एक अनोखा डर
लेखक: विजय शर्मा एरी
शब्द संख्या: लगभग १५००
रात के दो बज रहे थे। दिल्ली की उस ऊँची इमारत की २७वीं मंज़िल पर विजय शर्मा अपनी कुर्सी पर पीछे झुका हुआ था। सामने लैपटॉप की स्क्रीन पर चौंतीस मेल अनरीड दिख रहे थे, दायीं तरफ़ रखा फ़ोन हर दस सेकंड में वाइब्रेट कर रहा था। उसने आँखें बंद कीं।
“मैं कौन हूँ?” अचानक यह सवाल उसके दिमाग़ में कौंधा।
तीस साल की उम्र में वह ‘विजय शर्मा’ नहीं, ‘विजय शर्मा, सीईओ, थंडरबर्ड टेक्नोलॉजीज़’ था। नाम के साथ पद चिपक गया था जैसे कोई टैटू जो मिटाया नहीं जा सकता।
बचपन में वह इलाहाबाद के गंगा किनारे बसे छोटे से मोहल्ले में रहता था। पिता रेलवे में टीटीई थे, माँ स्कूल में हिंदी पढ़ाती थीं। शाम को वह अपने दोस्त मंटू के साथ गंगा घाट पर बैठकर कागज़ की नाव बनाता और देखता कि नाव पानी में तैरते-तैरते कब डूब जाती है। मंटू कहता, “यार विजय, बड़ा होकर मैं नाववाला बनूँगा, असली वाली मोटरबोट चलाऊँगा।” विजय हँसता, “मैं तो कुछ ऐसा बनूँगा कि दुनिया मेरे नाम से जाने।”
दुनिया ने सचमुच उसके नाम से जानना शुरू कर दिया था।
आईआईटी, फिर अमेरिका में एमबीए, पच्चीस की उम्र में पहली स्टार्टअप, सत्ताईस में सौ मिलियन डॉलर की वैल्यूएशन, और अब तीस में अरबों का कारोबार। अख़बारों में उसका चेहरा, फोर्ब्स की लिस्ट में नाम, इंस्टाग्राम पर लाखों फ़ॉलोअर्स। लेकिन आज रात उसे लगा कि वह ख़ुद से बहुत दूर चला आया है।
उसने लैपटॉप बंद किया और बालकनी में आ गया। ठंडी हवा का झोंका आया। नीचे सड़क पर कारों की लाइटें साँप की तरह रेंगती दिख रही थीं। उसने फ़ोन उठाया और एक नंबर डायल किया जो सालों से नहीं डायल किया था।
“हैलो…” उधर से नींद भरी आवाज़ आई।
“मंटू… मैं विजय बोल रहा हूँ।”
दूसरी तरफ़ ख़ामोशी। फिर चीख़, “अरे विजय भाई! तू… तू इस वक़्त?”
“बस यूँ ही याद आ गई। तू क्या कर रहा है आजकल?”
मंटू हँसा, “यही गंगा में मोटरबोट चला रहा हूँ। टूरिस्ट को घुमाता हूँ। तू बता, अरबपति कब बन गया?”
विजय कुछ नहीं बोला। उसकी आँखें नम हो आईं।
अगले ही हफ़्ते वह दिल्ली से इलाहाबाद के लिए निकल पड़ा। कोई प्राइवेट जेट नहीं, कोई बॉडीगार्ड नहीं। सिर्फ़ एक बैग और ट्रेन का थर्ड एसी टिकट। ट्रेन में उसके बगल में एक बुजुर्ग बैठे थे जो लगातार खर्राटे ले रहे थे। विजय ने खिड़की से बाहर देखा। खेत, नदियाँ, छोटे-छोटे स्टेशन। उसे लगा जैसे समय पीछे की तरफ़ चलने लगा हो।
इलाहाबाद पहुँचते ही उसने ऑटो लिया और सीधा पुराने मोहल्ले में पहुँच गया। घर अब भी वही था, बस दीवारें थोड़ी सी टूट गई थीं। माँ दरवाज़े पर खड़ी थीं। उन्होंने उसे देखा और पहले तो पहचाना नहीं। फिर चीख़ पड़ीं, “विजय!”
उसने माँ के पैर छुए। माँ का हाथ उसके सिर पर फेरते हुए बोलीं, “बेटा, तू बहुत दुबला हो गया है।”
घर में कोई एसी नहीं था। पंखा धीरे-धीरे चल रहा था। माँ ने उसके लिए आलू-प्याज़ की सब्ज़ी और मोटी-मोटी रोटियाँ बनाईं। विजय ने जैसे भूखे शेर की तरह खाया। खाते-खाते उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे। माँ ने पूछा, “क्या हुआ?”
“कुछ नहीं माँ… बस भूख बहुत लगी थी।”
शाम को वह गंगा घाट पर गया। मंटू सचमुच वहाँ था। सफ़ेद कुर्ता, मुँह में बीड़ी, हाथ में मोटरबोट की चाबी लटक रही थी। विजय को देखते ही वह दौड़ा और गले लगा लिया। “अरे हरामज़ादे, तू सचमुच आ गया!”
दोनों ने मोटरबोट ली और गंगा के बीचों-बीच पहुँच गए। सूरज डूबने वाला था। पानी पर लाल-नारंगी रंग फैल रहा था। मंटू ने बीड़ी सुलगाई और बोला, “बता, क्या हुआ? इतने बड़े आदमी को अचानक अपने दोस्त की याद कैसे आ गई?”
विजय ने लंबी साँस ली। “मंटू, मुझे डर लग रहा है।”
“किस बात का?”
“कि मैं ख़ुद को खो चुका हूँ। जो विजय गंगा में कागज़ की नाव बनाता था, जो रात भर किताबें पढ़ता था, जो सपने देखता था… वह विजय कहीं ग़ायब हो गया है। अब सिर्फ़ एक ब्रांड बचा है—विजय शर्मा, सीईओ। लोग मुझसे मिलते हैं तो मेरी नेट वर्थ की बात करते हैं, मेरी सफलता की बात करते हैं। कोई नहीं पूछता कि विजय खुश है या नहीं।”
मंटू चुप रहा। फिर धीरे से बोला, “यार, तूने जो चाहा था वही तो पा लिया। दुनिया तेरे नाम से जानती है।”
“लेकिन मैं ख़ुद अपने नाम से नहीं जानता।” विजय की आवाज़ काँप गई। “मंटू, कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं एक किरदार निभा रहा हूँ। सूट पहनता हूँ, मीटिंग्स करता हूँ, इंटरव्यू देता हूँ… लेकिन रात को जब अकेला पड़ता हूँ तो समझ नहीं आता कि असली विजय कहाँ है।”
मंटू ने बीड़ी फ़ेंकी और पानी में एक कंकड़ उछाला। “चल, एक काम करते हैं।” उसने बोट मोड़ा और किनारे की तरफ़ ले गया। वहाँ एक पुराना घाट था जहाँ बचपन में दोनों छिप-छिप कर सिगरेट पीते थे। मंटू ने बोट बाँधी और विजय का हाथ पकड़ कर ऊपर ले गया।
वहाँ एक पीपल का पेड़ था। उसकी जड़ के पास एक पत्थर था जिस पर उन्होंने बचपन में खून से लिखा था—‘विजय + मंटू, बेस्ट फ़्रेंड्स फ़ॉरएवर’। पत्थर अब भी था। लिखावट मिट चुकी थी, लेकिन निशान बाक़ी थे।
विजय उस पत्थर के पास बैठ गया। उसकी उँगलियाँ उन निशानों पर फ़िरीं। अचानक वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। जैसे सारे सालों का दर्द एक साथ बाहर आ गया हो। मंटू ने कुछ नहीं कहा, बस उसका कंधा थपथपाता रहा।
रात को विजय अपने पुराने कमरे में सोया। कमरे में अभी भी वही पुरानी अलमारी थी, वही टूटा हुआ पलंग। दीवार पर उसकी दसवीं की मार्कशीट चिपकी थी—९२%। उसने मार्कशीट को हाथ लगाया और मुस्कुराया। “तब मैं कितना खुश था।”
अगले दस दिन वह इलाहाबाद में ही रहा। सुबह माँ के साथ मंदिर जाता, दिन में मंटू के साथ गंगा में नहाता, शाम को मोहल्ले के बच्चों को कंप्यूटर सिखाने लगता। कोई उसे पहचानता तो हैरान हो जाता, “अरे आप तो टीवी वाले विजय शर्मा हैं ना?” वह हँस कर टाल देता, “नहीं भाई, मैं तो यहाँ का विजय हूँ, मंटू का दोस्त।”
धीरे-धीरे उसे लगा कि खोया हुआ विजय वापस लौट रहा है। वह विजय जो बिना कुछ कहे मुस्कुरा सकता था। वह विजय जो रात को छत पर लेट कर तारे गिनता था। वह विजय जिसे सफलता की नहीं, सुकून की ज़रूरत थी।
ग्यारहवें दिन वह दिल्ली लौटा। ऑफ़िस पहुँचा तो सब हैरान। सीईओ साहब दस दिन ग़ायब थे, कोई फ़ोन नहीं, कोई मेल नहीं। लेकिन विजय शांत था। उसने मीटिंग बुलाई और सिर्फ़ एक घोषणा की—
“मैं छह महीने की छुट्टी ले रहा हूँ। कंपनी बहुत अच्छे हाथों में है। मुझे अपने लिए कुछ वक़्त चाहिए।”
सब सन्न रह गए। कोई बोला, “सर, अगले महीने इन्वेस्टर मीट है…”
विजय मुस्कुराया, “हाँ, पता है। तुम लोग संभाल लोगे। मैंने तुम्हें इसी लिए चुना है।”
उसके बाद विजय ने अपना फ़्लैट बेच दिया। दिल्ली छोड़ दी। वह वापस इलाहाबाद आ गया। माँ के बगल वाले मकान में एक छोटा सा घर ले लिया। मंटू के साथ मिल कर एक स्कूल खोला—गंगा के किनारे, गरीब बच्चों के लिए मुफ़्त कंप्यूटर शिक्षा। नाम रखा—‘अपने आप को जानो’।
लोग कहते, “विजय शर्मा पागल हो गया। अरबों छोड़ कर दो कौड़ी का स्कूल खोल लिया।”
लेकिन विजय जानता था कि उसने अरबों नहीं, ख़ुद को वापस पा लिया है।
अब शाम को वह फिर गंगा घाट पर बैठता है। कागज़ की नाव बनाता है। नाव पानी में तैरती है, दूर तक जाती है, फिर धीरे-धीरे डूब जाती है।
विजय मुस्कुराता है।
“कोई बात नहीं। डूबने से डरने की ज़रूरत नहीं।
जो डूब जाता है, वही तो फिर से ऊपर आता है—और इस बार पूरी तरह अपना।”
समाप्त।