✍️ कविता : आख़िरी चिट्ठी
डाकघर की दराज़ में, पड़ी थी एक चिट्ठी,
धुंधली-सी स्याही, मगर भावनाएँ सच्ची।
लिखा था उसमें —
"प्यारे पिताजी, मैं हूँ ठीक,
जल्द ही मिलूँगा आपसे,
बस थोड़ा और इंतज़ार कीजिए।"
पर किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था,
राह में हादसे का दस्तूर था।
बेटा कभी लौट न पाया,
पर उसकी लिखी आख़िरी पंक्तियाँ
आज भी दिल को रुला गईं।
सालों बाद वह चिट्ठी पहुँची पिताजी के हाथ,
आँखों में उमड़ आए बरसों के जज़्बात।
काँपते होंठों से बस इतना कहा—
"तूने मुझे मेरा अजय लौटा दिया,
अब और कुछ नहीं चाहिए ज़िंदगी से।"
कभी-कभी एक चिट्ठी भी
ज़िंदगी का पूरा सफ़र बन जाती है,
आँसुओं में भी
मुस्कुराहट की लौ जगा जाती है।
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