ज़िंदगी जब भी मिली तन्हा मिली हालात में,
तेरी यादें भी जलीं मेरी ही जज़्बात में।
दिल लगाया था जिसे ख़ुद से भी बढ़कर कभी,
वो मिला गैर की बाहों को साक्षात में।
हमने चाहा था जिसे रात-दिन सजदे में,
वो मिला शौक़ से पत्थर की सौग़ात में।
हमने तो ख्वाब भी छोड़े थे उसी के लिए,
वो मिला नींद में, लेकिन किसी और के साथ में।
इश्क़ में हार कर जीते हैं कई ज़ख़्म लिए,
हम भी शामिल हैं उसी लहू की बारात में।
अब तो अश्कों से ही दोस्ती सी हो गई,
क्या मिलेगा अब दवा, ग़म है जब सौगात में।
"विलोम" दर्द को भी अब गले से लगाता है,
आग जलती है मगर चैन है इस राख़ में।
🖋️🖋️ पाठक आशीष ’विलोम’