Beete samay ki REKHA - 10 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बीते समय की रेखा - 10

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बीते समय की रेखा - 10

10.
"कहा जाता है कि कोई भी बच्चा अपने जीवन के पहले पांच से दस साल तक जो कुछ देखता, सहता या पाता है वही आगे की ज़िंदगी के लिए उसके संस्कार बन जाते हैं। उन्हें बदलना फ़िर किसी और के लिए तो क्या, ख़ुद उसके अपने लिए भी कठिन हो जाता है।"
जब रेखा के दादाजी का परिवार बनस्थली में रहने आया तो उसके पिता और माता के साथ दो बुआ भी साथ में थीं। उनकी शादी तब तक नहीं हुई थी। इसी तरह दादाजी की मां (रेखा की परदादी ) भी तब जीवित थीं। इस तरह देखा जाए तो एक साथ चार पीढ़ियां उस समय एक ही घर में निवास कर रही थीं।
उन दिनों की अपनी बाल्यावस्था में देखी हुई बातें और लोगों के व्यवहार रेखा के जेहन में भी थे।
उसकी दोनों बुआ गाने - बजाने में बहुत प्रवीण थीं। उन्होंने संगीत या नृत्य की कोई विधिवत शिक्षा - दीक्षा कहीं से नहीं ली थी पर घर, परिवार, पड़ोस और मोहल्ले के उत्सवों में शिरकत कर - कर के यह कला विकसित की थी। उस ज़माने के प्रचलित वाद्यों, हारमोनियम ढोलक आदि के साथ गाना- बजाना ही ज़्यादातर युवाओं का शगल होता था। दोनों बुआओं का गला भी खूब सुरीला था और नृत्य की ताल पर थिरकने में भी उनका कोई सानी नहीं था। उस समय के फिल्मी गीत - "छोटा सा घर होगा बादलों की छांव में"... "चली- चली रे पतंग मेरी चली रे"... जैसे गीत उनके कारण ही मोहल्ले भर में लोकप्रिय हो गए थे।
रेखा की बड़ी वाली बुआ को गाने के साथ - साथ चित्र बनाने का भी बहुत शौक था। खूबसूरत चित्र बनाया करती थीं।
एक दिन वो कागज़ पर एक सुंदर दृश्य बना रही थीं कि उनके पिता ने सराहना करते हुए कहा कि तू इस चित्र को पूरा कर ले फ़िर मैं इसे कांच के अच्छे से फ्रेम में जड़वा दूंगा। 
स्टेशनरी की दुकान पर काम कर ही चुके थे। बेटी ने उत्साहित होकर एक कांच पर ही ऑयल कलर्स के माध्यम से वह खूबसूरत तस्वीर बना ली। 
रात का दृश्य था, आसमान में खोया- खोया चांद और एक झील के किनारे खड़ा हुआ एक खामोश पेड़।
पूरे दो दिन लगे उसे सूखने में। धूप में दीवार से सटा कर रखा गया चित्र सूख कर और भी दमकने लगा। उस पर खूबसूरत फ्रेम भी लग कर आ गया और उसे दीवार पर टांगने से पहले एक कौने में उल्टा करके रख दिया गया।
सुबह- सुबह रसोई में चूल्हे पर चाय बनते देख रेखा की परदादी ने उधर का रुख किया और गर्म गिलास में चाय को अपनी धोती के पल्लू से थाम चौक में चली आईं। आराम से बैठ कर चाय पीने की गरज से उन्होंने कौने में रखा एक पट्टा उठाया और धम्म से उसे ज़मीन पर डाल कर बिछा दिया।
ओह! हाथ की गर्म चाय तो छलकी ही पर साथ - साथ पट्टे से तड़क कर कांच भी झनझना उठे। रात की खूबसूरत तस्वीर जैसे दहल कर चटक गई।
आवाज़ सुन कर कलाकार बुआ और घर के बाक़ी लोग भी आंगन में चले आए। फ़िर जो कोहराम मचा उसने सारा घर सिर पर उठा लिया।
छोटी सी रेखा ने घर की महिलाओं का जो महाभारत उस चित्र के टूट जाने पर देखा शायद उसने ज़िंदगी भर रेखा को चित्रकला के प्रति उदासीन रखा।
नन्ही रेखा एक चित्र के कारण घर में मचे तीन पीढ़ियों के संग्राम को कौतुक से देखती हुई यह नहीं समझ पाई कि वह इस घरेलू आंतरिक कलह में किस पक्ष का साथ दे। एक ओर युवा बुआ थीं जो अपनी दादी को उनका चित्र तोड़ देने पर बुरा - भला कह रही थीं तो दूसरी ओर अस्सी साल की बूढ़ी परदादी थीं जो खुले आंगन के बीच में चित्र को उल्टा करके रख देने पर अपनी बहू को लापरवाह बता रही थीं। तीसरी ओर रेखा के पिता थे जो सास बहू के एक दूसरे का सम्मान न करने पर खिन्न थे। चौथे दादाजी थे जो जयपुर जाकर चित्र को फ्रेम करवा कर लाने की अपनी मेहनत पर पानी फ़िर जाने से कुपित थे।
शायद यहीं छोटी सी रेखा के कच्चे दिमाग़ में यह ग्रंथि बन गई कि किसी चित्र पर ऐसी मेहनत करने का क्या फायदा?
सचमुच रेखा को जिंदगी में कभी चित्र बनाते नहीं देखा गया। यहां तक कि उसके यूनिवर्सिटी की डीन बन जाने पर छात्राओं का एक दल जब उससे अपनी चित्र प्रदर्शनी का उदघाटन करने का अनुरोध करने आया तो उसने खास बाद में उत्साह से रुचि नहीं ली। शायद उसके अवचेतन मन में चित्रकला के लिए कोई कड़वाहट अब तक छिपी हुई थी।
रेखा ने उदघाटन ज़रूर किया लेकिन बाद में समय मिलने पर अपनी एक सहेली से बचपन के इस किस्से की चर्चा भी कर ही दी।
सहेली को खासा अचंभा हुआ।
क्या यह कोई आदत है?
क्या यह कोई रोग है?
क्या यह कोई कॉम्प्लेक्स है?
क्या यह कोई शारीरिक दोष है?
क्या यह व्यक्तित्व की कोई कमी है?
जो भी हो, रेखा के बारे में एक और बात आपको बताना ज़रूरी लगता है।
रेखा को जीवन में हारने की आदत नहीं थी। उसे जीत ही अच्छी लगती थी। यदि कहीं उसे लगे कि यहां सफलता नहीं मिलेगी तो वह वहां से हट जाना पसंद करती थी।
आप कह सकते हैं कि यह तो पलायन है। एक प्रकार से अपने लक्ष्य से भागना है। ऐसा तो जुआरियों में होता है कि जब तक जीत रहे हैं तब तक खेल में बने हुए हैं और जब हारने की नौबत आई तो मैदान से ही हट गए। अर्थात दूसरे को जीतने नहीं देना।
ये तो सचमुच नकारात्मक बात है।
क्या रेखा में किसी बात को लेकर ऐसी नकारात्मकता भी थी?
पाठको, हम आपको रेखा की कहानी सुना रहे हैं, कोई उसकी स्तुति नहीं।
अगर उसके व्यक्तित्व में कोई कमज़ोरी है तो वो भी आपको बतानी ही होगी। अन्यथा यह उसके व्यक्तित्व का अधूरा आकलन होगा।
सीधे - सीधे कहूं तो रेखा को गाना पसंद नहीं था। वो न तो गाने सुनने में दिलचस्पी लेती थी और न गाने में।
अब अगर कोई इसका कारण तलाश करना ही चाहे तो खोजने की कोशिश ज़रूर की जा सकती है।
रेखा की आवाज़ में जन्म से ही एक भारीपन था। प्रायः जैसा मौसम के प्रभाव से किसी का गला बैठ जाने से होता है। उससे पहली बार मिलने पर किसी को भी यह भ्रम हो सकता था कि शायद उसे ज़ुकाम हुआ है, या गले में खराश है अथवा आवाज़ कुछ बैठ गई है। लेकिन उसकी सहेलियां या परिजन यह जानते थे कि आवाज़ का यह भारीपन उसके लिए जन्मजात ही है। यद्यपि यह ख़राश जैसा स्वर बाद में उम्र बढ़ने के साथ कम होता चला गया और दिलचस्प बात यह है कि इस भारीपन के कम होने के बाद उसे थोड़ा बहुत गाना या गाना सुनना भी पसंद आने लगा था। लेकिन आरम्भ में तो वह संगीत से दूर ही रहना पसंद करती थी।
कहते हैं कि इंसान की खूबी उसकी कमी को भी ढाँप लेती है। बाद में जब उसे अध्ययन और रोज़गार में भारी सफलता मिल गई तो उसके स्वर की यह बात भी दब गई और इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता दिखाई देता था। इसी के साथ एक मज़ेदार बात यह भी हुई कि इसी तरह की आवाज़ वाली कुछ फ़िल्म अभिनेत्रियां भी आ गईं और सफ़ल भी हुईं। ऐसे में ये भर्राई हुई सी आवाज़ भी उनकी एक खासियत मानी जाने लगी। 
रानी मुखर्जी, प्रीति जिंटा आदि ऐसी ही आवाज़ की मालकिन थीं। इन ऐक्ट्रेसेज़ ने इस तरह की आवाज़ वाली लड़कियों के कॉन्फिडेंस में इज़ाफ़ा ही किया।
बल्कि नई सदी के साथ- साथ एक दौर तो ऐसा आया कि लड़कियों की ऐसी आवाज़ उनकी सिग्नेचर स्टाइल ही बन गई। मैनेजमेंट, राजनीति, सेना, पुलिस, वकालत आदि क्षेत्रों में तो लड़कियों की ऐसी आवाज़ एक एसेट समझी जाने लगी। एक दबंग आवाज़ जो स्त्रियों के शासन या नेतृत्व करने की क्षमता को और बढ़ा देती है। उनकी स्वीकार्यता को परिमार्जित करने वाली आवाज़।
ऐसा नहीं था कि आरंभ में रेखा ने संगीत सीखने की कोशिश नहीं की। हर परंपरावादी लड़की की भांति एक बार रेखा ने भी संगीत विद्यालय से सात वर्षीय पाठ्यक्रम पूरा करने की कोशिश ज़रूर की। किंतु शायद संगीत की अपनी मार्कशीट देख कर उस पूरे राज्य को विज्ञान में टॉप करने वाली लड़की का मनोबल कम हुआ और उसने संगीत बीच में ही छोड़ दिया। उसे पहले वर्ष के इस इम्तहान में तृतीय श्रेणी हासिल हुई थी।
यह अनुभव परिवारजनों को कई बार हुआ जब उन्होंने रेखा को टीवी या रेडियो में गाना शुरू होते ही उसे खट से स्विच ऑफ करते हुए देखा। घर में पढ़ाई - लिखाई के माहौल के चलते बजते हुए रेडियो टीवी के बंद होने पर किसी को ऐतराज भी नहीं होता। पढ़ने वाले बच्चे इसे अनुशासन के रूप में स्वीकार करते।
पाठक जानते ही हैं कि समर्थ व्यक्ति की कोई कमी भी उसकी खूबी बन जाती है। उन्हीं के से किसी भी लड़के या लड़की को काला कह देने वाले लोग भी राम या कृष्ण को सांवला - सलोना कहते हैं। 
तो कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रभावशाली व्याख्यान देने वाली रेखा को भी एक बार उसकी एक अधीनस्थ छात्रा, जो उसकी विद्यार्थी भी रही थी, ने कहा कि दीदी आपकी आवाज़ कच्चे दूध सी चिपचिपी आवाज़ है जो बहुत प्यारी और मासूम लगती है।
लीजिए, क्या अब भी आप कहेंगे कि आवाज़ का यह रूप कोई दोष था?
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