तूने जो ना कहा मैं वो सुनता रहा
खामखां बेवजह ख्वाब बुनता रहा।
जाना जब से मांगी तेरी इक नजर
इस शहर में ना अपना ठिकाना रहा।
तुझको जानता रहा खुद को भूलता रहा
खामखां बेवजह ख्वाब बुनता रहा।
क्या मोहब्बत नहीं रही ?
हमें इजाजत नहीं रही।
फिर भी है मंगा रब से सदा।
आज भी तुझको चाहते हैं
क्यों तेरी गलियों में आते हैं?
तू ही बता कैसे दूं तुझको बता।
जाने क्यूं हम हैं ये करते मगर?
तू मिले ना मिले रहे तेरे ही सनम ।
अपनी चाहत को में, यूं ही करता रहा।
खामखां बेवजह ख्वाब बुनता रहा।
सृष्टि तिवाड़ी ‘शान'