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निशब्द मन, उन्मुक्त विचार
अक्सर किसी से दूर जाने पर उसे अपनी गलतियों का अहसास होता है। -Sakshi
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वो काम करने वाली बुढ़िया जो खुद मांग के खाती है विदाई में उस लड़की को कुछ पैसे देके अपना धर्म निभाती है दाल चावल से अपना प्रेम सौंप कर आशीर्वाद देकर हलका सा मुस्काती है तन पे फटी हुई साड़ी है अपना प्यार वो बुढ़िया सौंप जाती है ✍️ sakshi
लालच में इंसान ने उससे ना जाने कैसी प्रीत निभाई उपर से प्यार जताता था अंदर से वो बड़ा बेहयाई मांग ना करता किसी चीज़ की पर मुंह पे हरदम थी कड़वाई अर्धाग्नि कहता वो अपनी बीवी को हरकतों में करता उसे पराई लोभ जब उसका तृप्त हो जाता बस उस दिन ना करता वो बेपरवाही लालच में इंसान ने उससे ना जाने कैसी प्रीत निभाई -Sakshi
Always pay attention to those imperfection which preparing to be perfect -Sakshi
कैसे रहूंगी मां मैं कैसे रहूंगी बना तो दिया तूने मुझे ठोस पर फिर भी मैं कैसे रहूंगी सब जान के तूने बियाहा है पर फिर भी अंजान है वो ना जाने तेरे बिना कैसे रहूंगी तुझसे दूर और उसके साथ जो पास होके भी ना लगता पास सारी उम्र मैं कैसे रहूंगी ज़माना सच में बहुत खराब हैं अपने ही मतलबो के लिए साथ हैं तेरे जैसा दिल मैं कहां से लाऊंगी ना जाने उसके संग कैसे रहूंगी साक्षी ✍️
इंसान की कमियां उसे रोते वक्त मालूम पड़ती है -Sakshi
क्या है की हम लिखते बहुत है समझा नही पाते और समझते बहुत है यह सफर हम से शुरू और हमीं से खत्म होगा फिर भी राह में प्रतिद्वंदी बहुत है कभी खुशी तो कभी ग़म कभी आंसू तो कभी कम संभाल अपनी आशाओं की गठरी अभी तो बिखरना बहुत है शायद प्यार लिखा ना था किस्मत में वरना तो हम पिघलने वाले बहुत है हर सत्र हर कविता का जीवंत रखता है अरमान समझने वाले तो कम है वाह! करने वाले वाले बहुत है दर्द-ए-दिल बयां कर ना पाएंगे ज़ख्म है भी तो दिखा नही पाएंगे हाल-ए-दिल छुपाना ये गंदी है आदत इसीलिए शायद लिखते बहुत है साक्षी ✍️
टेढ़ी बातें भी, बिना ज़ख्म दिए ऐतिहातन से पेश करना, एक हुनर का काम है -Sakshi
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