तमीज़ और तन्हाई के दरमियान
"हुज़ूर, मोहब्बत में लहज़ा भी वही रखिए, जो चाय में इलायची की तरह बस एहसास छोड़ जाए।"
लखनऊ की शामें कुछ यूँ होती हैं जैसे किसी शायर की अधूरी ग़ज़ल — न खत्म होती हैं, न ही पूरी। चौक के पुराने मुहल्ले में एक
कोठी थी ‘रौशन मंज़िल’ — नाम जितना रोशन, किस्मत उतनी ही धुँधली। वहीं रहती थी रौशनआरा बेग़म — उम्र कोई उन्नीस या
बीस, मगर अदब ऐसा कि कोई भी तहज़ीब शरमा जाए।
चाय की दुकान पर बैठा रेहान अकसर कोठी की बालकनी को देखता, जैसे वहाँ से निकलता हर परिंदा उसे कोई नई ग़ज़ल सुनाता हो।
"मियाँ, तुम हर रोज़ वहीं ताकते रहते हो... क्या है वहाँ?" – चाय वाला कल्लू पूछता।
रेहान मुस्कुरा कर कहता,
"कल्लू मियाँ, वहाँ सिर्फ एक लड़की नहीं रहती, वहाँ मेरा सुकून रहता है।"
रौशनआरा को भी शायद ये खिड़की से आती निगाहें भा गई थीं। वो भी अब शाम होते ही बालकनी में बैठ जाती — किताब लिए,
चेहरे पर नक़ाब, मगर आँखों से बेपनाह बातें करती।
इश्क़ चालाक नहीं होता साहब, वो बस हो जाता है।
एक दिन चुपके से रेहान ने इत्र की शीशी और एक पर्ची बालकनी तक पहुँचा दी —
"‘अगर इजाज़त हो, तो मोहब्बत का कोई हक़ अदा करूं?’"
रौशनआरा ने जवाब में वही इत्र लगाया और नीचे देखा — एक हल्की सी मुस्कान, और रेहान का दिल काँप गया। बस वहीं से शुरुआत हुई उस नज़ाकत से भरे इश्क़ की।
Lucknow का इश्क़ तेज़ नहीं होता, वो तो दम लगाकर बनती बिरयानी की तरह पकता है — सब्र से, तहज़ीब से, अदब से।
रेहान अब हर शाम गुलाब लेकर आता। चाय नहीं, अब तो ‘नज़्मों का नशा’ चढ़ गया था उसे।
"आपसे बात किए बग़ैर अब लखनऊ भी अधूरा सा लगता है," उसने एक बार कहा।
रौशनआरा बोली,
"आपकी बातें इत्र की तरह होती हैं, कम पर असरदार। मगर मियाँ, ये मोहब्बत है लखनऊ की — यहाँ इज़हार से ज़्यादा इख़लास मायने रखता है।"
धीरे-धीरे रातों में खतों का सिलसिला शुरू हुआ। रेहान उर्दू में लिखा करता, और रौशनआरा जवाब में शायरी भेजा करती।
"मोहब्बत लफ्ज़ों से नहीं, ख़ामोशियों से हुआ करती है..."
लेकिन हर इश्क़ में एक इम्तिहान ज़रूरी होता है।
रौशनआरा की ब्याह की बात तय हो गई — नवाब हबीबुल्लाह से, जिनके पास ज़मीने थी, हवेलियाँ थीं... मगर इश्क़ का इल्म न था।
जब रेहान को खबर मिली, वो टूटा नहीं — वो वही लखनऊ वाला आशिक़ था, जिसने इश्क़ को खुद से भी ऊपर रखा था।
वो आखिरी बार कोठी के सामने खड़ा हुआ। हाथ में वही पुराना गुलाब और एक ख़त —
"आपकी ख़ुशियों में हमारी मोहब्बत की कुर्बानी भी शामिल समझिए।"
रौशनआरा ने शादी के दिन भी वो गुलाब अपने दुपट्टे में छुपाया था। और हर साल चुपचाप उसी चाय की दुकान पर आकर बैठ जाती, जहाँ कभी रेहान बैठता था।
कल्लू अब बूढ़ा हो चला था। एक दिन उसने पूछ ही लिया —
"बेग़म साहिबा, अब भी क्यों आती हैं यहाँ?"
रौशनआरा मुस्कुरा कर बोली —
"कल्लू मियाँ, लखनऊ की मोहब्बतें शोर नहीं करतीं... बस इंतज़ार करती हैं... तमीज़ से, तन्हाई में।"
~ समाप्त ~