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एक लम्बी कविता ........................ कवयात ------------------◆◆◆ "कभी कभी गहरी सोच में होती हूँ भीतर की धधकती आग सुलगती है अब भी या बुझी है या दबी है चिनगारी कोई या बस धुँआ है चिंतित होती हूँ मामूली सी चिंगारी कभी, अँगारे न बन जाएं तीर से कटाक्षों के धुंधाते धुँए का भी रखना होता है ध्यान… बीच बीच में इस चोले के , अन्दर, बहुत सी हण्डिया है उनमें रखी हैं न जाने कितनी ही यादें थोड़ी रँगीन भी कुछ रँग-हीन सी अच्छी भी ,बुरी भी दर्दीली भी और खुशियों भरी और प्रेम पगी भी कुछ में टूटन की किरचें हैं और कुछ में छोटे बड़े ताने रखे है पत्थरों को छाँटते हुए जो निकलते हैं नुकीले टुकड़े ठीक वैसे ही लेक़िन सब कुछ दबी ढकी रखी है तहख़ाने में अंतस के यूँ जल्दी खुलतीं नहीं हैं वो हाँ कभी नितान्त अकेले पन में कुछ कसैली बातों से लुढ़क जाती हैं यहाँ वहाँ पथरी के पत्थरों सी तीखें दर्द के साथ वैसे,ये सारा क्रिया कलाप भीतर के तहख़ाने में होता है और तहख़ाने जज्यादातर अदृश्य होते हैं हाँ,कभी कभी भीतर उनके चिनगारी सुलगने लगती है कसक और दर्द से खदबदाती भी हैं … पर बेफिकर रहते है सब्र का मज़बूत ढक्कन ऊपर रखा है जब कभी,तेज धौंकनी सी चलती हैं साँसे बस तभी राख में दबी चिनगारी सुलग उठती है फिर कोई पुरानी नई उलझने सूखे पूरे सी सुलगने लगती हैं ज़ख्म पकने लगते हैं खदकने लगती है टीस गहरी पीर के साथ और उबलने लगती है हल्की बातें … तब अपने,परायो सबसे छुपाते हुए गले तक भरा नयनजल खुद के भीतर और भीतर उतारना होता हैं हौले से लेक़िन सतर्क होकर रास्ते दिल के, बड़े ऐहतियातन, किसी टोने सा नमक मिला पानी सींचने, तुम्हारे गर्जन से भीगी चिटचिटाती चिंगारी को जिसके वाष्पीकरण से छलछलाई आँखों के छलकने के एन पहले… भड़की हुई आग, बुझाना होती है खुशहाल ज़िन्दगी के लिए करनी होती है सारी कवायत..… प्रज्ञा शालिनी ।। बूंद ,, ----------◆ वो , इक बूंद वारिश की क्या औकात की , कहाँ थी सम्भावना बचने की उसकी , सोचती रही जो गिरती सागर में अस्तित्व विहीन होती या के गिरती कहीं रेगिस्तान में जिसे रेत का कण सोख मिटा देता .उसका होना.. फिर, थरथराती हुई साधे रही ख़ुद को बड़े जतन से कमल पात पे ठहरी रही ... और , चमकती रही बस देर तक मुस्कराती रही हीरे की कनी सी यही लक्ष्य था या अस्तित्व उसका जो साधना था साधा बड़ी कुशलता से दृढ़ संकल्प सा बारिश की एक बूंद ने ... प्रज्ञा शालिनी ।।
(1) वक़्त ===== "बक़ाया ये कौन रह गया मुझमें जाने से एन पहले ... थोड़ा सा ये कौन छूट गया मुझमें हाथ छुड़ाने से एन पहले ... मेरे पैरहन को ये कब महका गया कोई चन्दन सा महकने से एन पहले … अलमनाक तरीक़े से कैसे अलविदा कह गया कोई जीस्त की जुम्लगी के एन पहले.... प्रज्ञा शालिनी (2) तस्वीर और तहरीर =============* तुम्हारे बगैर… ये बादल ये रौशनी ये जगमाते अनगिनत सितारे ये नज़ारे सब धुँधले हैं और सब फ़ीके...... प्रज्ञा शालिनी 3 पुरुष दिवस =========+ पुरुष दिवस की शुभकामनाएँ ....क्यों, तुम्हें जनम दिया काफी नहीं है क्या...? सदियों पहले ज़िस दिन जन्मा बेटा था जानती थी पुरुष कहलाए जाओगे एक दिन.... पर, मन की और ही इच्छा थी भतेरी शुभकामनाओं के साथ, कि पुरुष से आदमी और आदमी इन्सान बनोगे कभी तुम हाँ सच, ये प्रक्रिया आसान न थी कतई, जानती थी ये भी लेकिन, एक उमीद थी, बांधी थी छोर में शुभकामनाओं के साथ बस, सुनो तुम, अपनेे ताऊ, पिता, दादे,नाने, मामे से अलग बस पुरुष नहीं आदमी से इन्सान कहाए जाओगे कभी, सदियां बीती हर बेटे की पैदाइश पे डोल ताशे बजते रहे और... तुम, आदमी मे भी नहीं बस पुरुष मे ही तव्दील होते रहे हर बार मेरा अफसोस, उस छोर से शुभकामनाएँ ,खोल ही न पाई आज तलक .... बहुत बधाई पुरुष दिवस की ..... प्रज्ञा शालिनि 4 जीवित हैँ =========* अभी हम ज़िंदा हैं हाँ, हाँ सच, हम जीवित भी हैं साँसों के उतार चढ़ाओ को जीवित होने की श्रेणी से दूर... रखकर, ज़िंदा हैं हम... दुसरो के दर्द को महसूस कर के किसी झोपडी में बूढ़ो की दवा पहुंचती है सुनिश्चित कर के किसी नन्हें को दूध पेट में पहुंचा कर मासूम बच्चों के आँख में आंसू की जगह कोई सपना बोकर दूर कही खिलखिलाहट सुन कर प्रसन्नत हैं तो हम जीवित हैं पंछीयो को हरा भरा बसेरा देकर प्रकृति का ठंडा जल चोंच में, और मीठे फल उनकी पहुंच में हैँ ये जानकर अपनी छत, आँगन में भी, दाना पानी की जगह है तो हम जीवित हैँ यूँ तो, ज़िंदा होने के कितने ही मायने और भी हैँ तय कर सकते हैँ तो करो कि हम आती जाती सासों के भरम में तो ज़िन्दा नहीं हैँ या हम सचनमुच में ज़िन्दगी के जीवित मायने में..... ज़िन्दा हैं जीवित हैं हम... क्योंकि....सुनते हैं भ्रम ज्यादा दिनों तक ठहरता नहीं हैं प्रज्ञा शालिनी 5 तूफान ========+ सुन तो नॉका तू पतवार मैं बन जाऊं तो तू दृढ़निश्चयी भरोसा मैं हो जाऊं तो हाँ...इक बात और पार उतरना है गर, तो डूबने का डर खोना होगा सुनते हैं , दरिया समन्दर को गहरा बनाती है उसी ठहराव के सहारे पारावार, आ तलहटी छूते हैं मैं तरनी, रख एतबार मुझपर घूँट घूँट गटक मुझे परे धर खारापन सारा आ रूह की ओर चले और , साथ साथ चलें जिस्मो को कुर्वत चाहिये और, रूह के अपने पंख होते हैं, उतार चढ़ाव और हिचकौले हमें मिलकर सहने हैं तो ,चल ...आ, ज़िन्दगी के इस तूफ़ानी समन्दर में , बिना डरे, अपनी नाव खेते हैं... प्रज्ञा शालिनी
(1) मेरे कविता संग्रह से कुछ कविताएं =============*•••तूफ़ान,, ---------●●● (तरनी =नदी ...पारावार=सागर)तूफ़ान,, ------------●●● (पेंटिंग - सृजन के लिए लिखी मेरी कविता इसी पेंटिंग चित्र पर लिखनी थी, आप सब भी पढिये ...) सुन तो नॉका तू पतवार मैं बन जाऊं तो तू दृढ़निश्चयी भरोसा मैं हो जाऊं तो हाँ...इक बात और पार उतरना है गर, तो डूबने का डर खोना होगा सुनते हैं , दरिया समन्दर को गहरा बनाती है उसी ठहराव के सहारे पारावार, आ तलहटी छूते हैं मैं तरनी, रख एतबार मुझपर घूँट घूँट गटक मुझे परे धर खारापन सारा आ रूह की ओर चले और , साथ साथ चलें जिस्मो को कुर्वत चाहिये और, रूह के अपने पंख होते हैं, उतार चढ़ाव और हिचकौले हमें मिलकर सहने हैं तो ,चल ...आ, ज़िन्दगी के इस तूफ़ानी समन्दर में , बिना डरे, अपनी नाव खेते हैं... प्रज्ञा शालिनी (2) "वनिता,, ------------●●● वो अधपकी वो अधकच्ची सी, एक उम्र बिताई औरत जिसके भीतर यौवन और अल्हड़ता उसके संग ,साथ विचरता है किसी मासूम बच्चे सा, हाँ सच ,वो औरत एक अदत औरत ही तो है.... परवाह नही उसे, दीन की, न दुनिया की फक्कड़पन, अल्हड़पन, अपनेपन में सराबोर .. कर जाती है कोरा प्रेम "क्या कहेगा ,, की परवाह , बिना... इसीलिए बहुतों के मन कतई भाती नही है ब,वजूद इसके सरक जाती है मन भीतर बड़ी सहजता से आहिस्ते आहिस्ते बहुतेरी तक़रार में रूठती मनाती हुई बस , फ़क़त एक औरत बन… जानती है सब... पहचानती है, हर इक नज़र की तासीर, गुनी है बहुत लेनदेन के हर सिक्के की खनक चीन्ह जाती है फटाक से , रसोईघर का स्वाद बेस्वाद पहचानती है,चटाख से फ़िर दिल से पेट तक जाने वाले राज का रास्ता भी जान जाती है ,गजब से , कुशल है बहुत, लाली पाउडर में पारंगत भी कहाँ कब, कितनी सुर्खी होठों पर खर्च करना है कब सफेदी देनी है बालो को , और कब, जीवन को बाहर नॉकरी, घर बच्चों की चाकरी का, तालमेल बेहद खूबी से करती चलती है वही औरत, हँसती हैं ठहाकों खिखलाहटों से, फ़िर तराजू के पडले की तौल सा मुस्कराना भी जानती है, कि… गहरी पीर में कितना, और मात्र उदासी में कितना दिखाती है डिज़ाइनर कपड़े महँगे से महँगे, उसी के बीच बड़ी कुशलता से छुपा जाती है गहरे ज़ख्म लगी, चिथड़े चिथड़े सिली ज़िन्दगी , और… सबसे , बड़ी बात, जानती है वो, पहचानती है और मानती भी है , जीना और ज़िंदा रहने वाली, साँसों का, वज़न भी फ़िर, उनके उतार चढ़ाव को बेहद साफ़गोई से समझती है उसका नीचट.... हुनर भी... वो औरत , जो मुझे बेहद पसंद है … प्रज्ञा शालिनी
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