“सामान्य" का भ्रम
हम सब दौड़ते हैं पीछे—
उस आकार के, जिसे कहते हैं “सामान्य”।
पर वो है बस एक छाया,
बिना चेहरा, बिना रंग,
एक मुखौटा—
जिसे दुनिया ने गढ़ा,
ताकि भीतर की खिलती रौशनी को छुपाया जा सके।
पर सुनो—
हम तो बने हैं तारों की धूल से,
हमारी रगों में है अनोखे रंगों की धार।
हमें भेजा ही गया है सीमाएँ तोड़ने को,
न कि सिकुड़ कर एक साँचे में समाने को।
तो क्यों बेचें अपनी उड़ान,
सिर्फ़ चुप्पी के बदले?
क्यों बुझाएँ अपनी आग,
सिर्फ़ मेल खाने के लिए?
हर दाग़ है कहानी,
हर चोट है कविता,
हर धड़कन—
हमारा नाम पुकारती है!
उन्हें रहने दो,
अपने छोटे, सुरक्षित घेरे में।
उन्हें दोहराने दो वही साधारण बातें।
क्योंकि हम…
हम तो नदियाँ हैं—
बेहिसाब, बेकाबू, अनंत!
हम रेंगने के लिए पैदा नहीं हुए।
आओ उठें—
पूरी शान में,
पूरी चमक में,
बिना शर्म, बिना डर!
क्योंकि “सामान्य” है एक झूठी कहानी,
और सच्चा जादू—
हम ही हैं।
डीबी-आर्यमौलिक