**कभी सवारे थे कुछ शब्द**
कभी सवारे थे कुछ शब्द,
तेरी आँखों की रोशनी में नहाए हुए,
तेरे हाथों की नरम गर्मी में पिघलते हुए।
हर लफ़्ज़ में हमारी साँस की तुक थी,
हर विराम में मिलन की धीमी मुस्कान।
तेरे और मेरे बीच,
वो शब्द फूलों की तरह खिलते थे—
चाय की भाप में घुलकर,
बारिश की बूंदों में चमकते थे।
फिर मौसम पलटा…
कहीं वक़्त की आहट आई,
कहीं चुप्पी ने ठिकाना बना लिया।
वो सजाए हुए अक्षर
गिरते चले गए—
जैसे पतझड़ में पत्तों की आख़िरी सरसराहट।
अब उन पर धूल जमी है,
कोई स्याही उन्हें छूने से डरती है।
तेरी आवाज़ का संगीत
सिर्फ़ याद में बजता है,
असल में सब बिखर चुका है।
कभी सवारे थे कुछ शब्द—
आज वे प्रेम की छाँव में नहीं,
बस स्मृतियों की खिड़की पर बैठे हैं,
ताकते हुए एक पुराने दृश्य को,
जहाँ मैं था… और तू भी थी,
और हमारे बीच,
वो चुपचाप खिली हुई कविता थी।
आर्यमौलिक