कृष्ण की चेतावनी
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।
‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
- रामधारी सिंह 'दिनकर'
कृष्ण की वाणी: न्याय और धर्म का उद्घोष
मैं कृष्ण हूँ। मैंने वर्षों तक देखा है कि कैसे पांडवों ने वन-वन भटक कर और हर मुश्किल का सामना करके भी अपनी मर्यादा और धर्म को नहीं छोड़ा। उनका धैर्य अद्भुत था। जब मैं हस्तिनापुर आया, मेरा एकमात्र उद्देश्य था शांति स्थापित करना, महाभारत जैसे भीषण युद्ध को टालना। मैंने दुर्योधन के सामने बहुत विनम्रता से पांडवों का संदेश रखा - "सिर्फ पाँच गाँव दे दो।"
पर दुर्योधन ने मेरी बात को तिरस्कार से ठुकरा दिया। जब उसने मुझे बंदी बनाने की कोशिश की, तो मेरी सारी शांति भंग हो गई। यह सिर्फ मेरा अपमान नहीं, बल्कि पूरी मानवता और धर्म का अपमान था। मैंने अपना विराट रूप दिखाया ताकि वह समझ सके कि वह किससे लड़ रहा है। मैंने उसे ब्रह्मांड का हर रूप दिखाया - जन्म और मृत्यु, जीवन और संहार, सब कुछ मेरे भीतर समाया हुआ था। मेरा लक्ष्य उसे डराना नहीं, बल्कि उसे सत्य का ज्ञान कराना था।
पर उसका विवेक मर चुका था। उसे अपने अहंकार के अलावा कुछ नहीं दिखा। जब सभी उपाय विफल हो गए, तब मैंने अपना अंतिम संकल्प सुनाया - "याचना नहीं, अब रण होगा!" यह युद्ध सिर्फ सत्ता के लिए नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म के बीच का था। मैंने दुर्योधन को चेताया कि यह युद्ध इतना भयानक होगा कि इसका विनाश सदियों तक याद रखा जाएगा। आखिरकार, हिंसा का परणामी दुर्योधन ही होगा। मेरा संदेश स्पष्ट था: जब शांति की सारी राहें बंद हो जाती हैं, तो धर्म की रक्षा के लिए युद्ध ही एकमात्र विकल्प बचता है।