तुम नदी थीं
धूप की सीढ़ियों से उतरकर
सपनों के किनारों को छूती हुई
फिर ज़िंदगी ने मोड़ लिया,
और तुम आँगन के शांत कुएँ में बदल गईं..
गहरी, उपयोगी, पर लहरहीन
कविता तुम्हारे भीतर
धूल जमी किसी पुरानी प्रतिमा-सी बैठी रही,
किताबें तुम्हारी सहेलियाँ
रूठे मौसमों की तरह ओझल होती गईं
पर शब्द जाते नहीं,
वे मिट्टी में गड़े बीज हैं..
बरसात की एक बूँद भर इंतज़ार में
आज जब तुमने फिर कलम छुई,
तो सूखी डाल पर अचानक
हरी कोंपल उग आई
कहानियाँ लौट आईं
जैसे लंबे सूखे के बाद
पहला नदी-सुर सुनाई दे
अब तुम्हारे भीतर
फिर से बहता पानी है.
अपनी दिशा में,
अपनी धुन में
इस बार
तुम वही हो
पर अधूरी नहीं..
खिलती हुई,
लौटती हुई,
अपने ही प्रकाश में
~रिंकी सिंह ✍️