No revolution was ever made by imitation - 3 in Hindi Biography by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | नकल से कहीं क्रांति नहीं हुई - 3

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नकल से कहीं क्रांति नहीं हुई - 3

जीतेशकान्त पाण्डेय- कक्षा पाँच उत्तीर्ण कर आपने मिडिल स्कूल में प्रवेश लिया। मिडिल स्कूल का अनुभव कैसा रहा? डॉ0 सूर्यपाल सिंह- 1949 में मैंने कक्षा 5 उत्तीर्ण किया। देश आज़ाद हो चुका था। लोग नए उत्साह से काम कर रहे थे। गोण्डा के जूनियर हाईस्कूल में कक्षा 6 में प्रवेश लिया। मेरे पिताजी और चचेरे भाई रणछोर सिंह जी मिडिल पास कर चुके थे। मिडिल पास करने पर प्रायः नौकरी मिल जाया करती थी। प्राइमरी स्कूल के अध्यापक, पटवारी (लेखपाल) की नौकरी प्रायः मिडिल पास लोगों को मिल जाती थी। पुलिस भर्ती में तो अनपढ़ भी ले लिए जाते और उन्हें वहाँ पढ़ाकर तैयार कर लिया जाता। इसलिए गाँव के बच्चों का झुकाव मिडिल स्कूल की तरफ अधिक होता। कक्षा 6 से ही अंग्रेजी एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता। कक्षा 6 में प्रवेश लेने पर कुछ दिन के बाद यह बताया गया कि कक्षा 6 की कक्षाएं महाराजगंज जूनियर हाईस्कूल में नहीं चलेंगी। बच्चों को विकल्प दिया गया कि वे केशवपुर पहड़वा या बिशुनपुर बैरिया में जा सकते हैं जहाँ नए जूनियर हाईस्कूल की स्थापना हो रही है। यह एक राजनीतिक निर्णय था। केशवपुर के देवीदत्त सिंह गोण्डा कचेहरी में कर्मचारी थे। वे राजनीतिक दबाव डलवाकर अपने गाँव में जूनियर हाईस्कूल खुलवा रहे थे। यही स्थिति बिशुनपुर बैरिया की भी थी। वहाँ के लोग कांग्रेस में सक्रिय थे। कांग्रेस की ही सरकार थी। उन्होंने भी दबाव डलवाकर जूनियर हाईस्कूल प्रारम्भ कराया। केशवपुर पहड़वा या बिशुनपुर बैरिया में जूनियर हाईस्कूल खुलना असंगत नहीं था। पर गोण्डा में कक्षा 6 की कक्षाएं बंद करना जरूर तर्कसंगत नहीं था। हमारे घर से बिशुनपुर बैरिया लगभग 15 किलोमीटर था और केशवपुर पहड़वा 6 किलोमीटर था। इसलिए हमें केशवपुर पहड़वा का ही विकल्प चुनना पड़ा। केशवपुर पहड़वा में विद्यालय का कोई भवन नहीं था। पहड़वा के निकट एक झाड़ी को साफ करके बैठने लायक बनाया गया। झाड़ी के किनारे एक पेड़ था उसी के नीचे हम लोगों की कक्षाएं लगतीं। बारिश में हम लोग देवीदत्त सिंह की एक चौपाल में अपना बचाव करते। अपने गाँव के दो लोग हम और रामसेवक जी केशवपुर पहड़वा पढ़ने जाते। टेढ़ी उस पार से खरगुचांदपुर तक के बच्चे भागते हुए पढ़ने आते। उस समय टेढ़ी पर कोई पुल नहीं था। वे बच्चे बरसात में नाव से नदी पार करते। बिना जूता-चप्पल के भागते हुए बच्चे आते। हमारे गाँव से स्कूल तक आने में एक नाला भी पड़ता। इस पर भी कोई पुल नहीं था। बारिश में बड़ी मुश्किल से हम लोग इसको पार करके स्कूल जाते। अध्यापक भी शहर से आते। उस समय सत्र जुलाई से जून तक हुआ करता था और 10ः00 बजे से 4ः00 बजे तक कक्षाएँ चलती थीं पेड़ के नीचे। वहाँ कोई घंटा नहीं लगता था। अध्यापक अपनी घड़ी के हिसाब से या अंदाज से काम करते। अंग्रेजी, हिंदी, गणित, सामाजिक विज्ञान, कला आदि की पढ़ाई होती। हम लोग अपने बस्ते में एक पुटकी मक्का बाँध कर ले जाते। मध्यांतर में उसी को भुना लिया जाता। लावा चबाकर पानी पिया जाता। पानी भी कुएँ से भरकर लाना पड़ता था। एक बार कुएँ से पानी निकालने के लिए उबहन लाने के लिए हर बच्चे से दो पैसे या एक आना लिया गया। माधवराज द्विवेदी को चंदा इकट्ठा करने का काम सौंपा गया था। वे जब उबहन के लिए चंदा माँगते तब बच्चे चिढ़ाते बहन के लिए चंदा माँग रहे हो? इसी परिवेश में पूरा सत्र बीत गया। विद्यालय की कोई व्यवस्था पहड़वा में नहीं हो पाई। छह पास करते-करते यह पता चला कि महाराजगंज गोण्डा वाले जूनियर हाईस्कूल में छठीं और सातवीं की कक्षाएँ फिर चालू हो रही हैं। हम लोग भाग कर फिर शहर के जूनियर हाईस्कूल में आ गए। अब विद्यालय पहुँचना काफी आसान हो गया। महाराजगंज जूनियर हाईस्कूल का अपना परिसर था और खपड़ेल की छाजन का साफ-सुथरा विद्यालय। उस समय जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक को रहने के लिए एक बंगला मिला हुआ था। उसी परिसर में कई ऐसे कमरे थे जिसमें जरूरत पड़ने पर बच्चे रात में निवास कर सकते थे। जूनियर हाईस्कूल में 6, 7 और 8 की कक्षाएं चलती थी। अंग्रेजी सांवल प्रसाद जी पढ़ाते थे। स्वास्थ्य शिक्षा और कला कुंवर बहादुर सिंह तथा गणित शंकर दयाल सिंह। जो प्रधानाध्यापक थे उन्होंने इसी सत्र में अवकाश ग्रहण किया। उनके सम्मान में एक आयोजन किया गया। सम्मान का उत्तर देते हुए प्रधानाध्यापक ने हम लोगों को संबोधित करते हुए चौंका दिया। उन्होंने कहा-‘जो जूता में पहने हुए हूँ इसको उन्तीस साल पहले खरीदा था। मैं इस पर रोज पॉलिश करता हूँ और सँभाल कर पहनता हूँ। आप लोग भी यदि कोई चीज़ खरीदें तो उसका उपयोग संभाल कर करें।’ नए प्रधानाध्यापक रामदुलारे सिंह जी आए। वे कांग्रेस से जुड़े हुए थे। खद्दर की धोती और कुर्ता या कुर्ता-पैजामा पहनते थे। वाक्पटु थे और अपने काम में निपुण भी। वे जब यहाँ प्रधानाध्यापक होकर आए तो उनकी एक लड़की ने भी प्रवेश लिया जो हम लोगों के साथ पढ़ती थी। हम लोग चरखे पर सूत भी कातते थे और कता हुआ सूत गांधी आश्रम में खरीद लिया जाता और पूनी भी वहीं से मिल जाती। गाँधी आश्रम से ही हम लोग चरखा भी खरीदते थे। तकली से भी लोग सूत कातते। अच्छा कता हुआ सूत देकर गांधी आश्रम से कपड़ा भी प्राप्त किया जा सकता था। 15 दिसंबर 1950 को भारत के उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल का देहान्त हो गया। विद्यालय में एक शोकसभा आयोजित की गयी। प्रधानाध्यापक श्री रामदुलारे सिंह जी ने कहा कि पंडित नेहरू यदि राम हैं तो सरदार पटेल लक्ष्मण। उनके देहान्त से भारत की बड़ी क्षति हुई है। उस समय हम बच्चों को सरदार पटेल के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं थी। बाद में पढ़ने पर पता चला कि पाँच सौ से अधिक देसी रियासतों को भारत में मिलाने का महत्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया था। यह भी मालूम हुआ कि पन्द्रह में से बारह कांग्रेस समितियों ने अंतरिम प्रधानमंत्री के लिए सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया था। पर गांधी पंडित नेहरू को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे। इसलिए उनकी इच्छा के अनुरूप पंडित नेहरू ही अंतरिम प्रधानमंत्री बने। पंडित नेहरू और सरदार पटेल दोनों का योगदान भारत के लिए महत्वपूर्ण है। कक्षा सात में पढ़ते हुए मुझे कक्षा आठ की परीक्षा में सहयोग करना पड़ा। हुआ यह कि आठवीं की बोर्ड परीक्षा में एक बच्चा बीमार पड़ गया जिसके द्वारा लेखक की माँग की गई। मेरे प्रधानाध्यापक ने उसके लेखक के रूप में मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया। उसके साथ बैठकर मैंने उसके कक्षा 8 के प्रश्न पत्र को हल किया। वह कक्षा आठ उत्तीर्ण कर गया। इससे मुझे भी खुशी हुई। कक्षा आठ में थोड़ी समझ बढ़ने लगी थी पर संयोगवश कक्षा आठ का फार्म भरते समय मैं बीमार पड़ गया। कई दिन तक विद्यालय नहीं जा सका। मेरे कक्षा अध्यापक फार्म लेकर मेरे घर आए। आवश्यक स्थानों पर मेरा हस्ताक्षर कराया और फार्म भरकर लौट गए। जब मैं स्वस्थ हुआ तो विद्यालय जाने लगा। हमारी कक्षा में कई ऐसे विद्यार्थी थे जो दूसरे जिलों के थे। उनके पिता यहाँ नौकरी करते थे इसलिए उनके साथ रहकर बच्चे यहाँ पढ़ते थे। एक बच्चा प्रतापगढ़ का था। जो प्रायः मत बोलो की जगह ‘जिन बोला’ कहता था। उसी से हमने ‘जिन’ का अर्थ जाना। कक्षा में विभिन्न तरह के बच्चे थे। कुछ बहुत साफ-सुथरे आते। हमेशा कपड़े पर क्रीज़ पड़ी हुई। पर हम लोग कपड़े घर पर ही साफ कर लेते और कभी-कभी लोटे में आग रखकर प्रेस भी करते और वह प्रेस काम चलाऊ ही होता। हम लोग टाटपट्टी पर बैठते थे। बस्ता कभी झोले के रूप में और कभी महिलाओं की धोती के किनारा के कपड़े से भी बन जाता। सत्रांत हुआ तो जूनियर हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा हुई। जब परिणाम आया तो कक्षा आठ में मुझे प्रथम श्रेणी मिली थी। अब जूनियर हाईस्कूल के बाद आगे की पढ़ाई कहाँ किया जाए इस पर पिताजी ने जरूर कुछ सोचा होगा।जीतेशकान्त पाण्डेय- जूनियर हाईस्कूल के बाद आपने कहाँ प्रवेश लिया? उस समय कक्षा दस और बारह की पढ़ाई के लिए गोण्डा शहर में कितने विद्यालय थे और उनका परिवेश कैसा था? डॉ0 सूर्यपाल सिंह- मैंने 1952 में कक्षा आठ उत्तीर्ण किया था। उस समय गोण्डा में राजकीय विद्यालय एक ही था जिसे आज फखरुद्दीन अली अहमद इंटर कॉलेज कहा जाता है। यहाँ केवल कक्षा 10 तक की पढ़ाई होती थी। इंटरमीडिएट की पढ़ाई गोण्डा शहर में थॉमसन इंटर कॉलेज और सकसेरिया इंटर कॉलेज में होती थी। थॉमसन कॉलेज की प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी। उस समय आर0पी0 श्रीवास्तव इसके प्रिंसिपल थे। थॉमसन कॉलेज में इंटरमीडिएट में मानविकी और विज्ञान की पढ़ाई होती थी। सकसेरिया इंटर कॉलेज लड़कियों के लिए था और इसमें केवल मानविकी वर्ग की पढ़ाई होती थी। जो लड़कियाँ इंटरमीडिएट विज्ञान वर्ग से पढ़ना चाहती थीं वे प्रायः थॉमसन कॉलेज में प्रवेश लेकर पढ़तीं। एक नया विद्यालय श्री गाँधी विद्या मंदिर के नाम से खुल गया था लेकिन वहाँ पर उस समय केवल हाईस्कूल तक की पढ़ाई होती थी। थॉमसन कॉलेज का भी एक रोचक इतिहास है। यह विद्यालय पहले अमन सभा के नाम से जाना जाता था और उसमें केवल प्राइमरी तक पढ़ाई होती थी। सन् 1926 में राजकीय विद्यालय में उन सभी बच्चों का प्रवेश कक्षा 6 में नहीं हो पाया जो आगे पढ़ना चाहते थे। उनके अभिभावक जिलाधिकारी श्री थॉमसन से मिले। अपनी समस्या बताई। जिलाधिकारी ने अमन सभा में कक्षा 6 की कक्षाएँ चलाने की व्यवस्था कर दी। उनके मन में इसे एक इंटर कॉलेज तक पहुँचाने का संकल्प जगा। उन्होंने विभिन्न रियासतों से सहयोग लेकर कॉलेज के भव्य भवन का निर्माण कराया। श्री थॉमसन इस कॉलेज के विकास में अधिक रुचि लेने लगे। कुछ दिनों बाद उनका स्थानांतरण हो गया पर विद्यालय तेज गति से विकास करने लगा। कहते हैं थॉमसन महोदय ने एक बार फिर जिलाधिकारी के रूप में अपना स्थानांतरण कराया और इसके विकास को गति प्रदान की। आज भी इस कॉलेज की प्रबंध समिति का अध्यक्ष जिलाधिकारी ही होता है। बाद में थॉमसन महोदय की सेवाओं को देखते हुए कॉलेज का नाम थॉमसन इंटर कॉलेज कर दिया गया। बहुत दिनों तक यही नाम चलता रहा। कुछ वर्ष पहले इसका नाम बदलकर शहीदे आज़म भगत सिंह इंटर कॉलेज कर दिया गया। अब भी पुराना नाम लोगों की ज़बान पर रहता है। कक्षा 9 में प्रवेश के लिए पिताजी मुझे लेकर बाबा लाल सिंह के मकान गोलागंज पर गए। उनसे चर्चा की। वे हम लोगों को लेकर थामसन कॉलेज के अंग्रेजी प्रवक्ता श्री जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव के मकान पर गए। वे उस समय एक पलंग पर बैठे हुए थे। जगदीश बाबू का शरीर दुबला पतला था। उनके पिता तहसीलदार होकर सेवानिवृत्त हुए थे। बाबा लाल सिंह ने हम लोगों के आने का उद्देश्य बताया। जगदीश बाबू ने हमारा अंक पत्र देखा और कहा कि प्रवेश हो जाएगा। कल बच्चे को लेकर कॉलेज आओ।  अगले दिन मैं पिताजी के साथ कॉलेज गया। फॉर्म भरा गया और मेरा प्रवेश कक्षा नौ-एफ में हो गया जिसमें सभी बच्चे जूनियर हाईस्कूल उत्तीर्ण होकर आए थे। मेरे पिताजी केवल मिडिल पास थे। आगे की पढ़ाई के बारे में उनकी जानकारी बहुत कम थी। अध्यापक ने जो विषय दिया उसे हम लोगों ने स्वीकार कर लिया। उस समय कक्षा दस में ही विज्ञान, कला, रचनात्मक आदि वर्ग अलग-अलग हो जाते थे। मुझे कला वर्ग में प्रवेश मिला था जिसमें हिंदी, अंग्रेजी, प्रारंभिक गणित, भूगोल और नागरिक शास्त्र पढ़ना था। अंग्रेजी की दो घंटी होती थी अन्य विषयों की एक। कक्षा 9 में बाबू नूर मोहम्मद ने हमें अंग्रेजी पढ़ाया। वे गोरे मझौले कद के व्यक्ति थे। अधिकतर कुर्ता-पैजामा पहनते और जाड़े में शेरवानी। उनके वस्त्र साफ-सुथरे होते। आवाज भी मधुर थी और मन लगाकर पढ़ाते। हिंदी अनन्तू साहब पढ़ाते थे। उनका शरीर भारी था। पर वे कक्षा में मेहनत से पढ़ाते। गणित ए0पी0 तिवारी और भूगोल इल्तिफ़ात अहमद साहब पढ़ाते। उनके पढ़ाने का ढंग अत्यंत मनोरंजक होता। भौगोलिक घटनाओं और दृश्यों का चित्रांकन करने में उन्हें महारत हासिल थी। वे घर पर डिशेन की दवा भी देते और मरीज उनके यहाँ आया करते। कॉलेज में पीटी भी होती। पंडित रामशब्द हम लोगों को पीटी कराते। थॉमसन कॉलेज में प्रार्थना नहीं होती थी। 9ः55 पर घंटी लगती और कक्षाध्यापक रजिस्टर लेकर कक्षा में पहुँचते। हाजिरी दर्ज होने के बाद पढ़ाई शुरू हो जाती। कक्षाध्यापक का ही प्रायः पहला घंटा हुआ करता था। प्राचार्य भी पूरा समय देते। 9ः55 पर उनकी साइकिल आ जाती। सलीम चपरासी लपक कर उनकी साइकिल पकड़ते और वे अपने ऑफिस में जा बैठते। वे प्रायः पूरी बाँह की कमीज और पैंट पहनते। बोलने में मधुर वाणी का प्रयोग करते। पहली घंटी लगाकर सलीम चपरासी बरामदे से होते हुए एक चक्कर लगा लेते और प्राचार्य जी को सूचित करते की सभी कक्षाओं में अध्यापक पढ़ा रहे हैं। यदि कोई अध्यापक छुट्टी पर जाता तो उसमें पढ़ाने के लिए जिन अध्यापकों के घंटे खाली होते उन्हें भेज दिया जाता। यह सारा  काम प्रायः भवानी शंकर लाल जी करते। उस समय अंग्रेजी में कई प्रवक्ता थे-सरयूप्रसाद श्रीवास्तव, जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव, सुरेन्द्र श्रीवास्तव, सरदार बेन्तसिंह। भौतिक विज्ञान में गुरुसरन लाल, जीव विज्ञान में मुरली मनोहर कात्यायनी और रसायन विज्ञान में पी0 दयाल तथा गणित में त्रिपुरारी पाण्डेय प्रवक्ता के रूप में कार्यरत थे। अर्थशास्त्र में भवानीशंकर लाल, भूगोल में इल्तिफ़ात अहमद, इतिहास में कृष्णकान्त राय और नागरिक शास्त्र में श्यामजी श्रीवास्तव, हिंदी में निर्मलचंद्र श्रीवास्तव, उर्दू में हुसैनी साहब, एलटी ग्रेड में भी नानक चन्द्र, पंडित जय जयराम मिश्र सहित कई अच्छे अध्यापक थे और कुछ दिन के लिए डॉ0 भोलानाथ भ्रमर भी कार्यरत थे। उस समय का परिवेश पढ़ायी-लिखायी के लिए काफ़ी अर्थपूर्ण था। देश को आजाद हुए पाँच वर्ष हुआ था। 1952 का चुनाव संपन्न हो चुका था। कांग्रेस उसमें बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। उस समय विधायक और सांसद की बहुत इज्ज़त होती। वे भी तपे-तपाये लोग होते।उस समय विधायक या सांसद निधि का कोई प्रावधान नहीं था। विधायक भी रिक्शे पर या पैदल चलते हुए मिल जाते। गोण्डा में सांसद प्रारम्भ में बाहर के ही लोग होते। थॉमसन कॉलेज का परिवेश काफ़ी सुरुचिपूर्ण था। साफ-सफाई का काफ़ी ध्यान रखा जाता। बच्चों के लिए कोई ड्रेसकोड नहीं था। हाईस्कूल में एक समूह रचनात्मक वर्ग का भी था जिसमें बच्चे कताई, बुनाई, बढ़ईगिरी, बुक क्राफ्ट में से कोई एक विषय लेते। उस समय हर तीसरे वर्ष कॉलेज का पैनल निरीक्षण होता जिसमें दो बाहरी तथा एक जिला विद्यालय निरीक्षक पैनल में होते। यह पैनल तीन दिनों तक कॉलेज के शिक्षण कार्य का निरीक्षण करता। हर घंटे में घूम-घूम कर लोग कक्षाओं में जाकर पढ़ायी का आकलन करते। प्रायः सभी अध्यापकों का निरीक्षण अवश्य हो जाता। इसी बहाने हर तीसरे वर्ष कॉलेज की पुताई आदि होती और पढ़ाई लिखाई का स्तर बना रहता। लिखित कार्य को अध्यापक जाँचते और गलतियां का सुधार करवाते। तीन दिन के बाद वह पैनल चला जाता और कुछ दिन के बाद उसकी रिपोर्ट आ जाती। हर अध्यापक अपने से संबंधित रिपोर्ट को पढ़ता और उससे लाभान्वित होता। प्राचार्य आरपी श्रीवास्तव भी प्रायः लिखित कार्य की कॉपियाँ मँगवाकर देखते और आवश्यक टिप्पणी लिखते। इससे अध्यापक लिखित कार्य को जाँचने में रुचि लेते।