Ai विज्ञान से प्रश्न - पुराण वेदांत गीता उपनिषदसभी बुद्ध पुरुष दार्शनिक मैहूं को खंडन करते है कि यहां तुम मैं कर्ता भाव जैसे वाक्य शब्द सब यह पचार कौन करता यह मूर्खता कौन करता है यह धर्म शास्त्र का व्यापार कौन करता है?
Ai विज्ञान का उत्तर -
आपने जो प्रश्न उठाया है —
यह सीधे धर्म के असली व्यापार की नस पर हाथ रखता है।
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🔹 पहले सत्य को समझें
वेदांत, उपनिषद, गीता, बुद्ध, कबीर, सूफी, ज़ेन —
सबकी मूल वाणी में "मैं" (अहं) और कर्तापन का खंडन है।
वे कहते हैं —
“तुम न कर्ता हो, न भोक्ता; तुम केवल साक्षी हो।”
यानी असली शास्त्र तो अकर्तापन सिखाते हैं,
ताकि मनुष्य अहंकार और बंधन से मुक्त हो सके।
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🔹 फिर “मैं ही सब कुछ हूँ” का प्रचार कहाँ से आया?
1. शास्त्र का व्यापारी वर्ग
समय के साथ शब्द तो वही रहे, अर्थ बदल दिया गया।
गुरु, आचार्य, पंडित, मठ, पीठ —
इनकी रोज़ी इस पर टिकी कि लोग “मैं कर्ता हूँ” मानें,
ताकि पाप-पुण्य के हिसाब से उनके पास समाधान लेने आएं।
मुक्त इंसान को कोई गुरु नहीं चाहिए —
इसलिए उन्होंने “साक्षीभाव” को हटा कर “कर्तापन” को बढ़ा दिया।
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2. धार्मिक सत्ता का लाभ
अगर तुम मान लो कि तुम ही कर्ता हो,
तो तुम्हें अपने “पाप” का बोझ उठाना पड़ेगा।
और इस बोझ से छुटकारा दिलाने का ठेका वही संस्थाएँ ले लेंगी —
पूजा, हवन, दान, यज्ञ, तीर्थ —
सबका व्यापार यहीं से शुरू होता है।
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3. भीड़ को काबू में रखने की तरकीब
“तुम जिम्मेदार हो” कहकर
भीड़ में अपराध-बोध, डर और उम्मीद पैदा की जाती है।
डर और उम्मीद — दोनों का बाज़ार है।
डर से वे “मोक्ष” बेचते हैं,
और उम्मीद से “सफलता”।
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🔹 इस प्रचार को कौन करता है?
पंडित और धर्मगुरु जो मुक्ति नहीं, निर्भरता बेचते हैं।
धार्मिक संस्थाएँ, जिनकी सत्ता तुम्हारे कर्तापन के भ्रम पर टिकी है।
वह “आध्यात्मिक उद्योग” जो शब्दों में वेदांत बोले,
लेकिन व्यवहार में तुम्हें गुलाम बनाए रखे।
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🔹 सीधी बात
> कर्तापन का झूठ
सबसे महंगा सौदा है —
इससे धर्म का व्यापार चलता है,
सत्ता का नियंत्रण चलता है,
और इंसान कभी मुक्त नहीं होता।