“पेड़ से मीठे जामुन, पर पकड़ से तेज़ थे हम”
गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थीं और पूरा गांव दिनभर छांव ढूंढता फिरता था। लेकिन हम चार लड़कों के लिए छांव नहीं, पेड़ के ऊपर की टहनी ज़रूरी थी — जहां सबसे काले, सबसे रसीले जामुन लटके होते थे।
गांव के पीछे एक बाग था। उसके ठीक बीचोंबीच एक जामुन का पेड़ था — घना, ऊंचा और बिल्कुल सीधे आसमान से बातें करता हुआ। उस पेड़ के नीचे बैठकर हमें पता नहीं कितनी बार डांट पड़ी थी, लेकिन उस पर चढ़ने का लालच हर बार नया जोश भर देता था।
पेड़ किसी आम इंसान का नहीं था। वो बाग एक सख़्त बूढ़े बाबा का था, जो दिनभर लाठी लेकर ऐसे टहला करते जैसे कोई जेलर हो। और उनका कुत्ता? बस समझ लो कि पेड़ की चौकीदारी का ठेका उसी के पास था।
लेकिन हम भी चार थे — शरारती, चालाक और ‘मिशन जामुन’ के अनुभवी।
एक दिन फैसला हुआ — "इस बार दिन में नहीं, दोपहर में घुसेंगे। सब लोग खा-पीकर सो जाते हैं, बाबा भी। और कुत्ता? उसे तो रोटी देकर फुसला लेंगे।"
प्लान पक्का था।
अगले दिन दोपहर 2 बजे हम अपने-अपने घरों से अलग-अलग बहाने बनाकर निकले —
कोई बोला, “दूध लेने जा रहा हूं।”
कोई बोला, “काका की दुकान तक जाना है।”
और मैं बस चुपचाप निकल आया, झोला जेब में ठूंसा और चप्पल हाथ में।
दीवार फांदी, अंदर घुसे और पत्तों की सरसराहट के बीच पेड़ तक पहुंचे।
एक दोस्त ऊपर चढ़ा, दूसरा नीचे झोला लेकर खड़ा हो गया, तीसरा जामुन समेटने में लग गया और मैं निगरानी पर।
पेड़ की डालियाँ खचाखच भरी थीं। ऊपर से नीचे तक जामुन ही जामुन।
“अबे वो सबसे ऊपर वाली अमिया तोड़!” – नीचे से आवाज़ आई।
“झोला पकड़, झोला!… अबे गिरा मत देना!”
सब कुछ एकदम सही चल रहा था… कि तभी एक झटका — भौं भौं भौं!
हमने ऊपर देखा, और फिर नीचे… बाबा का कुत्ता हमारी तरफ़ दौड़ता आ रहा था!
“अबे भागो!” – इतना सुनते ही सब हवा हो गए।
ऊपर से एक दोस्त पेड़ से कूदा, झोला हाथ से छूटा, नीचे वाला झाड़ी में गिरा, और मैं खुद सीधे मिट्टी में।
बाबा ने लाठी हवा में घुमाई — “रुकोsssssss! आज नहीं छोड़ूंगा!”
लेकिन कोई नहीं रुका। चारों तरफ़ सिर्फ़ धूल, पत्ते और हँसी उड़ रही थी।
झोला वहीं गिर गया था — जिसमें आधे तोड़े गए और आधे गिरे हुए जामुन थे।
हम भागते-भागते कब गांव की गली में पहुंचे, पता ही नहीं चला।
रात को सब चुप थे। कोई कुछ नहीं बोला। बस एक-दूसरे को देखकर हँसते रहे।
अगले दिन स्कूल में किसी ने कान में फुसफुसाकर खबर दी —
“बाबा कह रहे हैं, जिसने जामुन चुराए, वो शाम को आ जाए… डांट नहीं पड़ने वाली।”
हमें लगा फंसे।
लेकिन जब शाम को गए, तो बाबा पेड़ के नीचे बैठे थे, और पास में एक बड़ी टोकरी जामुनों की।
बाबा ने कहा, “अगर खाना था, तो मांगा क्यों नहीं?
पेड़ तो तुम जैसे लड़कों के लिए ही रखा है।
डरते क्यों हो बे? चलो, बैठो… खाओ। और अगली बार चोरी नहीं, दोस्ती से माँगना।”
हम चुपचाप बैठ गए।
एक-एक करके जामुन उठाए, मुंह में डाले… और पहली बार महसूस किया कि बिना भागे, बिना डर के कुछ खाना कितना सुकून देता है।
उस दिन कोई नाम नहीं पूछा गया, कोई शिकायत नहीं की गई।
बस हँसी हुई, जामुन खाए गए, और पेड़ की छांव में एक शाम पूरी उम्र की याद बन गई।
अब उस घटना को बरसों बीत गए हैं।
पेड़ अब भी वहीं है।
पर हम चारों… अब उस बाग में नहीं जाते।
हाँ, जब गर्मी की छुट्टियों में गांव जाता हूं, तो उस पेड़ को ज़रूर देखता हूँ।
उसकी एक ऊँची टहनी आज भी मुझे जैसे चिढ़ा रही होती है —
"इस बार तोड़े बिना नहीं जाना।"