"मैं तैनूं फिर मिलांगी”
जिस्म से सुंदर स्त्री —
वो तो बस छूकर गुजर जाती है,
जैसे हवा का झोंका
कपड़ों की सिलवटें ठीक कर दे
पर दिल को न छू पाए।
पर चरित्र से सुंदर स्त्री —
वो छूती नहीं,
बस उतर जाती है —
धीरे-धीरे,
रूह की परतों में...
जैसे कोई दुआ बिना आवाज़ के उतरती है।
वो तुम्हारे भीतर ऐसे रहती है
जैसे कोई पुरानी खुशबू
कपड़ों से भी गहरी बस जाए।
कभी तुम्हारी सांसों में,
कभी तुम्हारे लिखे शब्दों में,
कभी किसी तन्हा दोपहर की चाय में
वो अनकही बन कर बैठी रहती है।
जिस्म वाली स्त्री की याद
रात के साथ ढल जाती है,
पर रूह वाली स्त्री —
वो तुम्हारी सुबहों में खिलती है,
तुम्हारी नींद में जागती है।
तुम उसे भुलाने की कोशिश भी करो,
तो वो किसी पंक्ति में लौट आती है,
किसी कविता के बीच ठहर जाती है,
किसी अधूरी मुस्कान में पूरा अर्थ बन जाती है।
वो स्त्री —
जिसका सौंदर्य चरित्र से जन्मता है,
वो देह में नहीं बसती...
वो बस जाती है —
दिल में, दिमाग में, रूह में।
और जब तुम नहीं रहोगे,
वो फिर भी रहेगी —
किसी और की सांसों में,
किसी और की दुआ में,
जैसे मैं तैनूं फिर मिलांगी...
हर बार, हर रूप में।
आर्यमौलिक