मौन का पुरुषार्थ
दिन भर की दौड़ से थका हुआ,
मैं जब अपने आप से मिलता हूँ,
तो पाता हूँ—
सबसे बड़ा आराम
भीतर के सन्नाटे में है।
सोफ़े पर टिके सिर के साथ,
मैं पुरानी स्मृतियों की किताब खोलता हूँ।
कुछ पृष्ठ पीले पड़ चुके हैं,
कुछ अब भी ताज़ा हैं।
पर हर पन्ना मुझे यही सिखाता है—
अकेलापन कोई खालीपन नहीं,
बल्कि आत्मा का आँगन है।
क्षितिज को निहारते हुए
मैं खुद से पूछता हूँ—
“क्या सच में मुझे कुछ चाहिए?
या यह शून्य ही पूर्णता है?”
कॉफ़ी की गर्माहट हथेलियों में,
और धीमा संगीत कानों में—
जैसे भीतर का पुरुषत्व
अपनी कठोरता छोड़कर
कोमलता से मिल रहा हो
अपने ही हृदय से।
पेड़ों का नृत्य,
हवा का स्पर्श,
मानो प्रकृति मुझे पुकार रही हो—
“रुक जा, बस इस पल को जी ले।”
और मैं ठहर जाता हूँ।
सोचता हूँ—
कहीं कोई जन्म ले रहा है,
कहीं कोई प्रस्थान कर रहा है।
जीवन का यह चक्र
मुझे बताता है—
कि मेरा होना ही पर्याप्त है।
इस एकांत में मैं जानता हूँ—
पुरुष होना केवल संघर्ष नहीं,
बल्कि शांति को गले लगाना भी है।
यहीं मैं अपने भीतर की शक्ति पाता हूँ,
यहीं मैं अपने भीतर की शांति गढ़ता हूँ।
डीबी-आर्यमौलिक