अनजाना साया
लेखक: विजय शर्मा एरी
(लगभग १५०० शब्द)
गाँव का नाम था कालाकाँकर। पहाड़ियों के बीच बसा वो गाँव सदियों से शांत रहा था, पर लोग कहते थे कि हर अमावस्या की रात को जंगल के उस पार वाली पुरानी हवेली में कुछ चलता है। कोई रोशनी नहीं, कोई आवाज़ नहीं, बस एक साया जो कभी दीवार पर दिखता, कभी खिड़की में झाँकता, और फिर ग़ायब हो जाता। गाँव वाले उसे “वो” कहते थे। न नाम, न चेहरा, बस “वो”।
मैं शहर से आया था। नाम था मेरा अर्जुन मेहरा। पेशे से फोटोग्राफर, शौक़ से कहानियाँ ढूँढने वाला। एक पुराना दोस्त राकेश यहाँ का निवासी था। उसने फोन पर कहा था, “अर्जुन, अगर सच में हिम्मत है तो अमावस्या की रात को हवेली में रुक। मैं साथ नहीं आऊँगा, पर कैमरा ज़रूर ले जाना। शायद तू वो तस्वीर खींच ले जो आज तक किसी ने नहीं खींची।”
मैं हँसा था। शहर में मैंने रात-रात भर कब्रिस्तानों में फोटोशूट किए थे, पर यहाँ की हवा में कुछ अलग था। ठंडी नहीं, भारी थी। जैसे कोई साँस मेरे गले पर रखकर देख रहा हो कि मैं कब तक सहन करूँगा।
अमावस्या थी १४ अक्टूबर की। मैं शाम सात बजे हवेली के सामने पहुँचा। लोहे का जंग लगा गेट खुला पड़ा था। अंदर बरामदा, टूटे हुए झूमर, और सीढ़ियाँ जो ऊपर अंधेरे में खो जाती थीं। मैंने टॉर्च जलाई। दीवारों पर पुरानी पेंटिंग्स थीं। एक पेंटिंग में एक औरत थी, लंबे बाल, काली साड़ी, आँखें खाली। मैंने उसका फोटो लिया। फ्लैश चमका तो लगा जैसे उसकी आँखों में कुछ चमक गया हो।
रात के दस बज रहे थे। मैंने ग्राउंड फ्लोर पर ही अपना सोने का इंतजाम किया। एक पुराना सोफा था, उस पर चादर बिछाई। कैमरा ट्राइपॉड पर लगाया और टाइम-लैप्स शुरू किया। बाहर हवा चल रही थी, पर पेड़ों की पत्तियाँ तक नहीं हिल रही थीं। अजीब सन्नाटा था।
ग्यारह बजकर सैंतीस मिनट पर पहली बार हुआ।
मैं आँखें मूंदे लेटा था। अचानक लगा कोई मेरे बगल में बैठ गया। सोफा धँसा। मैंने आँखें खोलीं। कोई नहीं। पर गद्दे पर दबाव अब भी था। मैं उठकर बैठ गया। टॉर्च जलाई। खाली। मैंने हँसने की कोशिश की, “अरे यार, दिमाग मत खेलो।” पर हँसी गले में ही अटक गई।
रात के बारह बजकर सत्रह मिनट पर दूसरी घटना।
कैमरे का रिकॉर्डिंग लाइट अपने आप बंद हो गया। मैंने चेक किया, बैट्री फुल थी। दोबारा चालू किया। जैसे ही मैं लेटा, ऊपर से कोई चलने की आवाज़ आई। धीरे-धीरे, जैसे नंगे पाँव कोई सीढ़ियाँ उतर रहा हो। ठक… ठक… ठक…। आवाज़ मेरे ठीक ऊपर रुक गई। मैंने साहस जुटाया और टॉर्च ऊपर की। कोई नहीं। पर छत पर एक साया था। लंबा, पतला, सिर झुका हुआ। वो दीवार पर था, पर रोशनी उस पर पड़ रही थी, फिर भी वो काला ही था। जैसे अंधेरा खुद चल रहा हो।
मैंने कैमरा उठाया। फोकस किया। जैसे ही शटर दबाने वाला था, साया ग़ायब हो गया। पर कैमरे के LCD पर कुछ और था। उस औरत की पेंटिंग वाली औरत खड़ी थी, ठीक मेरे पीछे। मैं पलटा। पीछे कुछ नहीं। पर LCD पर वो मुस्कुरा रही थी। मैंने फोटो देखी। वो मुस्कुराहट मेरे कंधे पर हाथ रखकर खड़ी थी। फोटो में मेरा चेहरा सफेद था, आँखें डरी हुईं।
मैंने सोचा भाग जाऊँ। गेट तक पहुँचा। गेट बंद था। मैंने कल रात खुद खोला था, ताला तक नहीं था। अब लोहे के भारी ताले लगे थे। चाबी कहीं नहीं। मैंने ज़ोर से धक्का मारा। गेट नहीं हिला। पीछे से फिर वही आवाज़… ठक… ठक…। इस बार पास से। मैं पलटा। वो औरत सामने खड़ी थी। साड़ी काली, बाल खुले, चेहरा सफेद, आँखें काली गड्ढों जैसी। होंठ लाल। वो बोली नहीं, बस देखती रही।
मैंने पीछे हटना चाहा। दीवार से पीठ टकराई। वो पास आने लगी। हर कदम पर उसकी परछाई दीवार पर बड़ी होती गई। मैंने चिल्लाना चाहा, आवाज़ नहीं निकली। वो मेरे ठीक सामने रुकी। उसका हाथ उठा। ठंडा। बहुत ठंडा। उसने मेरी आँखों में देखा। और फिर अचानक फुसफुसाई, “तूने मेरी तस्वीर खींची थी ना?”
मैं हकलाया, “म… मैंने नहीं खींची… वो अपने आप…”
उसने मुस्कुराते हुए कहा, “अब मेरी बारी है।”
उसने अपना हाथ मेरे गले पर रखा। साँस रुकने लगी। मैंने आँखें बंद कर लीं। लगा अब मर जाऊँगा। पर अचानक ठंडक चली गई। मैंने आँखें खोलीं। वो ग़ायब थी। सामने सिर्फ़ मेरा कैमरा पड़ा था। LCD पर एक नई फोटो थी। मेरी फोटो। मैं ज़मीन पर लेटा था, आँखें बंद, गला दबा हुआ। पर मेरे ऊपर कोई नहीं था। सिर्फ़ एक हाथ का निशान मेरे गले पर साफ दिख रहा था।
मैं सुबह पाँच बजे होश में आया। गेट खुला था। मैं भागा। गाँव पहुँचा। राकेश के घर। उसने मुझे देखकर कहा, “तू ज़िंदा है?” मैंने सारी बात बताई। कैमरा दिखाया। सारी फोटोज़ ग़ायब थीं। सिर्फ़ एक फोटो बची थी। उस औरत की। पर अब वो मुस्कुरा नहीं रही थी। वो रो रही थी। आँखों से खून की आँसू। और नीचे लिखा था, छोटे-छोटे अक्षरों में, “मैंने कुछ नहीं किया था। उन्होंने मुझे ज़िंदा दीवार में चिनवा दिया था। १९४७ में।”
राकेश ने बताया कि वो हवेली एक ज़मींदार की थी। उसकी बहू थी वो। प्रेम कहानी थी किसी गाँव के लड़के से। ज़मींदार ने दोनों को पकड़ लिया। लड़के को गोली मार दी। औरत को जीते जी दीवार में चिनवा दिया। ताकि उसकी आत्मा भी बाहर न निकल सके।
मैं आज भी वो फोटो अपने पास रखता हूँ। कभी-कभी रात को वो फोटो अपने आप खुल जाती है। और उसकी आँखों से आँसू गिरने लगते हैं। मैं समझ गया हूँ, वो साया कोई बदला नहीं ले रहा था। वो बस किसी को अपनी कहानी सुनाना चाहता था। और मैंने उसकी तस्वीर खींच ली थी। अब वो चली गई है। पर कभी-कभी, जब मैं अकेला होता हूँ, मुझे लगता है कोई मेरे कंधे पर हाथ रखता है। ठंडा, पर नरम। और एक फुसफुसाहट आती है, “शुक्रिया… अब मुझे कोई नहीं रोकेगा।”
तब से मैं अमावस्या की रात कभी कैमरा नहीं उठाता।
क्योंकि कुछ साये सिर्फ़ देखने के लिए नहीं,
कहानी कहने के लिए आते हैं।
और कुछ कहानियाँ,
जब पूरी हो जाती हैं,
वो साया भी मुक्त हो जाता है।
समाप्त।