Hindi Quote in Poem by pragya shalini

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(1)
वक़्त
=====



"बक़ाया
ये कौन रह गया मुझमें
जाने से एन पहले ...

थोड़ा सा
ये कौन छूट गया मुझमें
हाथ छुड़ाने से एन पहले ...

मेरे पैरहन को
ये कब महका गया कोई
चन्दन सा महकने से एन पहले …

अलमनाक तरीक़े से
कैसे अलविदा कह गया कोई
जीस्त की जुम्लगी के एन पहले....

प्रज्ञा शालिनी


(2) तस्वीर और तहरीर
=============*


तुम्हारे बगैर…
ये बादल
ये रौशनी
ये जगमाते
अनगिनत सितारे
ये नज़ारे
सब धुँधले हैं

और
सब फ़ीके......


प्रज्ञा शालिनी


3 पुरुष दिवस
=========+


पुरुष दिवस की
शुभकामनाएँ ....क्यों,
तुम्हें जनम दिया
काफी नहीं है क्या...?

सदियों पहले
ज़िस दिन जन्मा बेटा था
जानती थी पुरुष कहलाए जाओगे
एक दिन....
पर,
मन की और ही इच्छा थी
भतेरी शुभकामनाओं के साथ,
कि पुरुष से आदमी और
आदमी इन्सान बनोगे कभी तुम
हाँ सच,
ये प्रक्रिया आसान न थी कतई,
जानती थी ये भी
लेकिन,
एक उमीद थी,
बांधी थी छोर में
शुभकामनाओं के साथ
बस,

सुनो तुम,
अपनेे ताऊ, पिता, दादे,नाने, मामे से अलग
बस पुरुष नहीं
आदमी से इन्सान कहाए जाओगे
कभी,
सदियां बीती
हर बेटे की पैदाइश पे डोल ताशे बजते रहे
और...
तुम, आदमी मे भी नहीं
बस पुरुष मे ही तव्दील होते रहे हर बार
मेरा अफसोस,
उस छोर से
शुभकामनाएँ ,खोल ही न पाई
आज तलक ....

बहुत बधाई
पुरुष दिवस की .....

प्रज्ञा शालिनि


4 जीवित हैँ
=========*


अभी
हम ज़िंदा हैं
हाँ, हाँ सच, हम जीवित भी हैं
साँसों के उतार चढ़ाओ को
जीवित होने की श्रेणी से दूर...
रखकर,
ज़िंदा हैं हम...

दुसरो के दर्द को महसूस कर के
किसी झोपडी में बूढ़ो की दवा पहुंचती है
सुनिश्चित कर के
किसी नन्हें को दूध पेट में पहुंचा कर
मासूम बच्चों के आँख में आंसू की जगह
कोई सपना बोकर
दूर कही खिलखिलाहट सुन कर
प्रसन्नत हैं
तो हम जीवित हैं

पंछीयो को हरा भरा बसेरा देकर
प्रकृति का ठंडा जल चोंच में,
और मीठे फल उनकी पहुंच में हैँ
ये जानकर
अपनी छत, आँगन में भी,
दाना पानी की जगह है
तो हम जीवित हैँ

यूँ तो,
ज़िंदा होने के कितने ही मायने और भी हैँ
तय कर सकते हैँ तो करो
कि हम आती जाती सासों के भरम में तो
ज़िन्दा नहीं हैँ
या हम सचनमुच में
ज़िन्दगी के जीवित मायने में.....
ज़िन्दा हैं
जीवित हैं हम...

क्योंकि....सुनते हैं
भ्रम
ज्यादा दिनों तक ठहरता नहीं हैं

प्रज्ञा शालिनी


5 तूफान
========+


सुन तो
नॉका तू पतवार मैं बन जाऊं तो
तू दृढ़निश्चयी भरोसा मैं हो जाऊं तो
हाँ...इक बात और
पार उतरना है गर,
तो डूबने का डर खोना होगा
सुनते हैं , दरिया
समन्दर को गहरा बनाती है
उसी ठहराव के सहारे
पारावार,
आ तलहटी छूते हैं

मैं तरनी,
रख एतबार मुझपर
घूँट घूँट गटक मुझे
परे धर खारापन सारा
आ रूह की ओर चले
और ,
साथ साथ चलें
जिस्मो को कुर्वत चाहिये
और,
रूह के अपने पंख होते हैं,
उतार चढ़ाव और हिचकौले
हमें मिलकर सहने हैं
तो ,चल ...आ,
ज़िन्दगी के इस
तूफ़ानी समन्दर में ,
बिना डरे,
अपनी नाव खेते हैं...

प्रज्ञा शालिनी

Hindi Poem by pragya shalini : 111898375
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