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शान्त हो जा मन, शान्त हो जा आयु भी शान्त हो चुकी, घर की खिड़की पर शान्त धूप आ चुकी है। दृष्टि में आसमान आकर लहराने लगा है, तपस्वी सा खड़ा पहाड़ तृप्त लग रहा है। दूरी नहीं नजदीकियां पास आ गयी हैं, मीठी बातें बोलकर शान्त हो जा अदृष्ट मन। सामने हिमालय के शिखर शान्त दिख रहे हैं, वृक्ष भी शान्त हैं जल शान्त बह रहा है, क्षितिज शान्ति की लकीर खींच चुका है। फसलें शान्त हैं खेत तृप्त हो चुके हैं, हवायें शान्त होने के लिए ऊपर उठ रही हैं, शान्त हो जा मन, शान्त हो जा। *** महेश रौतेला
अल्मोड़ा: मेरा जान पहिचाना पटाल वाला शहर आसमान से ढका, नक्षत्रों के नीचे सबकी प्रतीक्षा में बूढ़ा हो गया है। कहने लगा है दादा-दादी, नाना-नानी की कहानियां सुख-दुख भरा इतिहास, करने लगा है अनुसंधान खण्डहरों की माटी में घुसकर। राजा आये-गये शासक बने-बिगड़े पताकायें उठी -ठहरी, अब तक लोगों के काँधे पर खड़ा है मेरा जान पहिचाना शहर। सामने अपलक-स्थिर खड़ी वह बात बूढ़ी हो चुकी है, मेरा जान पहिचाना शहर उदास क्षणों में भी जगमगा रहा है। तीक्ष्ण हो चुकी दृष्टि हर मुहल्ले को झांक, उस पते को ढूंढती है जो मिटा नहीं है। हम निकलकर आ गये बाँहों को छोड़, मुस्कानों को तोड़ हिमालयी हवा को पोछ स्मृतियों के मोड़ पर शहर है कि थपथपाने को खड़ा है। *** महेश रौतेला
जब वह नहीं देखता तो हम देखेंगे, चहचहाती चिड़िया को पता चलेगा घास चरते पशुओं को भी मालूम पड़ेगा। जंगलों को महसूस होगा तैरती मछलियां जानेंगी, राह चलते राहगीर बोलेंगे। लोग जानेंगे, पहिचानेंगे हमारी सड़क की दशा स्कूल की दिशा, शिक्षा का स्वास्थ्य स्वास्थ्य की दशा, और भ्रष्टाचार के कार्यालय तक पहुँचेंगे। लेकिन कहते हैं वह सब देखता है, कहते हैं,सोचते हैं "उसकी लाठी में आवाज नहीं होती।" लेकिन जब वह नहीं देखता तो हमें देखना होगा। **** *** महेश रौतेला
हे कृष्ण कब लौटूँ,किधर लौटूँ जब लौटूँ तो निरामय रहूँ। हे कृष्ण कब लौटूँ,किधर लौटूँ कैसे लौटूँ , लौटूँ अभिमन्यु की तरह या परीक्षित की तरह, या पांडवों की तरह हिमालय होकर या युधिष्ठिर की तरह सशरीर आऊँ, कुत्ते के साथ। *** *** महेश रौतेला
तुम हमारी बात में हम तुम्हारी बात में, निरक्षर पेड़-पौधों की बहुत सुन्दर छाया है। तुम हमारी बात में हम तुम्हारी बात में, निरक्षर नदियों में बहुत मीठा पानी है। तुम हमारी बात में हम तुम्हारी बात में, निरक्षर गाय-भैसों का बहुत सफेद दूध है। तुम हमारी बात में हम तुम्हारी बात में, निरक्षर फूलों पर बहुत सुन्दर रंग हैं। *** महेश रौतेला
मैंने बिछाई थी दृष्टि तुम्हारे लिए जैसे धूप बिछी होती है, खिसकाया था उसे जैसे देवदार की छाया खिसकती है। घुमायी थी दृष्टि पगडण्डियों की तरफ जहाँ तुम्हारा आना-जाना था। कितना जोड़-घटाना गुणा-भाग होता है जिन्दगी के अविभाज्य गणित में। *** महेश रौतेला
जब हम नदी पार कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम गाय और पशुओं को चारा दे रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। जब हम तीर्थयात्रा पर जा रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम स्नान कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। जब हम दान कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम परोपकार कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। जब हम प्यार कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम पूजा कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। जब हम सत्य देख रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम फसल उगा रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। जब हम चल रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम मर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। *** महेश रौतेला
कल फिर उदय होना मनुष्य की तरह, मैं देख सकूँ तुम्हें वसन्त की तरह। मन के छोर पकड़ते-पकड़ते थका नहीं हूँ, कुछ और दूरियां हैं शेष अभी रुका नहीं हूँ। फूल सुन्दर लगते हैं देखना छोड़ा नहीं, इस उदय-अस्त में चलना रुका नहीं। कल फिर दिखना नक्षत्र की तरह, मैं राह पर रहूँगा राहगीर की तरह। *** महेश रौतेला
वे तो हुये दुखहर्ता दुख लेकर क्यों आये! वे तो ठहरे त्रिकालदर्शी काल को क्यों छोड़ आये। *** महेश रौतेला
इस ओर हमारी घर की बातें उस ओर अमेरिकी धमकी है, जब यहाँ वेद-ऋचायें थीं उसका नाम नदारद था। इस ओर हमारा भारत है उस ओर नटखट बूढ़ा बालक है, कुटिल दृष्टि से देख रहा राक्षस बन वह बोल रहा है। महाभारत-रामायण की रेखायें हम खींचते जाते हैं, दुष्ट यहाँ भी बहुत हुये हम राक्षस हराना जानते हैं। *** महेश रौतेला
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