तकरीबन चार साल हो गए।
कॉलेज के वो दोस्त और उनके साथ रूम को घर जैसे संभालना।
उनके साथ खुद ही खाना पकाना, कपड़े धोना सुखाना, बरतन मांजना।
एक दूसरे को ताना देना, परेशान करना, बुरा भला बोल देना। मुसीबत में बिना कुछ सोचे साथ खड़े हो जाना।
वक्त कितना तेज़ी से बीत जाता है। यादें जल्द ही धुंधली हो जाती है। बीते लम्हे वैसे तो याद नहीं आते, पर संभाल कर रखी हुई कुछ तस्वीरे हल्की सी याद ताज़ी कर देती है।
इतना वक्त बीत गया,
कितना कुछ बदल गया।
कई सारे नए रिश्ते बन कर टूट गए।
कईं सारे तो यूं ही पीछे छूट गए।
रिश्ते यूं ही बनते नहीं है,
मौके पे मौके देने पड़ते है।
कहीं हम थम से जाते है,
कहीं सहम से जाते है।
कोई हमे याद करता होगा,
किसी की याद में हम जीने लगते है।
जिंदगी के पास घाव बहोत है जनाब,
कहीं मन में तो कहीं तन पर देती जाती है।
कभी कोई पीठ थपथपा देता है,
कभी खुद से पीछे मुड़ कर देखना पड़ता है।
कुछ एहम हिस्से छूट जाए तो दर्द होता है,
हां आगे बढ़ जाना भी काफी जरूरी होता है।
कभी किसी का कोई सहारा जरूरी हो जाता है,
कभी खुद को धक्का लगा कर आगे जाना पड़ता है।
चोट लगे तो दर्द होता है।
सेह जाना जरूरी हो जाता है।
- बिट्टू श्री दार्शनिक
#दार्शनिक_दृष्टि
#बिट्टू_की_बाते
#कहानी