पुरानी दिल्ली की गलियों में एक हवेली थी — *हवेली-ए-नूरजहाँ*। वक़्त की गर्द ने इसकी दीवारों को ज़रूर थका दिया था, लेकिन इसकी खिड़कियों से अब भी मुहब्बत झांकती थी। उसी हवेली में रहती थी *ज़ैनब* — खामोश सी, किताबों से मोहब्बत करने वाली लड़की। उसकी आँखों में एक समंदर था — गहरा, मगर शांत।
ज़ैनब का सबसे पसंदीदा वक़्त था शाम का, जब वह हवेली की छत पर बैठकर किसी पुरानी उर्दू किताब में डूबी होती और कभी-कभी अपने अब्बा की छोड़ी हुई डायरी पढ़ती, जिसमें शायरी के लफ़्ज़ अब भी महकते थे।
एक रोज़ वह पुरानी किताब की तलाश में *बिस्मिल किताब घर* पहुंची — एक तंग सी गली में बसी छोटी सी दुकान, जहाँ किताबें दीवारों की तरह खड़ी थीं और वक़्त ठहर जाता था।
*यूसुफ़* वहीँ मिला — लंबा कद, हलकी दाढ़ी, और आँखों में एक अजीब सी शरारत। वो दुकान का मालिक नहीं था, पर लगता था जैसे किताबों से उसका रिश्ता ख़ास हो।
"आपको कौन सी किताब चाहिए?" यूसुफ़ ने पूछा।
"फ़ैज़ की पुरानी नज़्मों की तलाश है," ज़ैनब ने धीरे से जवाब दिया।
"तलाश तो मोहब्बत का पहला क़दम होता है," यूसुफ़ मुस्कराया।
वो लफ़्ज़, वो अंदाज़ — ज़ैनब का दिल जैसे पलभर को रुक गया।
यूसुफ़ ने उसे एक किताब दी — *"रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आई..."* — और बोला, "इसमें नज़्में ही नहीं, दिल भी पिघलता है।"
ज़ैनब उस दुकान पर बार-बार जाने लगी। कभी किताब लेने, कभी बहाना बना कर। दोनों की मुलाकातें बढ़ती गईं — कभी बारिश में, कभी शाम की चाय पर। उनके दरम्यान जो लफ़्ज़ थे, वो सीधे दिल से निकलते और शायरी बन जाते।
एक दिन यूसुफ़ ने ज़ैनब से कहा,
"तुम्हारी आँखों में एक ग़ज़ल छुपी है, बस सुनाने की देर है।"
ज़ैनब ने नज़रे झुका लीं, पर उसकी मुस्कान ने सब बयां कर दिया।
मगर मोहब्बत की राहें हमेशा आसान कहाँ होती हैं?
ज़ैनब के घर में एक रिश्ता आया — लखनऊ के एक नामी ख़ानदान से। अमीर, सलीकेदार, लेकिन यूसुफ़ जैसा नहीं। ज़ैनब के अब्बू तो दुनिया छोड़ चुके थे, और अम्मी को ज़ैनब की शादी की फिक्र थी।
"माँ, मोहब्बत एक एहसास है, सौदा नहीं," ज़ैनब ने कहा।
"बेटी, एहसास पेट नहीं भरते," अम्मी ने जवाब दिया।
ज़ैनब टूट गई थी। हवेली की दीवारें अब उसे कैद सी लगती थीं। उसने यूसुफ़ से मिलना बंद कर दिया।
यूसुफ़ ने उसे कई चिट्ठियाँ लिखीं — उर्दू में, दर्द में भीगती हुईं। एक चिट्ठी में लिखा था:
*“ज़ैनब, अगर मोहब्बत को लफ़्ज़ों में लिख सकता, तो मैं तेरे नाम के हर हरफ़ से शायरी कर देता। पर तेरा न मिलना मेरी सबसे ख़ामोश नज़्म बन गया है।”*
शादी की तारीख़ करीब आ रही थी। हवेली सजने लगी थी, पर ज़ैनब का दिल बुझा हुआ था। एक शाम जब चाँद पूरी रौशनी में था, ज़ैनब छत पर गई और वो सारी चिट्ठियाँ पढ़ीं।
आँखों से बहते आँसुओं के साथ उसने आख़िरी चिट्ठी को सीने से लगा लिया।
अगली सुबह, शादी वाले दिन, ज़ैनब गायब थी।
***
दो साल बीत गए।
*बिस्मिल किताब घर* अब भी वहीं था, मगर यूसुफ़ अब शहर में नहीं था। किताबों पर धूल जम गई थी, और हवेली वीरान थी।
एक दिन एक लड़की दुकान में आई — सफेद दुपट्टा, आँखों में वही पुरानी नज़्मों की तलब।
"फ़ैज़ की नज़्में मिलेंगी?" उसने पूछा।
दुकानदार ने मुस्कराकर कहा, "आप ज़ैनब हैं न?"
वो चौंक गई।
"यूसुफ़ भाई ने एक किताब छोड़ी थी, कहा था कि अगर ज़ैनब आए, तो दे देना।"
वो किताब थी: *"तेरा इंतज़ार अब भी है..."*
किताब के पहले पन्ने पर लिखा था:
*“ज़िंदगी ने अगर मौक़ा दिया, तो फिर मिलेंगे — किसी ग़ज़ल की तरह, अधूरी लेकिन ख़ूबसूरत।”*
ज़ैनब की आँखों में आँसू थे, पर होंठों पर मुस्कान।
शायद मोहब्बत लौट आई थी — धीमे क़दमों से, उर्दू के लफ़्ज़ों में लिपटी हुई।