रचनात्मकता हमारा स्वभाव है
रचना स्वयंम को रचने निकली है
प्रेम रस लीन रचना उसका अविरत भाव है
हृदय आँखें है उसकी और मौन स्वभाव है
रचना गहन समाधि में लीन अनंत की पुकार है
काव्य छंद कविता गीत यह उसके अंग हजार है
अनासक्त चले जैसे लावण्यवती हर थिरकन में
झंकार है
रचना रचना के प्रेम में आतुर, रचना को रचना से ही मिलन सार है
देह बस एक व्यंग है, रचना को रचना में मिल जाना है,
रचना रचना को अंगीकार है
प्रेम मग्न रचना प्रेम अधीर, शरीर सुख तो उसका एक अमूल्य गले का हार है,
प्रेमी नित नूतन उपहार लाता उसे, रचना को रचना के हर रूप का स्वीकार है
रचना स्वस्वतंत्र अपने आप में पूर्ण है
इसी कारण शायद, रचना के इस यात्रा में सुख दुख का ही बंध है
साक्षी स्वयंम को कर्ता समझ रहा अब
मोह भंग ताप शाप है
सुख दुख का स्वप्न देखता अनंत का यात्री
अनंत यात्रा स्वतंत्र रचना अभी स्वयंम का विस्तार है
अवधूत रचना प्रेमरस से भरी आनंद स्वरूपा
अजन्मा, की अनाहत पुकार है
_अवधूत सूर्यवंशी