तुम्हारे लिए....!
तुम्हारे लिखे हुए हर लफ्ज़ को
मैं रोज़ दिल से पढ़ता हूँ,
जैसे हर शब्द में कोई
अनकहा इज़हार छुपा हो।
खुद से लड़ता हूँ,
अपनी ही तन्हाइयों को मनाता हूँ,
फिर तुम्हारी एक शायरी पर
दिल की खामोशियों को जगाता हूँ।
मैं लिख देता हूँ
वो सब, जो कह नहीं पाता—
तुम्हारी यादों के सहारे
हर जज़्बात को क़लम बनाता हूँ।
पर तुम हो कि
तवज्जो का एक क़तरा भी नहीं देती…
मानो मेरी हर पुकार
हवा में घुलकर लौट आती हो।
कभी सोचा है?
ये शब्द यूँ ही नहीं बहते,
ये दिल की थकान हैं,
जो तुम्हें पुकारते-पुकारते
कविता बन जाते हैं।
मैं आज भी लिख रहा हूँ…
क्योंकि शायद किसी दिन
तुम्हारी नज़र ठहर जाए
और इन लफ्ज़ों में
मेरी तड़प, मेरी चाहत—
दोनों पढ़ ली जाएँ।
आर्यमौलिक