झूठ का सच ? भाग-1
दोस्तों, हम सब ने पढ़ा, सुना और माना है कि हमें सच बोलना चाहिए और हमेशा सच का साथ देना चाहिए | यह हम सदियों से कहते, बोलते और करते आ रहे हैं | इस के बावजूद हमारे चारों तरफ़ झूठ ज्यादा और सच कम होता जा रहा है | हम दिन प्रतिदिन झूठ के दलदल में धंसते चले जा रहे हैं | लेकिन हम आज भी अपने बच्चों को यही समझाते हैं कि बेटा सच बोलो, सच का साथ दो |
आपने महसूस किया होगा कि हमारे आसपास ऐसा माहौल बन चुका है जिस में सच बोलना किसी के बस की बात नहीं रही है | सब झूठ सुनना, देखना और बोलना चाहते हैं | हम सब बचपन से देखते, सुनते आ रहे हैं कि माता-पिता, स्कूल का अध्यापक कोई भी सच नहीं सुनना चाहता था | आप सब को अगर सच बता देते कि आप पढ़ने का बोल कर अकेले कमरे में बैठ गन्दा साहित्य या गन्दी तस्वीरें देख रहे थे या सो गये थे या गाने सुन रहे थे या टीवी देख रहे थे, तो आपका अकेला बैठना और पढ़ना हराम हो जाता | हर समय सुनने को मिलता | अतः आपने झूठ का सहारा लिया और सब ठीक रहा | ऐसा नहीं है कि माँ-बाप या अध्यापक ही झूठ सुनना चाहते थे | आप भी सच नहीं सुनना चाहते थे | आज के बच्चे या युवा पीढ़ी, हमारे से दस गुणा आगे हो गई है | वह सच बोलने की बजाय धमकी देते हैं, ‘आप सच सुन नहीं सकते | आपका दिमाग खराब हो जाएगा’ | ऐसा तो होना ही था क्योंकि हम उन्नीसवी से बीसवीं शताब्दी में आ चुके हैं | लेकिन बदलने या समझने को आज भी तैयार नहीं हैं |
हम इसके लिए कभी तो एकल परिवार प्रथा को तो कभी समाज को दोष देते हैं | कभी आज के रहन-सहन को दोष देते हैं | कभी मीडिया को तो कभी शिक्षा-प्रणाली को दोष देते हैं | हमारी शिक्षा-प्रणाली में काफी दोष हैं, फिर भी उसने एक बात तो हमें जरूर सिखाई है कि हम हर बात की जांच-परख या गुण-दोष जरूर देखने लगे हैं | बशर्ते की वह बात धर्म की न हो | क्योंकि धर्म की बात पर हम आज भी आँख बंद कर विश्वास कर लेते हैं | जिसका फायदा धर्म के ठेकेदार उठा रहे हैं | पिछले लगभग एक हजार साल से एक और आदत पनपी है और वह ये है कि हम जांच-परख के परिणाम आने पर भी कोई कदम नहीं उठाते हैं | हमें जांच-परख कराने की आदत जरूर है लेकिन उसके रिजल्ट से कोई सरोकार नहीं है | क्योंकि हम चाह कर भी झूठ खत्म नहीं करना चाहते हैं या झूठ खत्म करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं |