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महेश रौतेला

महेश रौतेला Matrubharti Verified

@maheshrautela
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पृष्ठभूमि में नैनीताल:

1973 से 1977 का नैनीताल पृष्ठभूमि में जा चुका था। सोच ही रहा था-
"जीवन है
कहीं से निकल लेगा,
ठोकर लगेगी, गिरेगा
फिर उठ जायेगा।
उसका अन्त नहीं मिलेगा
गायेगा, नाचेगा
सुगंध बन उड़ जायेगा।
जीवन है
कभी भी, किसी तरह आ जायेगा
गुदगुदायेगा,गरमायेगा।
एक दूसरे के विरुद्ध हो
सकपकायेगा,
एक दूसरे के संग हो
मुस्करायेगा, हँसेगा,
फिर नींद के आगोश में आराम करेगा।
जो गाया गया
उसे दोहरायेगा,
नया रच नक्षत्र सा टिमटिमायेगा।
जीवन है
उसे भूख लगेगी,
श्रम से,परिश्रम से
आत्मा पूरी होगी।"
हल्द्वानी जाने वाली बस तब भी यहीं से जाती थी, अब भी,तल्लीताल से। बस को देखकर लगता है यदि क्षण रूके होते तो मैं ढेरसारी शुभकामनाएं देते हुये स्वयं को देखता रहता। वे संवेदनाएं जा चुकी थीं। दोस्त सभी जा चुके थे। नैनीताल निर्मम लग रहा है। सुन्दर शहर बिना काम के उजाड़ लग रहा है। वृक्ष अब भी छाया देते हैं लेकिन मन उचाट है। हालांकि सभी गतिविधियां अजस्र चल रही थीं। वही विद्यालय, वही स्नेह-प्यार, वही खेल, वही आवाजाही, वही सुख-दुख, वही रिश्ते,वही रास्ते, वही आसमान। मनुष्य ही मनुष्य को उपयोगी चहल-पहल देता है। मनुष्य का महत्व भी मनुष्य से है। डोटीयाल सामान ढोने में व्यस्त रहते हैं। भावताव लगा रहता है,सामन ढोने के लिए। जो डोटीयाल मेरा सामान अक्सर ले जाया करता था वह अब मुझे देख कर मुस्कराता है। एक दिन वह बोला," साहिब, आजकल क्या कर रहे हो?" मैंने कहा कुछ नहीं," बेरोजगार हूँ।" फिर बोला आपके दोस्त? मैंने कहा," सब उड़ गये।" मैं बस को देखता हूँ फिर डाकघर जाता हूँ। डाकिये से पूछता ,"कोई डाक है क्या?" वह नहीं में उत्तर देता। तब एक निराशा छा जाती और अगले दिन की आशा में समय बीतने लगता। राह जब गाँव से शहर आ जाती है तो लक्ष्य भी बदलने लगते हैं। मेरा दोस्त कहता था, वह पढ़ना ही नहीं चाहता था। उसने अपने माता-पिता से कहा था," मैं खेतीबाड़ी का काम करना चाहता हूँ। मेरी शादी कर दीजिये। हम दोनों सबकुछ सभाल लेंगे। लेकिन मेरी बातों को गम्भीरता से नहीं लिया गया। गाँव के काम में बहुत परिश्रम करना पड़ता था। पैसे की तंगी रहती थी। इसलिए शायद मुझे आगे पढ़ने को कहा गया।"
मैं झील के किनारे खड़ा हूँ। "देखा,एक साँप एकाग्र होकर झील के जल को देख रहा है। वह मछली की तलाश में है। ज्योंही मछली उसके नजदीक आती है वह झट से अपना ग्रास बना लेता है। एक सुन्दर मछली,झील में हँसती-खेलती साँप के पेट में जा चुकी है। उसका दमघुट गया है।उसका जीवन साँप के जीवन में समाहित हो चुका है।"
उधर पाषाण देवी से एक व्यक्ति झील में कूद गया है। नाव वालों ने उसे बचा लिया है। जीवन का संघर्ष और उसका पलायन दिख रहा है।
देवदार वृक्षों की छाया लम्बी होकर राहों को ढक चुकी है। मुझे विगत एक स्वप्न सा आता है-
"मैंने सबसे पहले तुमसे ही पूछा
पाठ्यक्रम का विवरण
हवा की ठंडक
और तुमने पुष्टि की
मेरे इन सरल दिनों की ।
मैंने सबसे पहले तुममें ही खोजा
अपना पता
आने-जाने का रास्ता
सम्पूर्ण प्यार का अहसास
और तुमने लगायी मुहर
मेरे इन चलते वर्षों पर।"
मेरे लिए नीरस होते नैनीताल से मेरा यह कथन अभी भी सरस लग रहा है। वैसे शिकायत समय से है। बरसात समाप्त होकर ठंड आ चुकी है। गाँव के किस्से मन में घूमते-घूमते तुलना करने लगते हैं।एक ओर उच्च शिक्षा ग्रहण करती लड़कियां और दूसरी ओर गाँव की वे लड़कियां जो विद्यालय का मुँह भी नहीं देख पाती हैं। उनके हिस्से घर के काम आते हैं। उनकी चार लड़कियां हैं, जब मायके आती हैं तो मायके से ससुराल जाते, विदाई के समय पिता दीपक दूसरे घर चले जाता है इसलिए कि बेटियों के हाथ में कुछ रखना न पड़े। वह लगभग सौ साल जिया लेकिन उसका स्वभाव नहीं बदला। मनुष्य की संवेदनायें एक ओर शून्य होती हैं और दूसरी ओर गगन से भी ऊँची।
आकाश में नक्षत्र टिमटिमा रहे हैं। सृष्टि अपनी गति पकड़े हुये है। एक उदासी लिए मैं घुप अँधेरे में हूँ। एक दोस्त दिल्ली से आया है। हम भवाली रोड पर दूर तक घूमने गये हैं। धुँध नीचे से ऊपर की ओर आ रही है। फिर हमारे चारों ओर छा गयी है। लगा जैसे जीवन को परिभाषित कर रही हो। उसने कहा ,"वह मिली थी बैंक पी. ओ.परीक्षा में। तुम्हारे बारे में पूछ रही थी।" हम लौट रहे हैं अपने-अपने कदमों के सहारे। वह दूसरे दिन चला गया। मैं मेरे लिए निर्मम होते नैनीताल को महिनों देखता रहा हूँ। जो आकर्षक है, वह विरान लगने लगा है मुझे। रोजगार, कर्म जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं। उनके होने से संवेदनायें अपने आप खिलने लगती हैं। झील ठंडी हो चुकी है। मेरा साक्षात्कार पत्र डाकिया मुझे दे रहा है। लगभग आधा फीट बर्फ गिर चुकी है। वृक्षों की टहनियां झुकी हुयी हैं। मैं उड़ान को तैयार हूँ

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मैं तो ऐसा भूलभुलैया
हर पगडण्डी सा मुड़ा हुआ हूँ।
जो गगन खुला हुआ है
उस गगन का तारा हूँ।

उस गाँव का प्रधान बना हूँ
जिस पर गड्डे बहुत बड़े हैं,
उस शहर का मेयर बना हूँ
जिस में खड्डे बहुत खुले हैं।

उस कक्षा का अहं भाग हूँ
जहाँ स्नेह को रचता हूँ,
उस यात्रा का अहं हिस्सा हूँ
जहाँ टूटने पर राह बना हूँ।

मैं पूछने को प्रश्न बना हूँ
किसी याद में शाश्वत रहा हूँ,
किसी नयन में उठा हुआ हूँ
सुर में,लय में मैं रहा हूँ।


** महेश रौतेला

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हर सदी का बड़ा परिवर्तन
हिंसा से ही आया है,
सुनो पार्थ, इस रण भूमि में
राष्ट्र-न्याय शस्त्रों से आया है।

यह ज्ञान से उतरती,
राग-द्वेष की संसद है,
नित नये राग हैं,सुर- असुरों के,
देव सारे स्वर्ग सिधारे,
पर अब भी आशा नित नहाती
ओ,भारतभाग्यविधाता।

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एक छोटा सा मन था
जो छोटी सी प्रेम कहानी में उलझा रहा,
बहुत आशा से निराशा की ओर जा
फिर आशा पर टिका रहा।

राह ही तो है

राह ही तो है
निकल जायेगी जंगलों से,
पहुँचा देगी
इधर से उधर,कहीं भी।
राह ही है
जो प्यार को पकड़
स्वरों में ढल,
धुनों को गुनगुनायेगी।
राह ही है
जो बदल जायेगी,
सतयुग, त्रेता ,द्वापर होते हुये
कलियुग में आ जायेगी।
***

*** महेश रौतेला

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मैं इस संसृति का हिस्सा हूँ
तुम संसृति का हिस्सा हो,
खो जाऊँ तो मिल जाऊँगा
तुम सा अगाध बन जाऊँगा।

हम संसार की बातों में
सुबह-शाम बीताते जायेंगे,
अर्धसत्य से पूर्ण सत्य तक
उर्ध्व राह ढूंढते जायेंगे।

जो संगीत यहाँ बजता है
उसमें गीत मिलाते जायेंगे,
हम पशुता को छोड़छाड़
मानवता का संघर्ष सजायेंगे।

जो भाषा की लाठी पकड़-पकड़
भारत को यों नकार रहे हैं,
हम भारत की भाषा को कह
सबकी पहिचान बना रहे हैं।

क्षुद्र जिनका लक्ष्य रहा
वे मिट जायेंगे मिट्टी में,
पार्थ, इस संघर्ष की मीमांसा में
शिशुपाल चक्र से कट जायेंगे।


** महेश रौतेला

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लेकिन सन्तोष है:

बहुत निराशा है मन में
कि इतना भ्रष्टाचार है
पैसे का लेन-देन है,
लेकिन सन्तोष है
कि अच्छाई भी है।
बहुत निराशा है मन में
कि नदियां गदली हो चुकी हैं
दूषित बहुत नाले हैं,
पर सन्तोष है
कि कुछ शुद्धता बनी हुयी है।
मन बहुत उदास है
कि कुछ पक्षियां विलुप्त हो गयी हैं
कुछ जंगल कट चुके हैं
पर सन्तोष है
कि अभी भी आशा जीवित है।
बहुत उदिग्न हूँ
कि युद्ध लड़े जा रहे हैं,
गलत इधर भी है
गलत उधर भी है,
लेकिन सन्तोष है
कि अच्छाई अभी भी है।
उधर इतनी घूस है
इधर उतनी घूस है,
कहीं झूठे नोटिस हैं
कहीं झूठी जाँच है,
लेकिन अच्छी बात है
कि अभी भी सच पर विश्वास है।
****

*** महेश रौतेला

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कष्ट यहीं रह जायेंगे
सुख-दुख बैठे रह जायेंगे।
यह भाषा, वह भाषा बोलते-बोलते
चुप हो जायेंगे,
यह राह, वह राह चलते-चलते
गुम हो जायेंगे।
इस कहानी,उस कहानी को कहते-कहते
विराम ले लेगें,
इस ममता, उस ममता में ठहर
सब कुछ छोड़ जायेंगे।
इस किताब, उस किताब को पढ़
मौन जायेंगे,
कभी इसकी, कभी उसकी आलोचना करते-करते
आलोचना के पात्र बन जायेंगे।
इस विभाजन, उस विभाजन में रह
खाली हाथ चल देंगे,
शिकायतों पर विराम लग
क्षणभर में सब शान्त हो जायेंगे,
कष्ट यहीं रह जायेंगे।


*** महेश रौतेला

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यह जग कान्हा तेरा है
तो ये महाभारत खूनी किसका है!
हर पग टेढ़ा, हर पग भटका
यह सीधी राह किसकी है!
देखा तुमको जग के संग
तो युद्ध सारे किसके हैं!
दुनिया सारी सुर विहीन है
गीत सारे किसके हैं!
कुछ साकार, कुछ विराट है
यह नींद प्यारी किसकी है,
पथ से आना,पथ से जाना
यह चक्र पुराना किसका है!


*** महेश रौतेला

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