Raktrekha - 11 in Hindi Adventure Stories by Pappu Maurya books and stories PDF | रक्तरेखा - 11

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रक्तरेखा - 11

                           

 धूप के पहले धागे ने जब खपरैल की छतों पर चुपके से अपनी उँगलियाँ रखीं, तो चंद्रवा गाँव हल्के-हल्के जागने लगा। मेला को बीते कई दिन हो चुके थे पर मेला-रौनक की थकान अब भी आँगनों में पसरी थी—कहीं रंगीन काग़ज़ की फटी झालरें दीवारों से उलझी थीं, कहीं गुड़ और बेसन की मिली-जुली ख़ुशबू अभी तक हवा में बसी थी। गली के मोड़ पर रखा मिट्टी का दीपक बुझ तो चुका था, पर उसकी कालिख में रात की रोशनी की याद बाकी थी।

औरतें, जिनके हाथों में कंगनों की छमछम थी, भोर होते ही चौका-बासन में लग गईं। पानी की पट-पट, पीतल की थाली पर उड़ती धूप, और मसाले की हल्की भाप—इन सबके बीच उनकी धीमी-धीमी बातचीत चल रही थी— “इस बार का मेला तो चमत्कार था रे…” “बबलू जो झंडा लेकर दौड़ा न… देख, आँखें भर आईं मेरी तो…” “और वो किरनवेल के पुजारी—कितनी साफ बात कही—‘झंडा अकेला नहीं लहराता’…”

चौपाल की तरफ, जहाँ कल तक ढोल-नगाड़ों की थाप थी, आज रिक्तता की साँसें थीं। वहीँ धर्म खड़ा था—जैसे किसी हँसी से खाली हुए कमरे की खामोशी को अपने कंधों पर ढो रहा हो। उसके चेहरे पर नींद की कमी का तकाजा नहीं, बल्कि कामों की फेहरिस्त की चमक थी। हाथ में रस्सी, पिछली रात का गीला अंगोछा कंधे पर, और नज़रें उन सब जगहों पर जहाँ उत्सव की चमक के बाद ज़िम्मेदारी का साया उतरता है।

“बबलू!” उसने पुकारा।

“हाँ पिताजी!” बबलू दौड़ता हुआ आया—अब भी उसकी चाल में सम्मान की थरथराहट थी। माथे का हल्दी-चंदन मिट चुका था, पर आँखों में गाँव का झंडा आज भी लहरा रहा था।

“चौपाल के पीछे वाले बाँस उखाड़ने हैं, हवा के साथ झुक गए हैं। दिखने में ठीक, पर भरोसा न करना। और सुन—मलाई की कड़ाही जो खिलौना वाले मोड़ पर छूटी थी, उसे रामू हलवाई से लिखवा कर घर पहुँचवा दे। हिसाब मैं कर दूँगा,” धर्म ने सधे स्वर में कहा।

उधर, तालाब की पगडंडी से आर्यन आता दिखा। उसके साथ गगन और रेखा थे—दोनों कंधे पर छोटे-छोटे टोकरियाँ टाँगे, जैसे किसी असल दुनिया की टोली हो। आर्यन ने टोकरियाँ नीचे रखीं, और बिना कुछ कहे झुककर तालाब की सीढ़ियों पर जमी काई को हाथ से रगड़ने लगा। कल रात देर तक वह यहीं रुका था, सुधा के साथ सफाई का काम खत्म कराता रहा था—आज बाकी रह गया हिस्सा पूरा करना था।

गगन ने पानी में कंकड़ फेंकते हुए पुकारा—“अरे, चलो ना… मछलियाँ देखो, कैसे कूद रहीं!”

रेखा ने फटाफट टोकरियाँ टिकाईं—“मेरी पकड़ में एक आएगी तो मैं उसका नाम रख दूँगी—चाँदरी!”

आर्यन ने बिना ऊपर देखे कहा—“पहले काम, फिर खेल।”

“तुम तो सदा काम-ही-काम,” रेखा ने मुँह बनाया, फिर उसी मुँह से मुस्कान बाहर छलक पड़ी।

उसी समय, एक संतुलित, धीमी चाल की आहट पगडंडी पर सुनाई दी। विनय था—लंबा, साँवला, हड्डियों में मेहनत की गूँज, आँखों में एक अजीब-सी बारीक रोशनी। वह न तेज़ बोलता था, न अधिक। वह कभी एक बड़े बाज़ार-नगर में रह चुका था, इसलिए नई-पुरानी बातों का पुल भी वही बनता।

“धर्म,” विनय ने पास आते हुए कहा, “धान की बालियाँ अब सूखने लगी हैं। गोदाम का भी सोचना चाहिए। मेले के बाद हाथ ढीले पड़ जाते हैं, चोरी का डर रहता है।”

धर्म ने सिर हिलाया—“ठीक कहा। पंचायत में आज बैठना था—तुम भी आ जाना। सलाह की ज़रूरत है।”

विनय थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला—“सलाह तब चलती है, जब नीयत थकी न हो। कल की थकान… गाँव की नहीं, कुछ घरों की नीयत पर भी देख रहा हूँ।”

धर्म ने आँखें ऊपर कीं—“किस ओर?”

“कुछ लोग है—जिन्हें लगता है कि झंडा दौड़ और पूजा के साथ सब सम्पन्न हो गया। जिम्मेदारी तुम्हारी, आनंद उनका। इस आदत को टूटना होगा,” विनय की आवाज़ बिन शोर के दृढ़ थी।

धर्म ने हल्के-से ठहाके में बात को नरम किया—“चलो, आज पंचायत में सब सुलझाएँगे।”

दूर, आम के बगीचे की ओट से सुधा आती दिखी—हाथ में सूत की लड़ी, जिसे वह फूलों की माला में पिरोने वाली थी। सूरज अभी ऊँचा नहीं हुआ था, पर उसके चेहरे पर भोर की उजास ठहरी हुई थी—जैसे रात के भीतर से नई सुबह खुद चलकर उसके गालों तक आई हो। उसने आर्यन की तरफ देखा—वह वही, अपनी धुन में। उसने धीरे-से रेखा के पास बैठकर सूत उधेड़ा और मुस्कुराई—“चाँदरी नाम अच्छा है।”

रेखा खिल उठी—“न? मैंने भी यही सोचा था!”

“और तुम?” सुधा की निगाह आर्यन पर गई, “किस नाम से पुकारोगे?”

आर्यन ने हाथ की काई झाड़ी, एक पल के लिए उसकी आँखें उठीं—“मछलियाँ नाम नहीं सुनतीं… पानी का इशारा समझती हैं।”

सुधा के होंठों पर रिस-सी गई हँसी ठहर गई—“तो फिर… हम भी इशारा सीखेंगे।”

गगन ने फुसफुसाकर रेखा से कहा—“देखा, कितना उल्टा जवाब देता है—फिर भी अच्छा लगता है।”

रेखा ने ऊँहूँ किया—“मत बोलो—सुना देगा तो और भी चुप हो जाएगा।”

धर्म ने तालाब की सीढ़ियों तक पाँव टेका—“आर्यन, दोपहर तक यहाँ सफाई न छोड़ना। शाम को पंचायत है।” फिर सुधा की तरफ मुड़कर—“तुम घर जाकर आराम कर लो, कल रात से बहुत भागादौड़ी हुई तुम्हारी।”

सुधा ने सिर हिला दिया—“आराम काम के बाद मीठा लगता है।”

विनय ने इस छोटे-से संवाद को आँखों से सींच लिया—“जो लड़की काम को मीठा समझे, वह गाँव के दुःख भी मीठे कर देती है।”

सुधा ने हल्की-सी झिझक में झुककर प्रणाम किया। फिर जितनी चुप आई थी, उतनी ही चुप लौट गई—पर उसके जाते-जाते हवा में सूत की महीन सुगंध ठहर गई।


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पंचायत बैठी तो चौपाल के खुले हिस्से पर दरी बिछी। बीच में रखा नीम का टुकड़ा—जैसे साक्षी हो। मुखिया, साफ धोती-कुर्ते में, आँखों की कोरों पर मेले की थकान, पर आवाज़ में मालिकाना अपनापन—“भाइयों… और बहनों…” उसने औरतों को भी बराबर की कुर्सी पर बैठाया था, यह धर्म के दबाव का असर था। बगल में मुखिया की पत्नी—चेहरे पर गर्मजोशी ।

मुखिया ने कहा—“पहले बात—मेले का धन्यवाद। धर्म, तूने कमाल कर दिया। बबलू, तेरे नाम का जलवा है अब बच्चों में… गली-गली सुना ‘मैं बबलू बनूँगा!’”

भीड़ हँस पड़ी। बबलू संकोच से सिर खुजलाने लगा—“नाम का नहीं, गाँव का जलवा है, मुखिया जी। मैं तो बस पैर थे… दौड़ गाँव ने लगवाई।”

धर्म ने आँख के इशारे से उसकी प्रशंसा स्वीकार करने को कहा—“कभी-कभी धन्यवाद भी ग्रहण करना सीखो।”

विनय, जो दरी के किनारे बैठा था, बोल उठा—“धन्यवाद के बाद ज़िम्मेदारी का प्रस्ताव सुन लें। मेले ने जो कमाया है—विश्वास और वस्तु—दोनों की रखवाली का डर अब हमारा है। गोदाम, चौकी-रक्षक, और रात की पहर—तीनों की व्यवस्था चाहिए।”

मुखिया ने पूछा—“कौन करेगा पहर?”

धर्म ने नाम सुझाए—“पहली बारी बबलू और मैं। दूसरी विनय और रामदीन। तीसरी बारी युवकों की टोली—आर्यन साथ रहे तो अच्छा।

भीड़ में कुछ बुज़ुर्ग बुदबुदाए—“दिन में भी काम? मेले के बाद आराम न?”

धर्म ने उसी विनम्रता से उत्तर दिया—“आराम भी काम जैसा है, बस उसमें गाँव का हिस्सा भी शामिल करना पड़ता है।”

सब हँस दिए। हँसी के बीच उसकी बात दिल पर उतर गई।

एक और विषय उठा—“किरनवेल के पुजारीजी की बात,” मुखिया की पत्नी बोली, “वे कह रहे थे कि हर बार त्योहार के बाद दो दिन सामूहिक भोजन हो—ताकि जो घर थक गए हैं, उन्हें चूल्हा न जलाना पड़े। क्या हम कर पाएँगे?”

धर्म ने कहा—“क्यों नहीं? कल और परसों… महिलाएँ बारी-बारी, और लड़के-लड़कियाँ मिलकर।  रेखा भी रसोई सँभालने में मदद करेंगी।
मुखिया की पत्नी—सुधा भी इसमें मदद करेगी।
"अगर सुधा को ठीक लगे,तो ठीक है।” धरम ने कहा

रेखा उछल पड़ी—“हाँ! हम तो मज़े से करेंगे।”

सुधा ने गर्दन झुका दी—“ठीक है।” धीमे स्वर में जोड़ दिया—“बस हमें… आग की लपटों से डर लगता है—बचपन की आदत है… पर कोशिश करूंगी।”

धर्म ने उसके वाक्य में दबी धक-धक सुन ली—“रसोई में आग का काम चंदू और सोहन सँभालेंगे। तुम मसाले और बाँटने का हिसाब देखना।”

विनय मुस्कुराया—“धर्म, तुम लोगों का काम बाँटते नहीं, लोगों में काम बाँटकर लोगों को जोड़ते हो।”

धर्म ने हल्का-सा झुककर कहा—“काम ही तो रिश्ते का सूत है।”

पंचायत के अंत में मुखिया ने उठकर घोषणा की—“और एक बात—धर्म अब पंचायत का ‘सलाहकार’ होगा। नाम से नहीं, काम से वह कब का यह था। आज से औपचारिक भी सही।”

भीड़ में तालियाँ बजीं—धीमी, पर भाव से भारी। धर्म ने कुछ कहना चाहा, पर शब्द हलक में अटक गए। उसने बस हाथ जोड़ दिए—“सलाहकार बनने से बढ़कर पड़ोसी बने रहना है। कोई काम मेरे बिना रुके, यह मेरी सलाह है—और यही मेरा काम भी।”


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शाम ढली तो चौपाल पर मिट्टी के आँगन में दीये फिर से जले—आज के नहीं, कल की थकान भुलाने वाले। रसोई के बड़े तवे पर मोटी रोटियाँ थिरक रहीं थीं। रेखा आटे की गोल-गोल लोइयाँ बनाती और उनकी सुध-बुध खो बैठती, कभी उन्हें सुंदर नाम देती—“यह रोटी—रूपा। यह… यह दीपा!” सुधा हँस देती—“और यह…?” रेखा आँखें तरेरती—“यह… ‘पिताजी’—यह सबसे बड़ी और सबसे सीधी बनी।”

बबलू हँसता—“अरे, फिर तो यह रोटी बाँटनी पड़ेगी—सबको बराबर।” और सचमुच, पकने के बाद वह रोटी छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट दी गई—जैसे किसी बड़े दिल के हिस्से सबमें बराबर उतरते हैं।

आर्यन किनारे बैठा लकड़ियों की आँच देखता—किस समय अंगार ज़्यादा हो जाए, किस समय हवा कम दी जाए, सब उसके हाथ का विज्ञान था। सुधा कभी-कभी उसकी तरफ देख लेती, फिर झट से नज़रें लौटा लेती—मानो देखना भी किसी काम में हिस्सा न हो।

विनय चौपाल के चबूतरे पर बच्चों का छोटा-सा पाठशाला-सा सत्र चलाता—“अक्षर नहीं, आज कथा,” वह कहता। और फिर किरनवेल की कहानियाँ सुनाता—कैसे वहाँ के लोग ज्ञान और शिल्प को एक ही मानते, कैसे ‘क’ से ‘कला’ और ‘काम’ साथ निकलते, और कैसे बिना एकता के कोई रेखा पूरी नहीं होती, कोई गीत आख़िर तक नहीं पहुँचता।

गगन—जिसकी आँखों में हमेशा धूप रहती—पूछ बैठा—“विनय भैया, कहानी में राक्षस कब आते हैं?”

विनय ने उसकी पीठ सहलाई—“जब हम कहानी के रक्षक थक जाते हैं, तब राक्षस आते हैं। इसलिए रक्षक को भी गीत चाहिए, और रोटी, और दोस्त भी।”

“और पिताजी भैया?” रेखा ने उत्सुकता से पूछा।

“वह रक्षक नहीं, रक्षकों का रक्षक है,” विनय ने मुस्कराकर कहा, और उसी मुस्कान में दूर कोई सावधानी की लकीर तिर गई—जो शायद बच्चे नहीं, पर बड़े देख सकें।

धर्म उस समय बर्तनों में पानी भर रहा था। उसने विनय की बात सुन ली, और भीतर कहीं एक अनकहा बोझ हल्का रखते हुए सोचा—“रक्षक कहोगे तो एक दिन लोग तुमसे अपनी नींद तक माँग लेंगे। और जब थक जाओगे, तो तुम्हें दोष भी देंगे। फिर भी… ‘न कहो, न लो’ वाली साध कठिन है—पर यही सही है।”

मुखिया और उसकी पत्नी भी आए थे—अपने छोटे बच्चों के साथ। मुखिया की पत्नी सुधा को देखकर पास आई—“बिटिया, तुम्हारे हाथ की सजावट तो जैसे आँखों को सजा देती है। सुबह की मालाएँ अब भी दरवाज़े पर महक रहीं।”

सुधा झेंप गई—“कुछ नहीं, बस फूल थे… अपने-आप सुंदर थे।”

“फूल अपने-आप सुंदर होते हैं,” मुखिया की पत्नी ने स्नेह से कहा, “पर हाथ की नर्मी उन्हें चोट नहीं लगने देती। यह हुनर है।”

मुखिया ने धर्म के कंधे पर हाथ रखा—“सलाहकार जी, अब आपका पहला आदेश?”

धर्म ने हँसकर कहा—“आदेश नहीं, निवेदन—कल से रात की पहर चालू। बबलू और मैं पहले घूमेंगे। गली-गली, खेत-खलिहान। बस इतना कि लोग सोते समय एक सुरक्षित साँस भीतर लें।” फिर उसने जोड़ा—“और एक बात—जो बाहर से आते हैं—फेरी वाले, साधु-फक़ीर—किसी को भूखा न जाने दें। लेकिन नाम पूछना, आँखों में देखना, और रास्ता पूछना—यह तीन बात न चूकें।”

मुखिया ने सिर हिलाया—“ठीक।”

विनय ने धर्म को अलग खींचकर धीमे से कहा—“दो दिन पहले, मेले में एक चेहरा देखा था—गेरुए वस्त्र, पर मन में ठंड। ‘सोऽहम्’ पीठ पर, पर साँसों में धुआँ। दिखा तो था… खो भी गया। आँखों में लक्ष्य की जगह ग़ैर-ज़रूरी ठहराव था।”

धर्म के भीतर कोई पुराना अंधेरा हल्का हिल गया—“देखना होगा। फिलहाल, रात हमारी है।”


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