। उनके हँसने की आवाज़ें पूरे गाँव की निस्तब्धता को तोड़ती थीं, जैसे जीवन का सबसे सरल संगीत।

गाँव वैसे तो सदा ही साधारण था — मिट्टी के घर, कच्ची पगडंडियाँ, और दिन-रात परिश्रम में डूबे लोग। पर इस बार हवा में एक अलग हलचल थी। हर चेहरे पर, हर बात में, हर हँसी में एक अनकहा उत्साह झलक रहा था। कारण था — वह मेला, जो पूरे बीस साल बाद लगने वाला था।

इस मेले को गाँव की आत्मा कहा जाता था। बच्चों के लिए यह रंग-बिरंगे सपनों की दुनिया था, और बूढ़ों के लिए उन दिनों का पुल जब वे स्वयं जवान थे। औरतों के लिए यह एक ऐसा अवसर था जब उनकी बँधी-बंधाई दिनचर्या टूटती थी और जीवन में उत्सव का रंग भर जाता था।

आँगनों में बैठे बुज़ुर्ग धीरे-धीरे बीड़ी का कश खींचते और यादों में खो जाते।
“पिछली बार जब मेला लगा था, तब हम जवान थे। उस भीड़ का शोर, वह झंडा दौड़, और चौक पर बजते नगाड़े… सब आँखों के सामने घूम रहे हैं।”
उनकी आँखें गीली हो उठतीं, पर वह आँसू दुःख के नहीं, बीते समय की मिठास के आँसू थे।

बच्चों की टोली पगडंडियों पर खेलती हुई दौड़ रही थी।
“कहते हैं, इस बार झंडा उठाने वाला तो पूरे गाँव का नायक बन जाएगा।”
“हाँ, और मेला खत्म होने तक सब उसी का नाम लेंगे।”
उनके मन में इस परंपरा का महत्व कहानी की तरह गहराता जा रहा था।

गाँव में हर घर की चौखट पर मेले की बातें गूँज रही थीं। कहीं स्त्रियाँ अपने पुराने आभूषण पोंछ रही थीं, कहीं पुरुष बैलों की पीठ पर हाथ फेरते हुए सोच रहे थे कि मेले में किस तरह सजाएँगे। हर मन में एक ही ख्वाहिश थी — इस बीस साल में एक बार आने वाले उत्सव को पूरे जीवन की सबसे उजली याद बना लेना।

लेकिन इस उमंग के बीच एक गहरी गंभीरता भी थी।
क्योंकि मेले का केंद्र केवल गाना-बजाना, झूला-झूलना या बाज़ार नहीं था।
उसका असली हृदय था — झंडा दौड़।

गाँव के चौक से लेकर नदी के तट तक लंबी दौड़ होती थी, जिसमें एक युवक गाँव का झंडा लेकर दौड़ता था। यह केवल दौड़ नहीं थी, यह मानो पूरी पीढ़ी का गौरव था। झंडा उठाने वाला मानो गाँव का प्रतिनिधि बन जाता था — उसका साहस, उसका निस्वार्थ भाव, उसका श्रम, सबका प्रतीक।

इस बार झंडा कौन उठाएगा?
यह प्रश्न गाँव की दीवारों से टकराता और चौपाल तक पहुँचता।
कहीं बच्चे नाम सुझाते, कहीं स्त्रियाँ अपने बेटों का गुण गिनातीं, कहीं बुज़ुर्ग कहते — “यह जिम्मेदारी किसी ऐसे बच्चे के हाथ में जानी चाहिए जो सचमुच पूरे गाँव का हो।”

धरम शाम को अपने आँगन में बैठा था। उसके पास बिनाल और बच्चे — बबलू, रेखा, गगन और आर्यन — सब थे। चारों बच्चे आपस में झगड़ते-हँसते बातें कर रहे थे।
“पिताजी, इस बार झंडा कौन उठाएगा?” बबलू ने चमकती आँखों से पूछा।
धरम ने हल्की मुस्कान दी, “अभी पंचायत तय करेगी। लेकिन याद रखो, झंडा उठाना सिर्फ़ ताक़त नहीं, दिल की सच्चाई भी माँगता है।”
आर्यन चुपचाप सुन रहा था। उसका चेहरा गंभीर था, मानो वह हर शब्द को भीतर उतार रहा हो।

गाँव के चौपाल पर इस समय भीड़ बढ़ने लगी थी।
लोग कहते, “देखना, इस बार तो पंचायत में बड़ी बहस होगी।”
कोई जोड़ता, “अरे, बीस साल में एक बार आता है ये मौका। गाँव का नाम उसी से जुड़ जाएगा।”

हर चेहरे पर उत्साह था, हर दिल में धड़कन तेज़ थी।
आकाश में चाँद पूरा उग चुका था। उसकी रोशनी गाँव के हर कोने में फैल रही थी, मानो स्वर्ग भी इस उत्सव की तैयारी देख रहा हो।

यही थी वह घड़ी — जब पूरा गाँव केवल एक प्रतीक्षा में जी रहा था।
मेले के आने की प्रतीक्षा, झंडा उठाने वाले के नाम की प्रतीक्षा, और आने वाले समय के नए अध्याय की प्रतीक्षा।

गाँव के चौपाल पर उस दिन कुछ अलग-सी रौनक थी। सुबह से ही लोग इकट्ठा होने लगे थे। कोई अपनी लाठी टिकाए आया था, कोई धोती का पल्ला संभालता हुआ। महिलाएँ दूर-दूर खड़ी थीं, पर उनकी नज़रें भी चौपाल की ओर ही थीं। बच्चों के चेहरे उत्साह से चमक रहे थे—वे भले समझ न पा रहे हों कि इतनी भीड़ क्यों है, पर जानते थे कि यह कोई साधारण दिन नहीं है।

बीस साल बाद फिर वही समय आया था, जब गाँव का झंडा उठाने वाला तय होना था। यह केवल एक रस्म नहीं थी, बल्कि पूरे गाँव की आस्था और एकता का प्रतीक था। झंडा उठाने का अर्थ था गाँव का चेहरा बनना, आने वाले बीस वर्षों तक सम्मान का बोझ उठाना।

मुखिया—सफ़ेद दाढ़ी वाला, गहरी आँखों में वर्षों की परंपरा का बोझ ,ने अपनी जगह से उठकर  सबसे पहले सभा को संबोधित किया। उसका स्वर धीमा मगर गूंजदार था—

“भाइयों और बहनों, आज की बैठक बहुत अहम है। हम सब जानते हैं कि झंडा उठाना केवल बल या दौड़ का खेल नहीं है। यह हमारी परंपरा है, हमारी पहचान है। जब यह झंडा ऊँचा उठता है, तो उसमें हमारी आत्मा झलकती है। यह झंडा हमें याद दिलाता है कि चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ आई हों, गाँव हमेशा सिर ऊँचा रखकर खड़ा रहा है।झंडा उठाने वाला बच्चा हमारे भविष्य का संदेशवाहक होता है। सोच-समझकर नाम लो।”

बुज़ुर्ग लोग सिर हिलाते हुए सहमति जताते। उनके चेहरों पर पुरानी यादें तैर गईं। किसी ने अपने बचपन में हुए मेले का दृश्य याद किया, किसी को अपने पिता या दादा का झंडा उठाना याद आया।

झंडा केवल एक कपड़ा नहीं था। वह गाँव की विरासत था। जब-जब झंडा उठा, गाँव ने अपनी ताक़त और एकता साबित की। और अब फिर वही घड़ी आई थी।

सभा में सबसे पहले एक बुज़ुर्ग खड़े हुए। उन्होंने लाठी को ज़मीन पर टिकाया और बोले—
“मेरा कहना है कि बबलू इस बार झंडा उठाए। गाँव का हर बच्चा जानता है कि उसके मन में किसी के प्रति कोई खोट नहीं है। वह सीधा-सादा है, मेहनती है और सबका अपना है।”

कई लोग सहमति में सिर हिलाने लगे।
“हाँ, बबलू साफ़ दिल का लड़का है।”
“गाँव के हर काम में आगे रहता है।”
“झगड़े-फसाद से दूर, हमेशा मदद को तैयार।”

बबलू का चेहरा झेंप से लाल हो गया। वह चुपचाप सबकी बातें सुन रहा था। उसे गर्व भी हो रहा था और कहीं भीतर झिझक भी।

एक नौजवान बोला—
“बबलू ने तो बच्चों तक का दिल जीत लिया है। पिछले साल देखो, कैसे नदी में गिरते हुए बच्चे को बचाया था उसने।”
दूसरा जोड़ बैठा—
“और याद है, जब गाँव में सूखा पड़ा था तो वही था जो दूसरों के खेतों में पानी बाँटने गया। अगर यह गाँव का प्रतिनिधि नहीं बनेगा, तो कौन बनेगा?”

इतने में धर्म उठ खड़ा हुआ। उसका चेहरा गंभीर था। 
“मैं बबलू के बारे में किसी से कम नहीं जानता। मैं मानता हूँ कि वह सच्चे दिल का है और उसकी निष्ठा पर कोई सवाल नहीं। पर, भाइयों, मुझे लगता है कि हमें एक और नाम पर भी विचार करना चाहिए—आर्यन।”

सभा में हलचल हुई। कई लोग एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे।

धर्म ने आगे कहा—
“आर्यन भले इस गाँव में पैदा न हुआ हो, पर उसने अपना पूरा बचपन यहीं बिताया है। उसने वही धूप झेली है, वही खेतों में पसीना बहाया है जो हम सबने बहाया है। उसने कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह अलग है। उसकी मेहनत, उसकी लगन, उसकी निष्ठा—सब किसी से कम नहीं। क्या यह सब उसे योग्य नहीं बनाता?”

कुछ लोग सोच में पड़ गए। मगर सब सहमत नहीं थे।
एक बुज़ुर्ग ने धीरे-से कहा—
“धर्म बेटा, तुम्हारी बात सही है। पर बात यह भी है कि यह परंपरा गाँव के खून से जुड़ी है। झंडा उठाने वाला हमेशा इस मिट्टी का बेटा रहा है।”

दूसरा बोला—
“हाँ, आर्यन अच्छा है, इसमें कोई शक़ नहीं। पर अगर हम यह मर्यादा तोड़ेंगे तो आने वाली पीढ़ी हमें क्या कहेगी? कल को कोई भी बाहर से आकर दावा करेगा?”

कुछ लोग और कठोर हो गए—
“गाँव की पहचान गाँव के ही बेटे से होती है। बाहरी को यह अधिकार नहीं देना चाहिए।”

धर्म ने शांत स्वर में कहा—
“परंपरा का अर्थ अगर केवल जन्म से है, तो फिर न्याय कहाँ है? परंपरा का अर्थ तो गाँव के लिए जीना है, गाँव के साथ साँस लेना है। और इस कसौटी पर आर्यन खरा है।”

सभा में फिर बहस छिड़ गई। कोई कहता—“धर्म सही कहता है।”
तो कोई और चिल्लाता—“नहीं, यह परंपरा का अपमान होगा।”

भीड़ दो हिस्सों में बँटने लगी।
एक तरफ़ बबलू के समर्थक थे, जो कहते कि उसका निष्कलुष स्वभाव और गाँव की जड़ें उसे सबसे योग्य बनाती हैं।
दूसरी ओर कुछ लोग धर्म की बात से सहमत थे और कहते थे कि “अगर आर्यन गाँव के लिए सब कुछ करता है, तो उसे अलग क्यों रखा जाए?”

आवाज़ें ऊँची होने लगीं।
“झंडा बबलू ही उठाएगा, इसमें कोई शक़ नहीं!”
“नहीं, आर्यन भी उतना ही हक़दार है!”
“बाहरी को गाँव का चेहरा बनाना ग़लत है।”
“दिल से बड़ा खून नहीं होता, यह समझो!”

कभी-कभी बहस इतनी गरमा जाती कि लोग एक-दूसरे पर तंज कसने लगते। पंचायत के बुज़ुर्ग बार-बार बीच-बचाव करते।

मुखिया गंभीरता से सब सुन रहा था। उसने तुरंत कोई फैसला नहीं दिया। बस इतना कहा—“आज की बैठक यहीं खत्म होती है। अभी समय है, सब सोचें-समझें। अगली बैठक में अंतिम निर्णय होगा।”
सभा खत्म हुई, लोग धीरे-धीरे उठकर अपने-अपने घर लौटने लगे।
पर हवा में अब भी वही तनाव तैर रहा था—बबलू और आर्यन।
गाँव बँट चुका था दो हिस्सों में।

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