तब वरुण और माही ने मिलकर उन्हें उनकी पूरी योजना विस्तार से बताई भी और समझाई भी। यह सब सुनकर सभी लोग सन्न रह गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इतना कुछ घट गया, पर माही और वरुण ने उन्हें इस बात की हवा तक नहीं लगने दी।
रौशनी ने सब कुछ सुनने के बाद एक गहरी सांस लेते हुए कहा, "बाप रे, हमारी माही तो बहुत ही गलत परिवार में चली गई थी। अच्छा हुआ, वरुण, तुमने अपने परिवार को इस मुसीबत से बाहर निकाल दिया। लेकिन नताशा, वह कहाँ है? वह क्यों नहीं आई?"
माही ने कहा, "माँ, उसे ज़ोर का सदमा लगा है। उसे संभलने में थोड़ा वक्त लगेगा। मुझे विश्वास है, वह वापस ज़रूर आएगी और पूरी तरह से शुद्ध मन के साथ वापस आएगी। हम सब को उसका इंतज़ार रहेगा।"
रौशनी ने उदास चेहरे के साथ माही की तरफ़ देखकर पूछा, "माही, तुम्हारी सारी बातें सुनने के बाद मन में एक प्रश्न उठ रहा है कि क्या तुमने अपना ससुराल हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दिया है?"
माही ने अपनी माँ को समझाते हुए कहा, "हाँ, माँ, ऐसे परिवार में क्या रहना, जहाँ लालच, मारपीट और अत्याचार रहता हो?"
रौशनी ने माही को अपने सीने से लगाते हुए कहा, "मेरी बेटी, इतने दिनों से अत्याचार सहती रही और हमें मालूम तक नहीं होने दिया।"
माही ने कहा, "माँ, यदि मैं आपको यह सब बता देती तो आपके गले से खाना नहीं उतरता और आप मुझसे भी ज़्यादा दुःखी रहतीं।"
लेकिन आज माही का परिवार बहुत खुश था। माही को आज़ादी मिल गई थी, उनका मकान उन्हें वापस मिल गया था और वरुण का विवाह भी हो गया था।
सब ने साथ में बातें करते हुए डिनर किया और अपने-अपने कमरे में सोने चले गए।
रात को माही की आंखों में जब भी वहाँ के अत्याचार से भरे दृश्य दिखाई देते, उसकी रूह काँप जाती थी। वह उस परिवार को छोड़कर खुश थी।
उधर नताशा की रात जैसे-तैसे कट रही थी। सुबह का इंतज़ार उसे सोने नहीं दे रहा था। सूरज की किरणों के आगमन के साथ ही नताशा उठ बैठी। नहा-धोकर तैयार होकर वह घर से बाहर निकल ही रही थी कि तभी शोभा, विनय और रीतेश ने उसे देख लिया।
शोभा ने पूछा, "नताशा, कहाँ जा रही है तू?"
"वहीं, माँ, जहाँ मुझे जाना चाहिए। मैं मेरे किए पर बहुत शर्मिंदा हूँ। सोचती हूँ, काश वो पल मेरे जीवन में आए ही न होते; जब एक स्त्री होकर भी मैं दूसरी स्त्री के दर्द को समझ न सकी।"
रीतेश, विनय और शोभा तीनों के मुंह से कोई शब्द नहीं निकल पाए, न ही वे उसे रोक पाए। नताशा घर से बाहर निकल गई।
नताशा ने घर के बाहर क़दम निकाले, फिर उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह सीधे अपनी ससुराल यानी माही के मायके पहुँच गई। वह घर तो पहुँच गई, लेकिन दरवाजे पर खड़ी होकर सोचने लगी, "क्या सच में मुझे यहाँ प्यार और सम्मान मिलेगा, और यदि मिलेगा तो क्या मैं उसके लायक हूँ?"
यह प्रश्न वह ख़ुद से कर रही थी। तभी उसके मन से आवाज़ आई, "नहीं-नहीं, तू कैसे माही और उसके माता-पिता से नजरें मिला पाएगी? तुझे यहाँ आने का कोई हक़ नहीं है। तू पहले भी स्वार्थी थी और अब भी केवल अपना ही स्वार्थ देख रही है।"
उसके हाथ दरवाजे पर दस्तक देने में काँप रहे थे। मन कह रहा था लौट जा।
इधर वरुण के मन में उम्मीद थी कि नताशा ज़रूर वापस आएगी। उसे उसकी गलती का एहसास ज़रूर होगा। वह उसे कितना प्यार करती है।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः