कविता शीर्षक,मां के हाथ की रोटी
याद बहुत आए मां के, हाथ की रोटी।
कर्म रोशन रहेंगे मां के, चांद सी होती।
लड़कपन सा अब वो,न रूठना आता।
स्कूल से पहले मां का,वो गूंथना आटा।
भूखी ख़ुद रहके,पेट हमारा भरती थी।
मिट्टी में लथपथ, रेत उतारा करती थी।
गन्ने सा रस था, मां के उस अनुराग में।
बाजरे की रोटी, सरसों के उस साग में।
नयन धुंए में लाल,मिट्टी के वो चूल्हे थे।
छाछ और खिचड़ी कभी न हम भूले थे।
बचपन के वो लच्छन मां को सताते थे।
रोटियों पे घी मक्खन मां से लगवाते थे।
भूख भूख चिल्लाते,जल्दी से पोती थी।
हरे धनिए की चटनी, रोटी पे होती थी।
कभी देर से आते, रात को पकाती थी।
रूखी सूखी हमें, हाथ से खिलाती थी।
हाथ वाली रई से दूध का बिलोना था।
बांस वाली खाट पे सूत का बिछौना था
खेल कूद में उलझे,वो गूंथी से ठाठें थे।
लज्जत से भरपूर वो मेथी के परांठे थे।
मित्रों की टोलियां हंसी वाली छांटी थी।
तांबे का मिश्रण कांसी वाली बाटी थी।
वृक्ष को ना गम,डाल से गिरी पात का।
छुपाया हमसे नहीं,मर्म किसी बात का।
Birendar singh अठवाल जींद हरियाणा m 9416078591