Shri Bappa Raval - 10 in Hindi Biography by The Bappa Rawal books and stories PDF | श्री बप्पा रावल - 10 - निष्कासन

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श्री बप्पा रावल - 10 - निष्कासन

नवम अध्याय
निष्कासन

बादामी
हाथ में भाला लिए दौड़ता हुआ एक सैनिक नदी के तट पर सूर्यवंदना समाप्त कर रहे शिवादित्य के पास आया।

उसे घबराया हुआ देख शिवादित्य नदी से निकलकर बाहर आया, “क्या बात है?”

“आपकी पत्नी, देवी शत्रुपा..। वो संकट में हैं।”

शिवादित्य का ध्यान उस सैनिक के मस्तक से बहते रक्त की ओर गया, “ये चोट तुम्हें किसने दी? हो क्या रहा है यहाँ?”

“आपके महल में पधारे अतिथि, महाराज विन्यादित्य के पुत्र कुमार जयसिम्हा ने आपकी पीठ में कटार घोंपी है, महामहिम।”

उस सैनिक का ये कथन सुन शिवादित्य ने भौहें सिकोड़ते हुए उसका जबड़ा पकड़ लिया, “असत्य कह रहे हो तुम, सम्भव ही नहीं है। बालक है वो सत्रह वर्ष का, ऐसा घृणित कार्य कर ही नहीं सकता।”

“यदि..यदि मुझपर विश्वास ना हो तो आप स्वयं जाकर सत्य को अपने नेत्रों से देख लीजिए।”

उस सैनिक का कटाक्ष सुन क्रोध में शिवादित्य ने उसे भूमि पर धकेला और अपने निवास की ओर दौड़ गया।

वो अभी अपने निवास महल के द्वार के ठीक बाहर पहुँचा ही था, कि वो द्वार खुला और एक स्त्री ने एक राजसी वस्त्र धारण किए हुए एक युवक को भीतर से बाहर धकेला।

उस स्त्री के माथे, बाजू, कंधे और मुख से रक्त बहते देख शिवादित्य उसकी ओर दौड़ा, “शत्रुपा !!”

शिवादित्य को वहाँ आया देख शत्रुपा उसकी ओर आयी और अश्रु बहाने लगी। उसने उस राजसी वस्त्र में खड़े युवक की ओर संकेत कर कहा, “इस नीच 'जयसिम्हा' ने मेरे वस्त्र खींचने का प्रयास किया, और मेरे साथ..।” अपने शब्द पूर्ण कर पाने में असमर्थ शत्रुपा शिवादित्य से लिपट गयी।

नेत्रों में अंगार लिये शिवादित्य जयसिम्हा की ओर मुड़ा, जो स्वयं वहाँ अचम्भित खड़ा था, “ये.. ये असत्य है, मैंने तो इन्हें छूने तक का प्रयास नहीं किया।” क्रोधित शिवादित्य विषैले नाग की भाँति फुंफकारा “तो मेरी पत्नी के शरीर पर इतने घाव कैसे?”

“ये..ये मुझे नहीं पता। जब मैं इनके कक्ष में गया तो ये इसी दशा में थीं, मैं तो इनकी सहायता करना चाहता था।” सत्रह वर्ष के उस युवक को अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा था।

कुपित हुए शिवादित्य ने उसका जबड़ा पकड़ लिया, “किसकी आज्ञा से तुमने मेरी पत्नी के कक्ष में प्रवेश करने का साहस किया?”

इतने में शिवादित्य को नदी के पास मिला घायल सैनिक भी वहाँ आ पहुँचा। उसे देख सिम्हा ने कहा, “पूछिए अपने इस सैनिक से। यही मेरे पास घायल अवस्था में आया, और इसी ने मुझे देवी शत्रुपा के घायल होने की सूचना देकर सहायता के लिए उनके कक्ष में आने को कहा।”

“ये असत्य है, महामहिम। मुझे कौन घायल करेगा? इन्होंने ही मेरे सर पर चोट की और बलपूर्वक कक्ष में घुस गये।”

उस सैनिक का कथन सुन सिम्हा भड़क उठा, “असत्य है ये, इसी ने मुझे कहा था कि देवी शत्रुपा संकट में हैं।” 

“किससे संकट था देवी शत्रुपा को, हम्म ? कौन है यहाँ हमारा शत्रु, बताओ ?” शिवादित्य के उस प्रश्न को सुन सिम्हा क्षणभर को सकपका गया। शत्रुपा ने उसपर कटाक्ष करते हुए कहा, “ये क्या बताएगा, आर्य। इसी से तो संकट था मुझे, मैंने पहले भी स्वयं पर इसे कुदृष्टि डालते देखा था। किन्तु ये आशा नहीं थी कि ये बालक इतना नीच निकलेगा।”

सिम्हा का जबड़ा पकड़े शिवादित्य ने उसे भूमि पर धकेल दिया। इस पर सिम्हा भी कुपित हुआ उठ खड़ा हुआ, “असत्य है ये। मैंने कभी देवी शत्रुपा को दृष्टि उठाकर भी नहीं देखा। आप मुझे जानते हैं, शिवादित्य।”

सिम्हा के नेत्रों में सत्य की झलक देख क्षणभर को शिवादित्य स्थिर सा हो गया। उसे विचलित होता देख उसकी पत्नी शत्रुपा ने आग में घी डालने का प्रयास किया, “तीन वर्ष हो गये हमारे विवाह को, फिर भी मुझपर विश्वास नहीं है आपको? अरे धिक्कार है ऐसे पुरुष पर जो अपनी भार्या के ऐसे घृणित अपमान के उपरान्त भी मौन बैठा है। क्यों? केवल इसलिए क्योंकि वासना जैसे राक्षसी गुण के आधीन हुआ ये नवयुवक चालुक्यराज का पुत्र है?” 

शत्रुपा के इस कटाक्ष पर शिवादित्य की मुट्ठियाँ क्रोध से भिंच गयीं। परिस्थितियों को पूरी तरह अपने विरुद्ध हुआ देख सिम्हा विचलित हुआ कुछ क्षण मौन रह गया। वहीं नेत्रों में अंगार लिये शत्रुपा ने उसकी ओर उंगली उठाते हुए शिवादित्य से कहा, “इसने मेरी पवित्रता भंग करने का प्रयास किया है, आर्य। इसे दण्ड दीजिए, अन्यथा आप मुझे जीवित नहीं देखेंगे। मैं अपमान की इस अग्नि को नहीं झेल सकती।”

शिवादित्य को क्रोध तो बहुत आ रहा था, किन्तु फिर भी उसने धीरज धारण करने का प्रयास किया, “इसे दण्ड राजसभा में स्वयं महाराज देंगे।”

“पुत्र है ये महाराज का, जो अपना अपराध तक स्वीकार करने को तैयार नहीं।” शत्रुपा बिफर पड़ी, “वहाँ न्याय नहीं मिलेगा आपको। अपितु चालुक्यों की प्रजा मेरे चरित्र पर ही प्रश्न उठाएगी।”

“एक क्षण रुकिए।” सिम्हा ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “देवी शत्रुपा पल्लव नगरी से आयी सेना के एक सामंत नास्तिदमन की पुत्री हैं, है न? वही पल्लव सेना जो सात वर्ष पूर्व चालुक्यों की सहायता के लिए उनसे जुड़ी थीं।” सिम्हा उस घायल सैनिक की ओर मुड़ा, “और वो सैनिक कदाचित देवी शत्रुपा का निजी अंगरक्षक होगा, इसीलिए वो भी इनके असत्य में इनका समर्थन कर रहा है।”

यह सुन शिवादित्य की भौहें तन गयीं, “मैं समझ रहा हूँ तुम्हारी दूषित बुद्धि में कैसा विचार आ रहा है, सिम्हा। अपने उन कुविचारों को स्वयं तक सीमित रखो, अन्यथा उचित नहीं होगा।”

“आप समझने का प्रयास कीजिए, सामंत शिवादित्य। आपकी पत्नी जिनकी पुत्री हैं, पल्लवों के वो सामंत ‘नास्तिदमन’ पिछले एक वर्ष से मेवाड़ में कार्यरत हैं। ये मेवाड़ियों का षड्यन्त्र हो सकता है।”

सिम्हा की बात सुन शिवादित्य कुछ क्षण को स्थिर हो गया। यह देख शत्रुपा बिफर पड़ी, “दुष्ट, नराधम, तू ये कहना चाहता है कि मैं अपने ही पति के साथ षड्यन्त्र कर रही हूँ? मैं इतनी चरित्रहीन हूँ कि तुझे फँसाने के लिए मैंने स्वयं ही अपने वस्त्र फाड़े, और स्वयं को इतने घाव दिये?”

“बिल्कुल सम्भव है ये।” सिम्हा ने विचलित होकर शिवादित्य से कहा, “मेरा विश्वास कीजिए, सामंत शिवादित्य। पल्लवों की ये स्त्री कुलटा है, जिसने स्वयं मुझे अपने कक्ष में बुलाया ताकि आपके और चालुक्यराज के मध्य विष घोलने का षड्यन्त्र रच सके। आप समझने का प्रयास..।” सिम्हा के शब्द पूर्ण होते इससे पूर्व ही शिवादित्य की मुष्टिका का प्रहार उसके मुख पर हुआ। मुख से रक्त उगलता वो चालुक्य राजकुमार धरती पर गिर पड़ा। अपने मुख से रक्त पोछ सिम्हा वापस उठा, “मैं सत्य कह रहा हूँ, मैं निर्दोष हूँ। अवश्य ही ये स्त्री..।”

शत्रुपा ने भी स्वयं आगे आकर सिम्हा को तमाचा जड़ दिया। कुपित हुए सिम्हा ने उसे घूरकर देखा। व्यग्र हुए उस बालक ने अधीरता में शत्रुपा पर आक्रमण करने के लिए हाथ उठाया। किन्तु उससे पूर्व ही शिवादित्य ने उसका हाथ पकड़ उसे पीछे धकेला और दोनों हाथों से उसका मस्तक पकड़ लिया, “मुझे विवश मत करो, बालक। तुम मेरी भार्या का पर्याप्त अपमान कर चुके हो, अब मैं और सहन न कर पाऊँगा।”

“मैं भी एक क्षत्रिय हूँ, शिवादित्य। सहन तो मुझसे भी नहीं हो रहा कि यह कुलटा मुझ पर ऐसा घृणित आरोप लगा रही है। मैंने इसे स्पर्श भी नहीं किया, चरित्रहीन है ये..।”

इस बार क्रोध में शिवादित्य ने अपने हाथों पर नियंत्रण खो दिया, और सिम्हा का मस्तक पकड़ उसे पूरा उल्टा मोड़कर उसकी गर्दन की हड्डी तोड़ डाली। भूमि पर गिरा वो चालुक्य कुमार अपने प्राण छोड़ने को तड़पने लगा। उसे प्राण छोड़ते देख क्षणभर को शत्रुपा का हृदय भी काँप गया, किन्तु उसने अपनी घबराहट अपने पति के सामने न आने दी।

उसके प्राण निकलते देख शिवादित्य भी विचलित हो गया। उसने अपने सर पर हाथ रखा, और घुटनों के बल झुककर बैठ गया। शत्रुपा ने उसका कंधा पकड़ उसे आश्वस्त किया, “आपने एक पापी को दण्ड दिया है। मन में ग्लानि भाव रखने का कोई अर्थ ही नहीं है।”

“बाल्यवस्था से इसे देखता आ रहा हूँ, शत्रुपा। मुझे तो अब भी विश्वास नहीं हो रहा है कि ये..।” अपने शब्द पूर्ण करने से पूर्व ही शिवादित्य का गला भर आया। वो झल्लाते हुए वहाँ से उठकर चला गया।

******

चालुक्यों की राजसभा में बेड़ियों में एक अपराधी की भाँति खड़े शिवादित्य को देख स्वयं चालुक्यराज विन्यादित्य भी सिंहासन पर मौन बैठे थे। कुछ क्षण उसे घूरने के उपरान्त वो अपने निकट के आसन पर विराजे अपने पिताश्री गुरु विक्रमादित्य की ओर मुड़े, “मुझसे नहीं होगा, पिताश्री। आप ही इससे वार्ता कीजिए।”

सिंहासन पर बैठे अपने पुत्र को धर्मसंकट में देख गुरु विक्रमादित्य अपने आसन से उठे और चलकर शिवादित्य के निकट आये, “तुम्हारे विश्वास पर ही हमने राजकुमार जयसिम्हा को वन विहार पर भेजा था। तुम्हारे महल में अतिथि बनकर आया था वो। और तुमने ही.. ।”

“क्षमा करें गुरुदेव, किन्तु जो महापाप आपके उस पौत्र ने करने का प्रयास किया उस पर मैं क्या संसार का कोई भी पुरुष मौन नहीं रह पाता।”

“तो उसे बालों से घसीटकर राजसभा में ले आते। क्या तुम्हें अपने राजा पर इतना भी विश्वास नहीं था कि वो तुम्हें न्याय देंगे?”

“क्षमा करें, गुरुदेव। मैंने अपने क्रोध को बहुत नियंत्रित करने का प्रयास किया कि मैं कुमार सिम्हा को क्षति न पहुँचाऊँ।” कहते हुए शिवादित्य का स्वर कठोर हो गया, “किन्तु उन्होंने ना केवल मेरी पत्नी की अस्मिता भंग करने का प्रयास किया, अपितु पकड़े जाने पर बार-बार शत्रुपा को ही अपशब्द कहने लगे, उसके चरित्र पर कीचड़ उछालने लगे। मैंने चेतावनी दी पर वो नहीं माने, और मैं अपने क्रोध पर नियंत्रण न रख पाया।”

शिवादित्य के दिए उस तर्क के आगे गुरु विक्रमादित्य कुछ क्षण मौन रहे। फिर कहते हुए उनका भी गला भर गया, “मुझे ज्ञात था कि नागादित्य की अनुपस्थिति में कभी न कभी तुम अपने क्रोध पर नियंत्रण खोकर ऐसा कुछ न कुछ अवश्य कर जाओगे, जो क्षमा के योग्य नहीं होगा।” 

झल्लाते हुए गुरु विक्रमादित्य वापस अपने आसन की ओर बढ़े और चालुक्यराज से कहा, “हमने केवल शिवादित्य की पत्नी शत्रुपा का पक्ष सुना। अपना पक्ष कहने को सिम्हा जीवित ही नहीं रहा। अब आगे क्या करना है इसका निर्णय अपने विवेक का प्रयोग करके स्वयं महाराज लें।”

गुरु विक्रमादित्य का निर्णय सुन चालुक्यराज विन्यादित्य ने क्षणभर को शिवादित्य की ओर देखा फिर साहस जुटाकर कहना आरम्भ किया, “तुमने आज तक हमारे और चालुक्यों के लिए जो भी किया है, उसके लिए हम तुम्हारे आभारी हैं, शिवादित्य। किन्तु आरोप सिद्ध हुए बिना तुमने मेरे पुत्र सिम्हा का वध कर दिया। सम्भव है कि तुमने जो किया वो उचित रहा हो, किन्तु मैंने भी सिम्हा को बचपन से देखा है। मेरा मन अब भी ये मानने को तैयार नहीं है कि उसने ऐसा कुछ किया होगा।” कहते हुए चालुक्यराज का गला भर आया, “यदि मैं केवल एक पिता होता, तो मैं इसी क्षण तुम्हारा मस्तक काटकर गिरा देता। किन्तु मैं एक राजा भी हूँ, इसलिए मौन बैठा हूँ। ये एक टीस मेरे मन से कभी जाएगी नहीं कि मैं स्वयं सिम्हा का पक्ष ना सुन पाया, और इस एक टीस ने हमारे सम्बन्ध की मधुरता को सदैव के लिए समाप्त कर दिया है, शिवा। तुम्हारे पक्ष में भी मुझे असत्य दिखाई नहीं देता, किन्तु मैं अपने पुत्र के हत्यारे को यूँ अपने समक्ष खड़ा नहीं देख सकता। क्योंकि आज के उपरान्त मैं जब भी तुम्हारा मुख देखूँगा, मुझे हमेशा यही स्मरण होगा कि इस घटना का कोई दूसरा पक्ष भी हो सकता था।”

“मैं समझ सकता हूँ, महाराज।” बेड़ियों में बंधे शिवादित्य ने हाथ जोड़कर विनती की, “मुझे आपका दिया हर दण्ड स्वीकार है।”

“न्याय की माँग यही है कि अपनी पत्नी की अस्मिता की रक्षा को उठे हाथों को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जा सकता। तो उचित….।” अंतिम निर्णय सुनाते हुए चालुक्यराज का भी गला भर आया, “उचित यही होगा कि तुम महिष्कपुर से सदा-सदा के लिए दूर हो जाओ। सामंत शिवादित्य, आपको अपने परिवार समेत चालुक्यों की इस भूमि से निष्काषित किया जाता है।” ये आदेश सुनाने के उपरान्त चालुक्यराज ने अपने सैनिकों को शिवादित्य की बेड़ियाँ खोलने का संकेत दिया।

बेड़ियाँ खुलने के उपरान्त शिवादित्य चलकर चालुक्यराज के निकट आया और उनके समक्ष दायें घुटनों के बल झुका, “आप निसन्देह एक न्यायप्रिय राजा हैं, महाराज। इसलिए पद रहे या ना रहे, मेरी तलवार सदैव चालुक्यों के समर्थन को ही तत्पर रहेगी।”

भावुक होकर चालुक्यराज ने शिवादित्य की ओर देखा, “तुमने बचपन से सिम्हा को देखा है, शिवा। हमने उसे ऐसे संस्कार नहीं दिए थे।” किसी कटार की भाँति पैने चालुक्यराज के उन शब्दों को सुन शिवादित्य भी विचलित हो गया।

कुछ और कहे बिना चालुक्यराज सिंहासन से उठकर वहाँ से प्रस्थान कर गये। शिवादित्य कुछ क्षण वहीं बैठा रहा। गुरु विक्रमादित्य भी अपने आसन से उठे और शिवादित्य के कंधे पर हाथ रख कुछ क्षण उसे देखा, फिर वो भी सभा से प्रस्थान कर गये। शिवादित्य के मन में अब भी चालुक्यराज के कहे अंतिम शब्द गूंज रहे थे, उसके मन में भी संशय उत्पन्न होना आरम्भ हो गया। किन्तु निर्णय तो लिया जा चुका था, अब उसे चालुक्य भूमि छोड़कर जाना ही था।

******

इधर मेवाड़ के एक और नगर में उमड़े विद्रोह को दबाकर महाराज नागादित्य अपने महल लौट आये। मुख्य द्वार पर पहुँचकर उन्होंने स्वयं मेवाड़ नरेश को अपने स्वागत में खड़ा पाया।

मानमोरी के संकेत पर नागादित्य पर पुष्पों की वर्षा हुई और उनके अश्व से उतरते ही मेवाड़ नरेश ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। नागादित्य को उनका ये कृत्य थोड़ा अटपटा सा लगा।

मानमोरी ने पीछे हटकर उनकी आँखों में देख अनुमान लगाया, “हाँ, समझ सकता हूँ। कदाचित आप अब भी मुझे अपने परिवारजनों का हत्यारा ही मानते हैं।”

“बात वो नहीं है, मेवाड़ नरेश। मैं बस.. मुझे आपके यहाँ आने की आशा नहीं थी।”

“आते कैसे नहीं? आज आप मेवाड़ के अंतिम विद्रोह का दमन करके आ रहे हैं। ये एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, और आज आप ही के कारण मेवाड़ भारतवर्ष का सबसे शक्तिशाली राज्य बन चुका है जिसकी समस्त प्रजा अपने राजा पर विश्वास करने लगी है। और ये विश्वास जीता है आपने, जिसके बल पर सम्पूर्ण मेवाड़ के योग्य नवयुवक , पूरे उत्साह से मेवाड़ी सेना का भाग बनने में रुचि लेते हैं। इस मंगल अवसर पर तो मेरा कर्तव्य बनता था कि मैं स्वयं आकर आपका धन्यवाद करूँ।”

नागादित्य ने भी मानमोरी को प्रणाम किया, “सरल नहीं था किन्तु वर्षों पूर्व हमारे परिवारों के मध्य जो भी हुआ उसे मैं पीछे छोड़ चुका हूँ। तो आप चिंता न करिए, मैं आपको एक हत्यारे के रूप में नहीं देखता। पधारिए।” कहते हुए नागादित्य ने महल में प्रवेश किया।

अभी वो दोनों महल के भीतर कुछ दूर ही आये थे कि एक रथ और उसके सैनिकों के दौड़ने का स्वर सुनाई दिया। वो स्वर सुन नागादित्य और मानमोरी पीछे मुड़े। श्वेत साड़ी में रथ में खड़ी अपनी भाभी शत्रुपा को देख नागादित्य अचम्भित रह गया। वो दौड़ता हुआ रथ की ओर आया, “भाभीश्री, ये सब क्या है?”

किन्तु शत्रुपा मौन खड़ी रही, मानों किसी सदमें में हो। नागादित्य साथ आये एक सैनिक की ओर मुड़ा, उस सैनिक ने लज्जा से अपना शीश झुका लिया।

“नहीं, ये सम्भव नहीं है।” विचलित हुए नागादित्य रथ के पहिये का सहारा लेकर भूमि पर बैठ गया।

“उचित समय पर ही सबकुछ हो रहा है।” मन में ये विषाक्त विचार लिये मानमोरी दिखावे के लिए नागादित्य को संभालने आगे बढ़े, “क्या हुआ नागदा नरेश? कौन हैं ये लोग, और आप इस प्रकार विचलित क्यों हैं?"

नागादित्य ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस किसी प्रकार स्वयं को संभालते हुए खड़ा हो गया। श्वास भरते हुए उसने अपने अश्रुओं को नियंत्रित किया और शत्रुपा की ओर मुड़ा, “कैसे, भाभीश्री?”

शत्रुपा के नेत्र अश्रुओं से भर गये। स्वयं को कुछ कहने में समर्थ न जान वो मौन होकर रथ पर ही बैठ गयी। क्रोध में नागादित्य ने निकट खड़े सैनिक का कंधा पकड़ उसे जोर से झटकारा, “मुझे पूरी बात बताओ, सैनिक।”

“महामहिम शिवादित्य की मृत्यु का षड्यन्त्र चालुक्यों ने ही रचा था।”

उस सैनिक की बात सुन भौहें सिकोड़ते हुए नागादित्य ने उसका जबड़ा पकड़ उसे पीछे धकेला, “तुम मुझे यहाँ चालुक्यों के विरुद्ध भड़काने आये हो?”

संभलते हुए उस सैनिक ने कहा, “मेरी निष्ठा महामहिम शिवादित्य के प्रति थी, महाराज। हम सारे के सारे तीन सौ योद्धा जो इस समय यहाँ उपस्थित हैं, सब नागदा के ही पूर्व योद्धा है, जो उस समय से आपका साथ दे रहे हैं जब उन्नीस वर्ष पूर्व आपके परिवार को नागदा छोड़ने पर विवश होना पड़ा था। हम आपके अपने हैं, आप हमारी निष्ठा पर संदेह कैसे कर सकते हैं ?”

“किन्तु जिन पर तुम ये घृणित आरोप लगा रहे हो, उन्हीं चालुक्यों ने हमें शरण देकर इस योग्य बनाया कि हम गर्व से सर उठाकर जीवन जी सकें।” नागादित्य ने पुनः क्रोध में उस सैनिक का जबड़ा पकड़ लिया।

इस पर शत्रुपा बिफर उठी, “अंधभक्ति की भी कोई सीमा होती है, महाराज नागादित्य।” क्रोध में मुट्ठियाँ भींचे वो रथ से उतरकर नागादित्य के निकट आयी, “पूरी बात जानना चाहते हैं तो सुनिए। आपके उन चालुक्यराज के पुत्र जयसिम्हा ने मेरा शील भंग करने का प्रयास किया, और जब आर्य शिवादित्य ने उसे पकड़ लिया तो वो मेरे ही चरित्र पर कीचड़ उछालने लगा। एक स्वाभिमानी पति अपनी पत्नी का अपमान न सह पाया और उसी क्षण उन्होंने जयसिम्हा का वध कर दिया। और अपने पुत्र की हत्या के अपराध में चालुक्यराज ने आपके ज्येष्ठ को अपने राज्य से निष्काषित कर दिया।”

श्वास भरकर आगे कहते हुए शत्रुपा के नेत्र से अश्रु फूट पड़े, “हम तो केवल अपने तीन सौ योद्धाओं के साथ चालुक्यनगरी छोड़कर जा रहे थे। मार्ग में हमने विश्राम के लिए शिविर लगाया, और पहली ही रात्रि आपके ज्येष्ठ लुप्त हो गये। दो दिन तक हम उन्हें ढूँढते रहे और अंत में हमें इस संदेश के साथ आपके ज्येष्ठ का शव प्राप्त हुआ।” कहते हुए शत्रुपा ने संदेशपत्र निकालकर नागादित्य के हाथ में दिया।

व्यग्र हुए नागादित्य ने उस संदेशपत्र को हाथ में लेकर पढ़ना आरम्भ किया। 

“राजकुमार जयसिम्हा के हत्यारे को क्षमा नहीं किया जा सकता। वो निर्दोष था, वो इस प्रकार किसी कन्या या स्त्री का अपमान कर ही नहीं सकता। दोष तुममें ही था शत्रुपा, इस कारण तुम्हारा पति शिवादित्य मृत्युदण्ड के ही योग्य है। भले ही चालुक्यराज ने ही उन्हें क्षमा कर दिया हो, किन्तु चालुक्यों की प्रजा अपने राजकुमार के हत्यारे को क्षमा नहीं कर सकती।” —बादामी की प्रजा

नागादित्य उस पत्र को अपनी नाक के निकट लाया और उसे सूंघने का प्रयास किया, “पत्र की ये स्याही तो चालुक्य राजपरिवार की है। अर्थात उन्हीं में से किसी ने।”

उस संदेशपत्र को पढ़ते हुए विचलित खड़े नागादित्य को देख शत्रुपा ने उसे पुनः टोका, “स्वयं आपके ज्येष्ठ को दण्डित न कर सके, तो प्रजा की आड़ लेकर षड्यन्त्र द्वारा आपके ज्येष्ठ की हत्या करवा दी। ये दुष्कृत्य चालुक्यराज का ही है, और वो स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए बस प्रजा की आड़ ले रहे हैं। एक पत्नी के स्वाभिमान की रक्षा करने वाले को तो वो प्रजा के समक्ष मृत्युदण्ड दे नहीं सकते थे, इसीलिए अपना सम्मान बचाने के लिए उन्होंने पहले आपके ज्येष्ठ को निष्काषित किया। और फिर मार्ग में उनकी हत्या की योजना बनाई।”

नागादित्य के नेत्रों में नमी सी आ गयी। शत्रुपा उसके निकट गयी और क्रोध में भरकर बोला, “मेरे पति मेरे मान की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहुति दे गये। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं जाना चाहिए।”

नागादित्य को सूझा ही नहीं कि वो अपने हृदय को छलनी करने वाले कष्ट को कहे, या अपनी भाभी के पीड़ित हृदय को सांत्वना देने का प्रयास करे। क्षणभर मौन रहकर उसने शत्रुपा से प्रश्न किया, “ज्येष्ठ हैं कहाँ?”

शत्रुपा ने रथ की ओर संकेत किया। किसी प्रकार साहस जुटाकर नागादित्य रथ की ओर बढ़ा और उसमें रखे श्वेत चादर में लिपटे शव की ओर देखा। चादर हटाई तो पाया कि मुख को छोड़ शरीर के अधिकतम घावों को ढकने के लिये श्वेत पट्टियाँ भी बँधी हुईं थीं। शिवादित्य ने निकट जाकर मुख को ध्यान से देखा तो उस शव की आँखों को भी फूटा हुआ पाया।

शत्रुपा भी नागादित्य के निकट आयी और शव की ओर संकेत करते हुए कहा, “न जाने कितने मनुष्यों ने इन्हें मूर्छित करके कटार से कहाँ-कहाँ और जाने कितने प्रहार किये। मुझसे तो देखा भी नहीं जा रहा।” शत्रुपा ने अपने नेत्रों में उभर आये अश्रुओं को पोछ नागादित्य से कहा, “आपके ज्येष्ठ के इस शव का हर एक घाव आपसे चीख चीखकर न्याय की माँग कर रहा है, वीर नागादित्य। मुझे चालुक्यराज का कटा मस्तक चाहिए।”

शत्रुपा के नेत्रों में धधकते अंगारे को देख क्षणभर को तो नागादित्य की मुट्ठियाँ भी क्रोध से भिंच गयीं। इतने में मानमोरी का हाथ उसके कंधे पर आया, “आप यदि चालुक्यों से प्रतिशोध चाहते हैं, तो सम्पूर्ण मेवाड़ी सेना आपके समर्थन में तैयार खड़ी मिलेगी। हम मिलकर उन चालुक्यों का अस्तित्व ही मिटा देंगे।” 

 “ये..ये सम्भव नहीं है, मेवाड़ नरेश।” खीजते हुए नागादित्य पीछे हटा, “मुझे तो अब भी इस घटना पर विश्वास नहीं हो रहा।”

मानमोरी को पहले तो झल्लाहट हुई। किन्तु अपने वास्तविक भाव छुपाकर उन्होंने संवेदना प्रकट करने का ढोंग किया, “वो तो मैं समझ सकता हूँ, नागदा नरेश। जिस पर वर्षों से इतना विश्वास किया वो इस प्रकार छल करे तो कोई भी टूट जायेगा।”

“नहीं, समस्या वो नहीं है, महाराज। व्यथा ये है कि मैं चालुक्यराज को वचन देकर आया हूँ कि मैं उनके विरुद्ध कभी शस्त्र नहीं उठाऊँगा। वचन भंग नहीं किया जा सकता।”

मन ही मन तो मानमोरी को बहुत क्रोध आया, क्योंकि उसे नागादित्य के इस वचन के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं था, “वैसे, भविष्य का सोचे बिना ऐसा वचन देना उचित तो नहीं था। परिस्थितियाँ तो मनुष्य की आवश्यकता या लालसा के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं।”

कुछ क्षण विचार कर नागादित्य ने प्रश्न किया, “वचन तो आपने भी दिया था कि आप चालुक्यों पर आक्रमण नहीं करेंगे, फिर आप कैसे?”

“केवल तब तक जब तक सिंध की सुरक्षा हमारी ओर से सुनिश्चित नहीं हो जाती। और सिंध में हमारी एक लाख की सेना तैनात है जिसके विषय में सुनकर ही उन अरबियों का वहाँ आक्रमण करने का साहस नहीं होता। तो मुझपर तो वचन का कोई बंधन नहीं।”

मानमोरी के वचन सुन नागादित्य ने कुछ क्षण गंभीरता से विचार किया, “मैं स्वयं चालुक्यराज से इस विषय पर वार्ता करना चाहूँगा।”

“वाह, अद्भुत।” मानमोरी ने कटाक्ष करते हुए कहा, “आप वहाँ जायेंगे और चालुक्यराज ये स्वीकार कर लेंगे कि उन्होंने ही आपके ज्येष्ठ की हत्या का षड्यन्त्र रचा था, हम्म ? ये भूल मत करिए, अन्यथा आप भी वहाँ से जीवित न लौट पायेंगे।”

अपने कथन से नागादित्य को विचलित देख मानमोरी ने उसे फिर से उकसाने का प्रयास किया, “अब चालुक्यों से हमारा कोई निजी सम्बन्ध नहीं है। और हमारे मन में तो उनके लिए केवल वैमनस्य भरा है। वो आपके मित्र हैं इसलिए अब तक हम मौन थे। और अब तो गुहिलवंशियों की शक्ति भी उनका साथ छोड़ चुकी है, यदि आप चाहें तो हम आपकी ओर से चालुक्यनगरी पर आक्रमण कर आपके ज्येष्ठ की हत्या का प्रतिशोध लेंगे।”

मानमोरी के विचार सुन नागादित्य का मन भी शंकाओ से भर गया, “इस समय मैं कोई निर्णय नहीं ले सकता। पहले ज्येष्ठ का अंतिम संस्कार हो जाये, उसके बाद सारी परिस्थितियों के विषय में विचार करके ही मैं आगे कोई निर्णय लूँगा।”

“कोई बात नहीं।” मानमोरी ने नागादित्य के कंधे थपथपाये, “समझ सकते हैं ये समय कठिन है। आप बस इतना स्मरण रखिए, हम आपके हर निर्णय में आपके साथ हैं। बहनोई जो हैं आप हमारे।”

“धन्यवाद, मेवाड़ नरेश।” मानमोरी को प्रणाम कर नागादित्य ने सैनिकों को संकेत किया कि वो शिवादित्य के शव को भीतर ले आयें। इसके उपरान्त मन पर दुखों का भार लिए नागदा नरेश स्वयं महल के भीतर चले गये।

वहीं मानमोरी सैनिकों को शिवादित्य का शव उठाकर ले जाते देख मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे। उनकी योजना का पहला चरण जो सफल हो चुका था। किन्तु अकस्मात ही उनकी दृष्टि सैनिकों द्वारा ले जाते हुए शिवादित्य के शव की ओर पड़ी। उसका हाथ बाहर निकले देख मानमोरी की दृष्टि अकस्मात ही उसके कड़े की ओर गयी, जिस पर चंद्र का चिन्ह बना हुआ था, “ऐसे कड़े तो मेवाड़ के योद्धा पहनते हैं, फिर ये शिवादित्य के हाथों में कैसे?”

विभिन्न संभावनाओं के विचार से मन ही मन कुंठित हुए मानमोरी की दृष्टि महल के भीतर जाती शत्रुपा की ओर पड़ी। वो दबे पाँव चलते हुए उसके निकट गये और धीरे से कहा, “तीन कोस दूर पश्चिमी उत्तर दिशा में एक खण्डर है, आज रात्रि वहीं मिलों मुझसे।”

“ये सम्भव नहीं है, महाराज। रात्रि में भला एक कुलवधू महल के बाहर कैसे आ सकती है ?”

“स्मरण रहे तुम्हारे पिता अब भी मेवाड़ में हमारी राजसभा के शस्त्रागार निरीक्षक के पद पर आसीन हैं। उनके साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है।” उसे चेतावनी देते हुए मानमोरी ने एक सैनिक को निकट आते देखते ही अपने स्वर बदल लिए, “हमें आपसे पूरी संवेदना है, देवी शत्रुपा। आशा है कि आप यहाँ अपने देवर के इस महल में सदैव सुरक्षित रहेंगी।”

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अपने निजी कक्ष में रखी शय्या पर बैठे नागादित्य के मन में उमड़ रही अपने भ्राता की स्मृतियाँ उसके हृदय को छलनी किये जा रही थी। शीघ्र ही एक हाथ उसके कंधे को स्पर्श कर गया। नागादित्य ने मुड़कर अपनी बायीं ओर खड़ी पत्नी की ओर देखा। उसके नेत्रों में दिखाई दे रही करुणा को देख नागादित्य को मानों ऐसा आभास हुआ कि उसकी अर्धांगिनी उसे संकेत दे रही हो, कि वो अपने हृदय का भार उससे साझा करके उसे कम करने का प्रयास करे। मृणालिनी उसके बगल में बैठी और उसके कंधे सहलाते हुए कहा, “इस समय भाभीश्री को संभालना अधिक आवश्यक है। उन्होंने अपना जीवनसाथी खोया है।”

“हाँ, सत्य कहा तुमने।” अपनी नम आँखों को पोछते नागादित्य ने श्वास भरी, “हैं कहाँ वो?”

“कक्ष में हैं अपने। आज रात्रि तो उन्होंने यही निर्देश दिये हैं कि वो किसी से मिलना नहीं चाहतीं। कदाचित उनकी आकांक्षा एकांतवास की है।”

“हाँ, हर व्यक्ति के दुख सहन करने की प्रक्रिया भिन्न ही होती है।” कुछ क्षण के लिए नागादित्य ने अपना सर मृणालिनी की गोद में रखा। अपनी पत्नी द्वारा बालों के सहलाने से उसका मन शांत सा होने लगा। कुछ क्षण वहीं मृणालिनी की गोद में अपनी वेदना कम करने के उपरान्त नागादित्य के मस्तिष्क में एक विचार कौंधा। उसने उठकर मृणालिनी से प्रश्न किया, “तुम तो जयसिम्हा से मिली थी न?”

 “हाँ, एक बार भोजकश के युद्ध में देखा था। ज्यादा कुछ तो नहीं कह सकती किन्तु उस बालक को देखकर ऐसा लगा नहीं कि वो ऐसा कुछ कर सकता है।”

“वहीं तो मुझे भी समझ नहीं आ रहा।” नागादित्य ने उठकर मृणालिनी के नेत्रों में देखा, “तेरह वर्षों तक सबसे अधिक समय उस बालक ने मेरे साथ ही बिताया था। मैं कहना तो नहीं चाहता किन्तु मुझे भी भाभी श्री पर विश्वास नहीं हो रहा।”

मृणालिनी ने नागादित्य के बालों पर हाथ फेरते हुए उसका मन शांत करने का प्रयास किया, “ये देवी शत्रुपा एक पल्लव सामंत की पुत्री हैं न? उन सामंतों में से एक जिन्हें पल्लवराज महेंद्रवर्मन ने चालुक्यों की सहायता के लिए भेजा था।”

“उचित कहा।” नागादित्य ने सहमति जताई, “वो भी केवल दस वर्षों के लिए और सात वर्ष बीत चुके हैं।” मन में नाना प्रकार के अनुमान लगाते हुए नागदा नरेश विचलित से हो गये, “नहीं, नहीं, बिना सत्य जाने अपनी भाभी पर यूँ लांछन लगाना महापाप होगा।”

“किन्तु संभावनाओं को नकारना कहाँ तक उचित है?” “संभावनायें तो बहुत सी हैं, मृणालिनी। एक बात और गौर करने वाली है, भाभीश्री ने पहले कहा कि ज्येष्ठ का अपहरण हुआ और उनका शव दो दिवस के उपरान्त उनके पास आया। किन्तु उसके बाद उन्होंने ये भी कहा कि मूर्छित अवस्था में उन पर कई बार प्रहार किया गया। जब उन्हें दो दिवस के उपरान्त केवल ज्येष्ठ का शव मिला तो उन्हें कैसे ज्ञात हुआ कि उन पर कैसे और किस अवस्था में प्रहार हुआ?”

“तर्क तो उत्तम है। मुझे तो इसमें किसी षड्यन्त्र की महक आ रही है।”

नागादित्य ने सहमति में सिर हिलाया, “कुछ करता हूँ जिससे हमें सत्य का ज्ञान भी हो जाये और भाभीश्री का आत्मसम्मान भी आहत न हो।”

तभी अकस्मात ही कक्ष के द्वार पर किसी के खटखटाने का स्वर सुनाई दिया।

“इस समय कौन आ गया?” नागादित्य ने बाहर निकल द्वार को खोला तो अपने समक्ष एक काला कंबल ओढ़े व्यक्ति को खड़ा पाया।

जैसे ही उस व्यक्ति ने स्वयं पर ढका कंबल हटाया, नागादित्य अवाक रह गया। वो कोई और नहीं स्वयं शिवादित्य था, “ज्येष्ठ, आप यहाँ?”

******

अपने कक्ष में अकेली बैठी शत्रुपा ने पहले भोजन किया और सभी को कठोर आदेश दिया कि कोई उसके कक्ष में प्रवेश ना करे। कुछ समय उपरान्त जब ये सुनिश्चित हो गया कि उसके कक्ष में कोई प्रवेश नहीं करेगा, तो वो रोशनदान के पास गई जहाँ पहले से ही एक रस्सी लटक रही थी। नीचे की ओर देखा तो पाया एक मेवाड़ी सैनिक वो रस्सी पकड़े खड़ा शत्रुपा की ही प्रतीक्षा कर रहा था। उस रस्सी के सहारे शीघ्र ही शत्रुपा भूमि पर उतरी और उस सैनिक के साथ चल दी।

मध्यरात्रि के समय खण्डहर में मेवाड़ नरेश मानमोरी बड़ी व्यग्रता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वहाँ पहुँचते ही शत्रुपा ने अपना सर झुकाया, “हमें स्मरण करने का कोई विशेष उद्देश्य महाराज ?”

कुपित हुय मानमोरी ने पलटकर उसकी ओर देखा, “मैं तुमसे बस एक प्रश्न करूँगा, शत्रुपा। कहाँ है तुम्हारा पति शिवादित्य?”

शत्रुपा सकपका गयी, “अर्थात? ये आप कैसा प्रश्न कर रहे हैं ? उनका शव तो.....।”

“क्या लगता है तुम्हें? तुम पर दृष्टि रखने के लिए भेजे गये मेरे ही एक योद्धा को शिवादित्य के शव का रूप देकर तुम मुझे मूर्ख बना सकती हो?”

मानमोरी के नेत्रों का क्रोध देख शत्रुपा घबरा गयी। क्रोधित मानमोरी ने उसके नेत्रों में देखा, “सत्य बताओ शत्रुपा, अन्यथा तुम्हारे साथ तुम्हारा कोई भी सम्बन्धी जीवित नहीं बचेगा।”

“विचलित हुई शत्रुपा ने मानमोरी के चरण पकड़ लिए, “क्षमा महाराज, क्षमा। मैं अपने पति से बहुत प्रेम करती हूँ, उनके प्राण न लिए गये मुझसे।”

चिढ़ते हुए मानमोरी की इच्छा हुई, कि वो वहीं शत्रुपा का गला दबा दे। किन्तु फिर भी उन्होंने धैर्य से काम लेना उचित समझा, “मुझे पूरी बात बताओ, शत्रुपा।” शत्रुपा ने उठकर अपने अश्रु पोछे और आगे कहा,

“आपकी योजनानुसार हमने राजकुमार जयसिम्हा पर झूठा आरोप लगाया कि उन्होंने हमारा शील भंग करने का प्रयास किया था। जिसके कारण हमारे पति द्वारा उनका वध हुआ और वो चालुक्यनगरी से निष्काषित कर दिये गये।”

“और आगे की योजना ये थी कि तुम चालुक्यनगरी छोड़ते समय मार्ग में ही अवसर पाकर शिवादित्य को मूर्छा का द्रव्य दोगी, और उसके उपरान्त हमारे गुप्तचर शिवादित्य के शरीर को इतने घावों से भर देंगे कि यही लगे कि कई लोगों ने मिलकर उसकी हत्या की है। फिर उसे यहाँ नागदा में पहुँचायेंगे। हमारे एक गुप्तचर ने तो चालुक्यों की राजसी स्याही भी चुराई ताकि वो बादामी की प्रजा की ओर से संदेशपत्र भेज सके जिससे नागादित्य की दृष्टि में ये सिद्ध हो जाये कि चालुक्यों ने ही शिवादित्य की हत्या की है। फिर उसके आगे क्या हुआ, ये बताओ।”

“आगे यही हुआ कि आपकी समस्त योजना मिट्टी में मिल गयी।” वो कठोर स्वर सुन मेवाड़ नरेश पीछे की ओर मुड़े। नागादित्य क्रोध में भरकर उन्हें घूरे जा रहा था।

शीघ्र ही शिवादित्य भी उसके साथ आ खड़ा हुआ, “अच्छा हुआ जो तुम स्वयं यहाँ आ गये, मानमोरी। अपनी योजना के प्रति कुछ अधिक ही आत्मविश्वास था तुम्हें, जो स्वयं यहाँ सिंह की माँद में चले आये।”

अचम्भित हुए मेवाड़ नरेश कुछ पग पीछे हटे। तभी पीछे से भीलराज बलेऊ भी वहाँ आ पहुँचे और अपनी तलवार मानमोरी के पीठ पर टिकाई, “इतनी शीघ्रता क्या है, मेवाड़ नरेश? वर्षों के उपरान्त यहाँ आये हो, तनिक हमें भी आवभगत का अवसर दो।”

मानमोरी ने क्रोध में शत्रुपा की ओर देखा, “अब तुम्हारे पिता को यम भी नहीं बचा सकते। उनका मस्तक काटकर चित्तौड़ के किले पर लटकाऊँगा मैं।”

“वो तो तुम तब करोगे न जब तुम यहाँ से जीवित लौट पाओगे।” कहते हुए शिवादित्य शत्रुपा के निकट आया और मानमोरी को संबोधित करते हुए कहा, “तुम्हारी योजना सफल होने को थी मानमोरी। मेरे रसपात्र में शत्रुपा ने मूर्छा की औषधि मिला दी थी। किन्तु एन समय पर उसके मन में छिपा प्रेम जाग गया और उसने स्वयं ही मेरे मुख से वो पात्र छीनकर फेंक दिया। फिर अश्रु बहाते हुए उसने मुझे सम्पूर्ण सत्य से अवगत कराया, जिसके उपरान्त मैं स्वयं मूर्छा का अभिनय कर लेट गया। फिर तुम्हारे गुप्तचर मुझे वहाँ से अपहृत करके अपने डेरे पर ले गये, जहाँ मेरे योद्धाओं ने उन्हें घेरकर एक-एक करके यमसदन पहुँचा दिया। फिर तुम्हारे ही एक योद्धा को अपना रूप देकर मैंने अपने कारवां के साथ नागदा भेज दिया।”

मानमोरी ने पुनः शत्रुपा की ओर देखा, “इतने समय तक केवल तुम्हारे विश्वास पर तुम्हारे पिता नास्तिदमन ने मेरी सेवा की है। भूल गयी कि वर्षों पूर्व हुए पल्लवों और चालुक्यों के मध्य हुए युद्ध में तुम्हारे परिवार के कितने लोगों की बलि चढ़ी थी। और इसके उपरान्त भी तुम चालुक्यों के समर्थन में आ गयी?”

“क्या करूँ महाराज ? जिस पुरुष ने मेरे एक असत्य पर बिना संकोच किये चालुक्य राजकुमार का वध करके अपनी वर्षों की प्रतिष्ठा को कलंकित किया, उससे और छल नहीं किया गया मुझसे।” ग्लानि भरे नेत्रों से उसने शिवादित्य की ओर देखा, “जानती हूँ, मेरा अपराध अक्षम्य है। किन्तु मैं स्वयं चालुक्यराज के पास जाकर उनसे दण्ड की कामना करूँगी, क्योंकि उनके पुत्र की वास्तविक हत्यारन तो मैं ही हूँ।”

उसके नेत्रों का पश्चताप देख क्षणभर को शिवादित्य भी भावुक हो गया। किन्तु शीघ्र ही उसने अपनी भावनाओं को नियंत्रित करते हुए अपनी दृष्टि घुमा ली और म्यान से तलवार निकाल मानमोरी की ओर बढ़ायी।

मानमोरी ने नागादित्य की ओर देखा, “मैं आपका नरेश नागादित्य। आप इस प्रकार मुझे संकट में देखकर मौन कैसे रह सकते हैं? मैं आपका अतिथि हूँ, और मेरी रक्षा आपका कर्तव्य है।”

मुस्कुराते हुए नागादित्य ने शिवादित्य का हाथ रोकते हुए मानमोरी पर कटाक्ष किया, “आपने ये सारी योजना बनाई, केवल और केवल मुझे चालुक्यों के विरुद्ध भड़काने के लिए। किन्तु आप चाहें कितनी भी योजना बना लेते मैं चालुक्यों के विरुद्ध कभी नहीं जाता और यदि आपकी योजना सफल भी होती। तो भी, अंत में पराजय आपकी ही होती। क्योंकि मैं तो नागदा का सिंहासन स्वीकारने से पूर्व ही चालुक्यराज विन्यादित्य को ये वचन देकर आया था कि संसार की कोई भी सेना यदि चालुक्यों के सामने आएगी तो मैं चालुक्यों का ही समर्थन करूँगा।” 

यह सुन मानमोरी का मस्तक से लेकर नाखून तक जल गया, “छल, छल है ये। छल किया तुमने मेरे साथ। मैंने तुम्हें नागदा का ये राज्य दिया..”

“दान में नहीं दिया आपने नागदा का ये राज्य। मातृभूमि थी ये हमारी और एक प्रकार से मेरे आने से पहले स्वतंत्र ही थी। इसलिए आप जानते थे केवल मैं ही इसे आपके शासन में जोड़ सकता हूँ। पहले तो आपको यहाँ से एक पाई का कर भी प्राप्त नहीं होता था। मैंने इस राज्य को बनाया है, यहाँ की प्रजा अब केवल मेरी है। तुमने मेरे भाई की हत्या का प्रयास कर नागदा और चालुक्यों में फूट डालने का प्रयास किया है, मानमोरी। इसलिए आज इसी क्षण से मैं नागदा को एक स्वतंत्र राज्य घोषित करता हूँ।”

मानमोरी ने मुट्ठियाँ भींचते हुए नागदा नरेश को घूरा, “इसका परिणाम उचित नहीं होगा, नागदा नरेश।” शिवादित्य ने तलवार संभाली और एंठते हुए कहा, “अद्भुत मेवाड़ नरेश, स्वयं के जीवन के कुछ क्षण ही शेष बचे हैं, और उसे भी गीदड़ भभकियाँ देने में व्यर्थ कर रहे हो।” वो तलवार संभाले आगे बढ़ा किन्तु नागादित्य ने उसे रोकते हुए कहा, “अतिथि पर प्रहार नहीं किया जा सकता, ज्येष्ठ।”

 यह सुन शिवादित्य की भौहें तन गयीं, “इस अपराधी को तुम अतिथि कैसे कह सकते हो? तुम्हें दिखा नहीं इसने तुम्हें छलने के लिए मुझ पर एक निर्दोष बालक की हत्या का कलंक लगा दिया। ये मेरा भी अपराधी है, नागादित्य।” 

“फिर भी मेवाड़ नरेश नागदा में अतिथि बनकर आया है। इस समय यदि इनकी हत्या कर दी गयी तो उससे बड़ा कोई महापाप नहीं होगा।”

शिवादित्य ने खीजते हुए कहा, “तुम समझ नहीं रहे हो, नागादित्य। यदि ये दुष्ट मेवाड़ वापस लौट गया तो शत्रुपा के पिता नास्तिदमन की भी हत्या कर देगा।”

“ये प्रसंग उत्पन्न ही नहीं होगा।” नागादित्य ने मुस्कुराते हुए मानमोरी पर कटाक्ष किया, “मेवाड़ में संदेश भेजिए, महाराज मानमोरी। जब तक भाभीश्री के पिता सुरक्षित नागदा नहीं पहुँचते आप हमारे अतिथि बनकर ही रहेंगे।” 

मानमोरी का क्रोध भी उनके सर चढ़कर बोल रहा था, “स्मरण रहे, नागादित्य। जिस क्षण मैं चित्तौड़ पहुँचा, सेना लेकर नागदा आऊँगा और तुम्हारी इस मातृभूमि को शमशान बना दूँगा।”

“ये भी उचित है, प्रयास करके देख लीजिए।”

नागादित्य चलकर मानमोरी के निकट आया, “किन्तु स्मरण रखिएगा महाराज मानमोरी, कि मेवाड़ के अधिकतम युवक मेरे विश्वास पर आपकी सेना में भर्ती हुए हैं। तो आप स्वयं विचार कीजिएगा कि यदि युद्ध का प्रसंग उत्पन्न हुआ तो कौन किसका समर्थन करेगा।”

तर्क तो नागादित्य का उचित था, जिसे सुनकर मानमोरी भी विचलित हो गया। नागादित्य ने चेतावनी देते हुए कहा, “अब आप यहाँ से तभी जा पायेंगे जब आप नागदा की स्वतंत्रता के पत्र पर हस्ताक्षर करेंगे, और भाभी श्री शत्रुपा के पिता को ससम्मान नागदा में लाया जाएगा।” नागादित्य ने मानमोरी को भीतर चलने का संकेत दिया, “अब आप सम्मान सहित अतिथि बनकर रहेंगे या अपमानित होकर कारागार में जायेंगे, इसका चुनाव मैं आप पर छोड़ता हूँ। ”

परिस्थितियों को अपने विपरीत हुआ देख मानमोरी ने किसी प्रकार अपने क्रोध को नियंत्रित कर सहयोग करने का संकेत दिया।

“सेनापति विष्यन्त।” नागदा नरेश की पुकार पर विष्यन्त वहाँ उपस्थित हुआ। नागादित्य उसकी ओर मुड़ा, “मेवाड़ नरेश को सम्मान सहित उसी अतिथी गृह में ले जाओ जहाँ वो निवास कर रहे थे। किन्तु इस बार वहाँ उनकी सुरक्षा के लिये चित्तौड़ से आये सैनिक नहीं, अपितु हमारे योद्धा होंगे। स्मरण रहे हमारी आज्ञा के बिना मेवाड़ नरेश अपने कक्ष से बाहर न आयें।”

“जो आज्ञा, महाराज।” सर झुकाकर विष्यन्त आगे आया और मानमोरी को अपने साथ आने का संकेत दिया। लहू का घूँट पिए मानमोरी विष्यन्त के साथ चल पड़ा। शीघ्र ही वो दोनों अतिथि महल में पहुँचे। मानमोरी सीधा आकर वहाँ रखी शय्या पर बैठ गया। विष्यन्त ने उन्हे प्रणाम किया और कक्ष का द्वार बंद करने को ही था कि मानमोरी ने उसे पुकारा, “इतनी शीघ्रता क्या है, सेनापति विष्यन्त ? आ ही गये हो तो कुछ समय इस अतिथि से भी वार्ता कर लो। तुम्हारे नेत्रों में तो आज भी मुझे असंतोष ही दिखाई देता है।”

“क्ष..क्षमा करें, महाराज। किन्तु मुझे इसकी आज्ञा नहीं है।

“अद्भुत, इतने वर्षों नागदा की सेवा करने वाला विष्यन्त नागादित्य के सिंहासन पर विराजते ही दास बन गया, हम्म?”

 “अह, मुझे, मुझे चलना चाहिए। आज्ञा दें।” हिचकिचाता हुआ द्वार का कक्ष बंद कर विषष्यन्त वहाँ से प्रस्थान कर गया।

मानमोरी ने मुट्ठियाँ भींचते हुए कक्ष में रखी शय्या को ही उठाकर पटक दिया, “ये अपमान मैं भूलूँगा नहीं, नागादित्य।”

******

शीघ्र ही वो दिन आया जब चित्तौड़ से शत्रुपा के पिता पल्लव सामंत नास्तिदमन को ससम्मान नागदा पहुँचा दिया गया। मानमोरी ने भी नागदा को स्वतंत्र राज्य घोषित किया और अपमान का घूँट पीकर चित्तौड़ लौट गये।

समग्र नागदा को दुल्हन की भाँति सजाया गया। भील समेत अनेकों नागदावासियों ने महोत्सव की तैयारी की और उसका आनंद लेने लगे। महाराज नागादित्य भी अपने परिवार के साथ भीलों के महादेव के भव्य मन्दिर की ओर गये और वहाँ दर्शन किये।

शिव शंभू के दर्शनों के उपरान्त नागादित्य ने मन्दिर ने बाहर आकर शिवादित्य से प्रश्न किया, “अब तो नागदा स्वतंत्र हो चुका है, ज्येष्ठ। अब अपने परिवारजनों के साथ रहने में तो आपको कोई आपत्ति तो नहीं होनी चाहिए।”

शिवादित्य श्वास भरते हुए मुस्कुराया, “मेरी कर्मभूमि चालुक्यनगरी ही है, अनुज । और अपनी उस कर्मभूमि का त्याग करना इस जन्म में तो सम्भव नहीं।”

“किन्तु चालुक्यराज ने तो आपको निष्काषित कर दिया है।”

“अज्ञानतावश ही सही किन्तु मुझसे जघन्य पाप हुआ है। मेरी एक भूल के कारण राजकुमार जयसिम्हा की छवि सम्पूर्ण बादामी में कलंकित होकर रह गयी है। उस वीर बालक को उसका सम्मान लौटाने के लिए मुझे चालुक्यनगरी जाकर महाराज विन्यादित्य के समक्ष समर्पण करके उन्हें सम्पूर्ण सत्य से अवगत कराना होगा। फिर चाहें वो मुझे और शत्रुपा को जो दण्ड दें, मुझे स्वीकार होगा। अपने पापों का प्रायश्चित किये बिना मेरे लिए इस जीवन की डोर संभाले रखना सम्भव नहीं।” 

नागादित्य ने अपने ज्येष्ठ के कंधे पर हाथ रख सहमति जताई, “मैं आपकी दुविधा समझ सकता हूँ, ज्येष्ठ। आप निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन कीजिए।” “वैसे तुम्हारी आगे की क्या योजना है?”

“मृणालिनी तो कबसे कहे जा रही है अमरनाथ धाम की यात्रा पर जाने के लिये। इस वर्ष योजना भी बनाई थी। एक बार नए और स्वतंत्र नागदा की सुरक्षा सुनिश्चित कर लूँ, फिर शीघ्र ही अपनी पत्नी की उस इच्छा को भी पूर्ण कर लूँगा।”

शिवादित्य ने अपने अनुज की पीठ थपथपाई, “तुम अपना कर्तव्य निभाओ। मुझे तो अब चालुक्यराज का सामना करना है। कल सूर्य की पहली किरण के साथ ही शत्रुपा और अपने तीन सौ योद्धाओं को लेकर मुझे यहाँ से प्रस्थान करना होगा।”

******

अगले दिन प्रातः काल ही शिवादित्य अपने कारवां के साथ महिष्कपुर प्रस्थान कर गये। एक सप्ताह बीता, इधर नागादित्य अपनी सुरक्षा व्यवस्था शक्तिशाली बनाने में व्यस्त रहे, वहीं शिवादित्य अपने कारवां सहित बादामी पहुँचे। मुख्यद्वार पर पहुँचकर शिवादित्य ने द्वारपाल से प्रश्न किया, “हमने महाराज को एक संदेश भेजा था, कि हम बस एक बार उनसे भेंट करना चाहते हैं। क्या उत्तर है उनका?”

द्वारपाल ने किनारे हटकर शिवादित्य को मार्ग दिखाया, “वो राजसभा में आपकी प्रतीक्षा में है।”

शिवादित्य ने अपने साथ आये शत्रुपा और नास्तिदमन की ओर देखा, “केवल आप दोनों मेरे साथ आईये।”

शीघ्र ही शिवादित्य अपनी पत्नी शत्रुपा और श्वसुर नास्तिदमन के साथ राजसभा में उपस्थित हुआ।

उसे देख क्षणभर को विन्यादित्य को क्रोध भी आया, किन्तु गुरु विक्रमादित्य ने उसे धैर्य धारण करने का संकेत दिया। अपने सिंहासन पर हाथ फेर चालुक्यराज ने अपने क्रोध को नियंत्रित कर शिवादित्य की ओर देखा, “कहो, क्या कहना चाहते हो?”

“हम तीनों अपना अपराध स्वीकार करने आये हैं, महाराज। ताकि आपके पुत्र स्वर्गीय राजकुमार जयसिम्हा के चरित्र पर लगा दाग सदैव के लिए मिटाया जा सके। ताकि इतिहास उन्हें एक वासनालिप्त असुर के रूप में स्मरण ना रखे।”

चालुक्यराज और गुरु विक्रमादित्य दोनों ने आश्चर्यभाव से एक-दूसरे की ओर देखा। चालुक्यराज ने प्रश्न किया, “किन्तु तुमने पहले तो कुछ और ही कहा था। अब अकस्मात ऐसा क्या हो गया?”

“मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गयी थी, महाराज। वास्तविकता मुझे मेवाड़ में जाकर ज्ञात हुयी।” कहते हुए शिवादित्य ने मानमोरी और पल्लवों के साथ मिलकर किया गया षड्यन्त्र कह सुनाया। उस ब्यौरे को सुनते हुए चालुक्यराज के साथ गुरु विक्रमादित्य की नसें भी क्रोध से तनती गईं।

विन्यादित्य की मुट्ठियाँ क्रोध से भिंच गयीं, “तो बहुत से पल्लव वर्षों से यहाँ रहकर मेवाड़ की चाटुकारिता कर रहे हैं?” चालुक्यराज स्वयं पर से नियंत्रण खोकर सिंहासन से नीचे आये और सीधा नास्तिदमन का जबड़ा पकड़ लिया, “बताओ और ऐसे कितने पल्लव हैं जो हमारे विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहे हैं?”

“अधीर मत होईये, महाराज।” गुरु विक्रमादित्य अपने आसन से उतरकर चालुक्यराज के निकट आये और उनका हाथ थामा, “अपने वीर पुत्र की मृत्यु का अपमान न कीजिए। इस समय आप एक पिता नहीं है, एक राजा की भाँति व्यवहार कीजिए और सिंहासन आसीन होकर इन अपराधियों को उनके कर्मों का दण्ड दीजिए।”

विन्यादित्य ने अपने नेत्रों को मूंदकर स्वयं को नियंत्रित करने का प्रयास किया और पुनः जाकर सिंहासन पर बैठ गये। अपनी तलवार पर हाथ फेरते हुए विन्यादित्य ने नास्तिदमन की ओर देखा, “तुम पहले कांचीपुरम से यहाँ हमारे राज्य में आये, फिर एक वर्ष पूर्व मेवाड़ चले गये, क्यों?”

“तीन वर्ष पूर्व मेरी पुत्री ने एक उद्देश्य के लिए सामंत शिवादित्य से विवाह किया था, महाराज। हमारा उद्देश्य था कि शिवादित्य की हत्या कर हम नागदा नरेश नागादित्य को चालुक्यों के विरुद्ध खड़ा कर देंगे। किन्तु जब मुझे संकेत दिखने लगा कि मेरी पुत्री शत्रुपा को वास्तव में शिवादित्य से लगाव होने लगा है, तब मैंने मेवाड़ जाकर महाराज मानमोरी के राज्य में शरण ली। पूरा षड्यन्त्र मेवाड़ नरेश का ही था, योजना ये थी कि यदि शत्रुपा कभी अपने उद्देश्य से भटकी तो मेरे प्राण लेने का भय दिखाकर उसे विवश किया जा सके।”

“अद्भुत योजना बनाई उस मानमोरी ने। परमारों के स्वर्णिम इतिहास को कलंकित करके रख दिया। हमारे निर्दोष पुत्र को अपनी योजना का आखेट बनाया।” क्रोध में दांत पीसते हुए विन्यादित्य ने आदेश सुनाया, “इस नास्तिदमन को बेड़ियों से लादकर कालकोठरी में फिंकवा दिया जाये, और तब तक प्रताड़ित किया जाए जब तक ये पल्लवों के भेष में छुपे सभी द्रोहियों का पता नहीं बता देता।”

चालुक्यराज के आदेश पर सैनिकों ने नास्तिदमन को बेड़ियों से लादा और उसे घसीटकर सभा से बाहर ले गये। उसके जाने के उपरान्त चालुक्यराज ने शिवादित्य की ओर देखा, “तुमने वही किया जो कोई भी स्वाभिमानी पुरुष करता, शिवादित्य। तुम हमारे अनुज समान भी हो, किन्तु हम तुम्हारी पत्नी शत्रुपा को क्षमा नहीं कर सकते।”

विन्यादित्य की दृष्टि शिवादित्य की पत्नी की ओर गयी, “वैसे भी शत्रुपा ने जो घृणित कार्य किया है, उसके उपरान्त वो स्वयं से भी दृष्टि नहीं मिलाएगी। ना ही समाज में कोई उसे सम्मान की दृष्टि से देखेगा। वो जहाँ भी जाएगी उपेक्षा का शिकार ही होगी।”

शिवादित्य ने क्षणभर के लिए शत्रुपा की ओर देखा, “आपका हर निर्णय मुझे स्वीकार होगा, महाराज।”

तत्पश्चात चालुक्यराज ने निर्णय सुनाया, “तुम्हारा अब सामंत शिवादित्य से कोई सम्बन्ध नहीं होगा, शत्रुपा। तुमने छल से अपने पति द्वारा एक निर्दोष बालक की हत्या करवाकर पतिव्रत धर्म पर कलंक लगाया है, इसलिए हम तुम्हें शिवादित्य से सम्बन्ध विच्छेद करने का दण्ड देते हैं, और साथ में तुम्हें आजीवन कारावास का दण्ड भी दिया जाता है। दक्षिण में स्त्रियों का एक विशेष कारावास है, जहाँ की रक्षा भी मूलतः स्त्री योद्धा ही करती हैं। वहाँ निवास कर रही अपराधी स्त्रियों का एक दल है जो साँसारिक सम्बन्धों से दूर रहकर विभिन्न ऋतुओं के अनुसार फलों के उत्पादन के साथ-साथ गौ पालन के कार्य में भी सहायता करती हैं। अब तुम्हें अपना सम्पूर्ण जीवन उसी कारावास में बिताना होगा। हमारे सैनिक तुम्हें वहाँ तक छोड़ आयेंगे।” कहते हुए चालुक्यराज ने अपने सैनिकों को संकेत किया कि वो शत्रुपा को सभा से ले जायें।

तत्पश्चात महाराज विन्यादित्य सिंहासन से उतरकर शिवादित्य के निकट आए, “जानता हूँ अपनी भार्या का त्याग करना सरल नहीं होगा। किन्तु....”

“जो हुआ न्यायसंगत था, महाराज।” श्वास भरते हुए भी शिवादित्य के नेत्र नम हो गये, “शत्रुपा ने बहुत बड़ा अपराध किया था, और उसे मिला दण्ड ही राजकुमार जयसिम्हा की छवि पर लगे हुए कलंक का मैल मिटा सकता था।”

गुरु विक्रमादित्य भी अपने आसन से उतरकर शिवादित्य के निकट आए, “उचित यही होगा कि हम बीती बातें भूलकर नए सिरे से आरम्भ करें।”

“निसन्देह पिताश्री।” विन्यादित्य ने सहमति जताई, “इसलिए मैं आज और इसी क्षण से तुम्हारा निष्कासन निषिद्ध घोषित करता हूँ, सामंत शिवादित्य।”

यह निर्णय सुन शिवादित्य गदगद हो उठा, “धन्यवाद, महाराज। अब बताईये मेरे लिए क्या आदेश है?”

“पल्लव सेना यहाँ तीन और वर्ष तक निवास करने वाली है। हमें शीघ्र से शीघ्र उनमें छुपे उन लोगों को ढूँढना होगा जो हमारे विद्रोही हैं, और जो हमारे समर्थन में हैं उन्हें एकत्र करो। चूंकि अब नागदा भी स्वतंत्र हो चुका है, तो जैसे ही विद्रोहियों को समाप्त करने का कार्य सम्पन्न हो जाये, अपने अनुज नागादित्य को भी हमारा समर्थन करने का प्रस्ताव भेजो। हमारी सम्पूर्ण सेना मिलकर चित्तौड़ पर आक्रमण करेगी। बहुत अभयदान दे दिया मेवाड़ नरेश को, अब उन्हें हमारे पुत्र की हत्या का षड्यन्त्र रचने का दण्ड भोगना ही होगा।”

******

चित्तौड़ लौटकर मानमोरी को उनके ही महल की दीवारें काटने को दौड़ने लगीं। किले की हर ईंट में उन्हें अपने अपमान के स्वर सुनाई देने लगे। अपने मन को शांत करने के लिए वो वन विहार पर निकले। वन में अपने मुट्ठीभर सैनिकों के साथ उन्होंने पड़ाव डाला और दिनभर शिकार में संलग्न रहने के उपरान्त रात्रि में वो अपने शिविर लौटे और स्वयं ही शिकार किये एक मृग को अग्नि पर भूनने लगे।

 तीन हाथ लम्बी लोहे की छड़ पर बंधे मृग को भूनते हुए भी मानमोरी की भौहें क्रोध से तनी हुई थीं। वो बार-बार उस मृत हिरण को ऐसे घुमा रहे थे मानों उस निर्जीव पशु के अतिरिक्त अपना क्रोध उतारने के लिए उनके पास और कोई साधन ही ना हो। कुछ ही क्षणों उपरान्त अश्वों के पदचाप के स्वर ने सबको सतर्क कर दिया।

अकस्मात ही अग्नि की लौ मानमोरी के अंगूठे को छू गयी, उससे अपना हाथ झटकारते हुए मानमोरी ने अश्व पर चले आ रहे काली चादर ओढ़े एक व्यक्ति की ओर देखा। उसे देखते ही सैनिकों ने भाले लेकर उसे घेर लिया। उस व्यक्ति ने स्वयं पर ढकी चादर हटाई, और उसे देख मानों मानमोरी का सारा क्रोध मिट सा गया। उन्होंने अपना अंगूठा मुँह में चूस उसकी जलन शांत करने का प्रयास किया, “कभी-कभी कुछ पीड़ायें भी सुख का संकेत लेकर आती हैं।” मानमोरी ने सैनिकों को उस अश्वारोही से दूर रहने का संकेत दिया और उसके निकट गये, “ ज्ञात था मुझे, तुम कभी न कभी हमारी शरण में अवश्य आओगे, सेनापति विष्यन्त।”

विष्यन्त अपने अश्व से उतरकर मानमोरी के निकट आया, “ये अनुमान तो आपने वर्षों पूर्व ही लगा लिया था कि नागादित्य का नागदा के सिंहासन पर बैठना मुझे स्वीकार नहीं है।”

“जानता था तुम्हारी दृष्टि आरम्भ से ही उस सिंहासन पर रही है। किन्तु तुम्हें ऐसा क्यों लगता है मैं तुम्हारी कोई सहायता करूँगा?”

“क्योंकि आवश्यकता भी हम दोनों की है, और लाभ भी हमारा है।”

मेवाड़ नरेश ने कुछ क्षण विष्यन्त को घूरकर देखा फिर हाथ उठाकर सैनिकों को वो स्थान खाली करने का संकेत दिया। उन सभी के जाने के उपरान्त मानमोरी भुनते हुए मृग के निकट गये, एक कटार निकाली और उसके हाथ से माँस का टुकड़ा निकालकर अपने मुख में डाला, “पता है विष्यन्त, राजा महाराजाओं का सबसे प्रिय आखेट हिरण ही क्यों रहा है ? उसका कारण है उसमें पायी जाने वाली कस्तूरी, जो उसे दूसरों से अलग और कहीं अधिक बहुमूल्य बनाती है। किन्तु यदि वो कस्तूरी उसके शरीर से निकल जाए तो वो केवल भोजन का ग्रास बनकर रह जाता है। तो यदि तुम्हारे पास भी कोई ऐसा प्रस्ताव है जो तुम्हें मेरी दृष्टि में बहूमूल्य बनाए तो कहो। अन्यथा तुम्हारा स्थान क्या होगा ये मुझे बताने की जरूरत नहीं है।” कहते हुए मानमोरी ने हिरण के माँस का एक और निवाला अपने मुख में डाला, “जीवन के चालीस से अधिक बसंत देख चुका हूँ, तो मुझे मूर्ख बनाने का प्रयास तो ना करना।”

“मैं ऐसी कोई मूर्खता करने नहीं आया, महाराज। कुछ ऐसा प्रसंग उत्पन्न हुआ है जिसका मैं लाभ उठा सकता हूँ। और यदि आपने मेरा समर्थन नहीं किया, तो आपके राज्य को बहुत भारी क्षति उठानी पड़ेगी।”

“हम्म।” मानमोरी ने अपने निकट रखे आसन की ओर संकेत करते हुए कहा, “आ जाओ, पहले साथ में इस कस्तूरी धारक का आनंद लेते हैं।”

मानमोरी का संकेत पाकर विष्यन्त उनके निकट के आसन पर बैठा, “चालुक्यराज को आपके समस्त षड्यंत्रों का ज्ञान हो गया है और आपके पल्लव गुप्तचरों को धीरेधीरे ढूंढकर समाप्त किया जा रहा है। सूचना है कि शीघ्र ही लाखों की सेना चित्तौड़ पर चढ़ाई करने आएगी।”

“इस संभावना को तो मैंने कभी नकारा ही नहीं था। पुत्र की मृत्यु हुई है उनकी। अब सिंह अपने शावक को धाराशायी हुआ देख मौन तो नहीं बैठेगा। किन्तु चित्तौड़ का किला इतना दुर्बल नहीं जो उन चालुक्यों के आगे ढह जाये। तुम कुछ ऐसा बताओ जो मुझे ज्ञात ना हो।”

“आप नागादित्य की प्रतिज्ञा भूल रहे हैं, महाराज। संसार में यदि कोई भी सेना चालुक्यों के समक्ष आएगी तो नागादित्य अर्थात नागदा की समस्त सेना चालुक्यों का ही समर्थन करेगी। और आप तो जानते ही हैं कि आपकी सेना के भी कितने नवयुवक नागादित्य के विश्वास पर ही मेवाड़ी सेना का भाग बने हैं। सूचना है कि चालुक्यनगरी में उपस्थित आपके समस्त गुप्तचरों के नाश के उपरान्त, सामंत शिवादित्य स्वयं अपने अनुज के पास इस युद्ध में भाग लेने का प्रस्ताव लेकर आयेंगे। तो अब आप ही बताईये कि यदि नागादित्य युद्ध में उतरा, तो आपकी सेना के कितने योद्धा मन से आपके पक्ष में होंगे?” कहते हुए विष्यन्त ने हिरण के माँस का टुकड़ा काटकर अपने मुख में डाला।

“तो इसका सीधा सा अर्थ ये है कि नागादित्य का जीवन मेरे लिए भी संकटकारी है, और तुम्हारे लक्ष्य का सबसे बड़ा अवरोध भी है, हम्म ?”

“निसन्देह महाराज। शीघ्र ही वो अपने परिवार सहित अमरनाथ की यात्रा की ओर निकलने वाले हैं। यदि आप सहायता करें तो नागदा नरेश वहाँ से वापस नहीं लौटेंगे। और चिंता मत करिए, आपकी बहन और उनके पुत्र कालभोज को कुछ नहीं होगा, इसका विश्वास मैं दिलाता हूँ।”

“और फिर तुम्हें नागदा का सिंहासन मिल जाएगा, क्यों?”

“इस बार मैं नागदा पर आपका प्रतिनिधि बनकर ही शासन करूँगा।”

“वाह।” मानमोरी ने माँस का एक और ग्रास लिया, “तुमने वर्षों तक नागदा में मेरे कई प्रतिनिधियों, सेनानियों और न जाने कितने सैनिकों की हत्या की। और जब पहली बार तुम मेरी सभा में आए थे मुझे तुम्हारे विषय में सबकुछ बता दिया गया था, फिर भी मैंने तुम्हें अपनी सभा से जीवित जाने दिया। केवल इसलिए क्योंकि मैंने तुम्हारे नेत्रों में असंतोष देखा था, तुम एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो नागदा में नागादित्य के शासन से प्रसन्न नहीं था। और मुझे ये भी अनुमान था कि वो गुहिलवंशी कभी न कभी मुझसे विद्रोह अवश्य करेगा। ऐसे समय में तुम्हीं मेरे लिए सबसे उपयोगी सिद्ध हो सकते हो। आखिर इतनी सफाई और चतुराई से तुमने पाँच वर्षों तक नागदा में अनेकों शव गिराए और एक प्रकार से उसे स्वतंत्र ही रखा। किन्तु इस बार जो नागादित्य को तीर्थयात्रा पर घेरकर मारने की योजना तुमने बनाई है उससे हमें कोई लाभ नहीं होगा।”

“तो आपकी इच्छा क्या है?” “पहले ये बताओ कि भीलों का तुम्हारे जीवन में क्या महत्व है ?”

“पहले वो मेरे मित्र थे। किन्तु जबसे नागादित्य का शासन स्थापित हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे उनके लिए मेरा तो कोई अस्तित्व ही नहीं रहा।”

“वो तो होना ही था, भीलों और गुहिलों का सम्बन्ध सदियों से घनिष्ठ रहा है। किन्तु हमें इसी सम्बन्ध का विच्छेद करना है। और स्मरण रहे कि योजना के बीच में ऐसा न हो कि भीलों के प्रति तुम्हारा प्रेम उमड़ आए।”

“मुझे भीलों से कोई प्रेम नहीं है, महाराज। किन्तु मैं योजना को समझा नहीं।” 

“नागादित्य को वर्षों से नागदा की प्रजा अपना रक्षक मानती आई है, किन्तु उसे एक भक्षक की मृत्यु मिलेगी। वैसे ये बताओ तुम्हारे अपने परिवार में कितने सदस्य हैं?” “मेरी माता हैं और पत्नी के साथ दो बच्चे।”

“हम्म, तो अपनी माता को चित्तौड़ के किले में भेज दो। वो वहाँ सुरक्षित रहेंगी। जिस दिन तुम नागदा के सिंहासन पर विराजोगे, वो तुम्हारे पास लौट आयेंगी।” मानमोरी के उस अटपटे प्रस्ताव को सुन विष्यन्त को थोड़ा आश्चर्य हुआ, “आपको मुझ पर विश्वास नहीं है?”

“तुम जैसों के प्रति विश्वास की डोर बड़ी पतली होती है, विष्यन्त। यदि तुम्हें नागदा का सिंहासन चाहिए तो माता को दांव पर लगाना होगा। और चिंता मत करो, ये बस इस बात को सुनिश्चित करेगा कि यदि तुम पकड़े भी जाओ और हमारी योजना में कोई त्रुटि रह जाए तो तुम हमारा नाम ना लो, अपितु पूरा आरोप अपने सर ले लो। क्या है न कि बहुत से षड्यंत्रों का कलंक पहले ही लग चुका है मुझ पर तो, इस बार मैं अपनी छवि खराब नहीं करना चाहता। 

कुछ क्षण विचार कर विष्यन्त ने सहमति जताई, “स्वीकार है।” 

“उचित है।” कहते हुए मानमोरी ने कटार लेकर हिरण की पसलियाँ काटकर एक और निवाला चखा, “तो फिर अपने महाराज नागादित्य से विनती करो, और अपनी पत्नी और बच्चों को उन्हीं के साथ अमरनाथ धाम की यात्रा करने भेज दो।” कहते हुए मेवाड़ नरेश ने विष्यन्त को अपनी योजना समझानी आरम्भ की।

योजना सुनने के उपरान्त विष्यन्त के मुख पर मुस्कान छा गयी, “अद्भुत योजना है, महाराज।” 

“किन्तु एक बात स्मरण रहे, यदि मेरी बहन को कुछ हुआ तो मैं स्वयं तुम्हारे पूरे परिवार का नाश कर दूँगा।”

“आप उसकी चिंता मत करिए, महाराज। महारानी मृणालिनी को कुछ नहीं होगा।” विष्यन्त ने उन्हें आश्वस्त किया।