जीवन के रंग
लेखक: विजय शर्मा एरी
शब्द संख्या: लगभग १५००
गाँव था छोटा-सा, नाम था रंगपुर। नाम के मुताबिक़ गाँव रंगों से भरा हुआ था। खेतों में सरसों पीली, गेहूँ सुनहरी, आम के बाग हरे, और फाल्गुन में होली के रंग तो जैसे आसमान भी लज्जा से लाल हो जाता। पर गाँव के बीचोबीच एक मकान था जिसकी दीवारें सफ़ेद थीं, एकदम बेदाग़, मानो किसी ने कभी रंग छूने ही न दिया हो। उस मकान में रहती थी बूढ़ी अम्मा, लोग कहते थे, “लक्ष्मी बाई की सूरत में रंग नहीं चढ़ता।”
लक्ष्मी बाई अस्सी पार कर चुकी थीं। उनकी आँखें अब धुंधली हो चली थीं, पर ज़ुबान अभी भी तेज़ थी। गाँव वाले डरते थे उनसे। होली में बच्चे उनके दरवाज़े से दूर भागते, क्योंकि एक बार किसी ने उनके आँगन में गुलाल फेंका था तो उन्होंने झाड़ू उठा लिया था। “रंग मेरे घर में नहीं आएगा!” बस यही उनकी ज़िंदगी का एकमात्र नियम था।
लक्ष्मी बाई का एक पोता था, नाम था रंगीला। उम्र चौदह साल। उसका असली नाम तो रवि था, पर गाँव ने रंगीला रख दिया था क्योंकि वह जहाँ जाता, रंग बिखेरता। उसके कपड़े हमेशा रंग-बिरंगे, गालों पर गुलाल की हल्की सी लकीर, और जेब में हमेशा दो-चार पानी के गुब्बारे। वह लक्ष्मी बाई का इकलौता पोता था। माँ-बाप शहर में नौकरी करते थे, छुट्टियों में ही आते। रंगीला साल भर दादी के पास रहता।
एक दिन फाल्गुन की अमावस्या थी। अगले दिन होली। गाँव में ढोल बज रहे थे, औरतें गुझिया बना रही थीं, मर्द पिचकारी साफ़ कर रहे थे। रंगीला सुबह-सुबह दादी के पास गया।
“दादी, इस बार होली में आप भी खेलेंगी न?”
लक्ष्मी बाई ने चश्मा ऊपर चढ़ाया, एक झटका सा दिया। “तेरी होली तेरे पास रहे। मेरे घर में कोई रंग नहीं आएगा।”
रंगीला चुप हो गया। वह जानता था कि दादी के इस नियम के पीछे कोई पुरानी बात है, पर दादी ने कभी बताई नहीं। वह बस इतना जानता था कि जब वह छोटा था, तब भी दादी होली के दिन दरवाज़ा बंद कर अंदर बैठ जाती थीं।
रंगीला बाहर निकला तो उसकी सहेली चंदा मिली। चंदा की उम्र भी लगभग वही थी। उसके बालों में हमेशा एक लाल रिबन रहता। वह बोली, “रंगीला, इस बार कुछ अलग करते हैं। तेरी दादी को रंग लगाकर ही मानेंगे।”
रंगीला हँसा, “पागल है क्या? दादी झाड़ू उठा लेंगी।”
चंदा बोली, “झाड़ू से डरने वाले होली नहीं खेलते। चल, कुछ सोचते हैं।”
दोनों चौपाल पर बैठ गए। वहाँ गाँव के बच्चे इकट्ठा थे। सबने मिलकर प्लान बनाया। इस बार रंग नहीं, फूलों से होली खेलेंगे। सिर्फ़ गुलाब के फूल। लाल, पीले, सफ़ेद। और लक्ष्मी बाई के आँगन में फूलों की वर्षा करेंगे। किसी को चोट नहीं लगेगी, झाड़ू भी नहीं चलेगी। सब खुश।
अगले दिन होली थी। सुबह से ढोल बज रहे थे। रंगीला ने सफ़ेद कुर्ता पहना, पर जेब में लाल गुलाब की पंखुरियाँ भरी थीं। गाँव के बच्चे उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। सबके हाथ में फूलों की टोकरी। वे लक्ष्मी बाई के घर पहुँचे। दरवाज़ा बंद था।
रंगीला ने आवाज़ लगाई, “दादी! दरवाज़ा खोलो!”
अंदर से आवाज़ आई, “जा बेटा, खेल अपनी होली। मुझे मत तंग कर।”
रंगीला ने इशारा किया। सबने एक साथ फूल उछाल दिए। लाल, पीले, गुलाबी फूल हवा में उड़ते हुए दरवाज़े के ऊपर से अंदर गिरने लगे। आँगन में फूलों की चादर बिछ गई। बच्चे गा रहे थे,
“बोले होली की बोली,
दादी खेलें फूलों की होली।”
लक्ष्मी बाई पहले तो गुस्सा हुईं। उठीं, झाड़ू हाथ में लिया, पर दरवाज़ा खोलते ही उनकी आँखें फूलों पर ठिठक गईं। आँगन फूलों से भर गया था। हवा में हल्की-हल्की खुशबू। बच्चे बाहर खड़े मुस्कुरा रहे थे। रंगीला सबसे आगे।
लक्ष्मी बाई ने झाड़ू नीचे रख दिया। उनकी आँखें नम हो आईं। बहुत सालों बाद कोई उनके आँगन में रंग लेकर आया था, वो भी फूलों का रंग।
वे धीरे-धीरे बाहर निकलीं। बच्चे चुप हो गए। लक्ष्मी बाई ने रंगीला के गाल पर हाथ फेरा, फिर उसकी जेब से लाल पंखुरियाँ निकालीं और अपने सिर पर डाल लीं।
गाँव में खबर फैल गई। लोग दौड़े आए। जिस लक्ष्मी बाई ने साठ साल से होली नहीं खेली थी, उसने फूलों की होली खेल ली।
शाम को चौपाल पर सब इकट्ठा थे। रंगीला दादी का हाथ पकड़े बैठा था। कोई पूछ ही बैठा, “अम्मा, आप इतने सालों से रंग से क्यों डरती थीं?”
लक्ष्मी बाई चुप रहीं। फिर धीरे से बोलीं,
“जब मैं सात साल की थी, मेरे पिता होली में रंग लगाकर आए थे। बहुत रंग। उस ज़माने में रंग स्थायी हुआ करते थे। मेरे पिता को रंग में कुछ मिला दिया,किसी ने बदला लिया था। वे घर आए, हँसते हुए, और अचानक गिर पड़े। रंग उनकी सूरत पर चढ़ा रहा, पर साँसें चली गईं। माँ चीखीं, मैं रोई। उस दिन के बाद माँ ने कहा, ‘रंग मौत का रंग है।’ मैंने रंग से मुँह मोड़ लिया। साठ साल हो गए।”
चौपाल पर सन्नाटा छा गया। रंगीला ने दादी का हाथ कस कर पकड़ लिया।
लक्ष्मी बाई मुस्कुराईं, “पर आज तुम सबने जो फूल बरसाए, वो रंग नहीं, प्यार था। मैंने समझ लिया, रंग खुद नहीं मारता, मारता है उसमें छुपा हुआ ज़हर। तुम्हारे फूलों में ज़हर नहीं था, सिर्फ़ महक थी।”
उसके बाद हर होली में लक्ष्मी बाई आँगन में कुर्सी डालकर बैठतीं। बच्चे फूल बरसाते। रंगीला बड़ा हुआ, शहर चला गया पढ़ने, पर हर होली में लौटता। और दादी के सिर पर लाल गुलाब की पंखुरियाँ डालता।
एक साल रंगीला नहीं आया। शहर में नौकरी लग गई थी। होली के दिन लक्ष्मी बाई सुबह से आँगन में कुर्सी डालकर बैठी रहीं। बच्चे आए, फूल बरसाए, पर दादी की आँखें दरवाज़े पर टिकी रहीं।
शाम को एक डाकिया आया। उसने लिफाफा दिया। अंदर रंगीला का पत्र था और एक छोटा-सा डिब्बा। पत्र में लिखा था,
“दादी, इस बार मैं नहीं आ सका। पर आपके लिए रंग भेज रहा हूँ। इस बार भी फूलों का रंग। खोलिएगा।”
लक्ष्मी बाई ने डिब्बा खोला। अंदर सूखे गुलाब की पंखुरियाँ थीं, एकदम ताज़ा। और एक छोटा-सा नोट, “ये पंखुरियाँ मैंने अपने ऑफिस की छत पर उगाए गुलाब से बनाई हैं। शहर में भी रंगपुर की खुशबू है।”
लक्ष्मी बाई ने पंखुरियाँ सिर पर डालीं और रो पड़ीं। पर इस बार आँसुओं में मुस्कान थी।
उसके बाद गाँव में एक नई परंपरा शुरू हुई। होली से पहले बच्चे फूलों की टोकरी लेकर लक्ष्मी बाई के पास जाते और कहते, “दादी, ये रंगीला दादा ने भेजे हैं।” और दादी हँसते हुए फूल सिर पर डाल लेतीं।
लक्ष्मी बाई जब नब्बे साल की हुईं, एक होली के ठीक बाद वे चल बसीं। उनके कमरे में सिर्फ़ एक चीज़ मिली, एक बड़ा-सा मिट्टी का घड़ा, जिसमें सालों से बरसाए गए सारे सूखे फूल रखे थे। घड़े पर लिखा था,
“रंग मेरी सूरत पर नहीं चढ़ा,
मेरे दिल पर चढ़ गया।
रंगीला, तेरा रंग अमर है।”
गाँव ने उस होली में रंग नहीं, फूल बरसाए। और उस दिन से रंगपुर में होली दो तरह से खेली जाती है, एक रंग की, एक फूलों की। लोग कहते हैं, जहाँ रंग लगता है, वहाँ ज़िंदगी है, और जहाँ फूल बरसते हैं, वहाँ लक्ष्मी बाई की मुस्कान है।
रंग बिरंगी सूरत कोई चेहरा नहीं होती,
वो दिल होती है, जो रंग से डरना भूल जाए।