🌅 उम्मीद की आख़िरी किरण 🌅
भीड़ में खड़ा था मैं, पर खुद से खो गया,
आईनों में रोज़ देखा, मगर चेहरा खो गया।
बैंक के दरवाज़े, कर्ज़ के काग़ज़,
EMI की तारीख़ें, और वादों का बोझ।
हर शाम एक डर लाता है,
"कल फिर क्या होगा?" ये पूछ जाता है।
पर कहीं दिल के कोने में, एक चिंगारी है,
सारे अंधेरों के बीच भी, उम्मीद हमारी है।
माँ के हाथों की रोटी की ख़ुशबू है याद,
बच्चे की मुस्कान है, जैसे खुदा का संवाद।
ठोकरें लगीं हज़ार, मगर रुका नहीं,
टूटा हर सपना, पर झुका नहीं।
उधारी में सही, पर ज़िन्दा हूँ यारों,
उम्मीद का दीया आज भी जलता है बार-बार।
_बी.डी.ठाकोर