रात के सन्नाटे में घड़ी की टिक-टिक और अलमारी में रखी माँ की हरे काँच की चूड़ियों की धीमी खनक… बस यही दो आवाज़ें थीं जो राघव के कमरे में बची रह गई थीं।
आज माँ को गए पूरे तीन महीने हो गए थे, लेकिन राघव का दिल अब भी उसी मोड़ पर अटका था — उस आखिरी सुबह पर, जब माँ ने उसके माथे पर हाथ फेरा था और कहा था,
"जल्दी लौट आना बेटा, अकेलापन अब काटता नहीं..."
राघव, दिल्ली की एक बड़ी IT कंपनी में सीनियर डेवलपर था। पैसों की कमी नहीं थी, लेकिन वक्त की बहुत तंगी थी। माँ अक्सर फोन पर शिकायत करती थीं,
"बेटा, कभी हफ्ते में दो मिनट भी मिल जाते हैं क्या? बस इतना जान लो कि मैं ठीक हूँ, लेकिन 'ठीक' रहना अब आदत बन गई है, चाहत नहीं।"
राघव हँसकर कहता, "माँ, इस बार दीवाली पर पक्का आऊँगा, बस एक प्रोजेक्ट खत्म हो जाए..."
लेकिन वो "इस बार" कभी आया ही नहीं।
माँ अकेली रहती थीं बनारस की उस पुरानी हवेली में, जहाँ हर कोना उनके हाथों से सजा था। हर त्योहार पर वो उसी पुराने ट्रंक से अपनी हरे काँच की चूड़ियाँ निकालतीं, बिंदी लगातीं और जैसे पूरा घर मुस्कुरा उठता था। चूड़ियों की खनक में एक अजीब सी शांति होती थी — जैसे मंदिर की घंटी में होती है।
और फिर एक दिन फोन आया।
"बेटा... माँ नहीं रहीं। सोते-सोते चली गईं। शायद तुम्हारे फोन का इंतजार करते-करते थक गई थीं..."
वो आवाज़ सुनते ही राघव के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
दिल्ली की हाई-राइज़ बिल्डिंग, उसका एयर-कंडीशन्ड ऑफिस, कॉफी मशीन और मीटिंग रूम — सब धुंधले हो गए थे।
तीन महीने तक राघव ने खुद को कमरे में बंद कर लिया। काम से छुट्टी ले ली, दोस्तों से मिलना बंद कर दिया और माँ की तस्वीर से बातें करने लगा।
वो तस्वीर जिसमें माँ मुस्कुरा रही थीं — माथे पर लाल बिंदी और कलाई में वही हरी चूड़ियाँ।
एक दिन अचानक उसने फैसला किया — अब और नहीं।
वो बनारस लौटा, माँ की यादों को छूने, समझने, और शायद माफ़ी माँगने।
पुराना घर वैसे ही था, जैसे माँ ने छोड़ा था। लेकिन अब उसमें माँ की खुशबू नहीं थी। राघव ने धीरे से अलमारी खोली। अंदर एक छोटी सी रेशमी पोटली थी, जिसमें वो चूड़ियाँ रखी थीं — हरे काँच की, थोड़ी चटकी हुई, पर अब भी चमक रही थीं।
राघव ने चूड़ियाँ उठाईं, उन्हें माथे से लगाया और देर तक रोता रहा। उस रोने में पश्चाताप था, अकेलापन था, और वो सारी बातें थीं जो वो कह नहीं पाया।
उसे याद आया, जब वह छोटा था और बुखार में तप रहा होता, तो माँ अपनी चूड़ियों से उसके माथे पर थपकी देतीं। उसकी आँखें बंद हो जातीं लेकिन खनक सुनाई देती रहती — जैसे कोई कह रहा हो, "मैं यहीं हूँ बेटा, डर मत।"
राघव ने उसी रात एक फैसला लिया — अब और देर नहीं करेगा। उसने अपनी नौकरी से इस्तीफा दिया और बनारस में ही एक छोटा-सा NGO शुरू किया।
इस NGO का मकसद था — उन बुज़ुर्गों को सहारा देना जो अकेले रह गए थे, जिनके बेटे-बेटियाँ बड़े शहरों में थे और जिनके लिए माँ-बाप बस एक वीडियो कॉल बनकर रह गए थे।
हर रोज़ राघव किसी एक "माँ" को खाना खिलाता, उनसे कहानियाँ सुनता, और जब-जब किसी के हाथ में चूड़ियाँ खनकतीं, उसकी आँखों में एक चमक आ जाती।
एक शाम एक बूढ़ी अम्मा ने पूछा, "बेटा, तुम्हारी माँ नहीं हैं क्या?"
राघव ने मुस्कराकर कहा,
"नहीं अम्मा, अब नहीं हैं... लेकिन जब आपके हाथों की चूड़ियाँ खनकती हैं न, तो लगता है वो यहीं कहीं हैं।"
वो अम्मा उसकी तरफ देखकर मुस्कुराईं, और पहली बार किसी और की मुस्कान में उसे अपनी माँ की परछाईं दिखाई दी।
राघव को अब समझ आ गया था कि माँ ने जो जीवन भर सिखाया, वो केवल संस्कार नहीं थे — वो भावनाएँ थीं।
जो चूड़ियाँ कभी त्योहारों की पहचान थीं, अब उसके जीवन की प्रेरणा बन गई थीं।
अब जब भी शाम होती है, राघव उस पुरानी अलमारी के सामने बैठता है, माँ की चूड़ियाँ हाथ में लेता है और खुद से कहता है —
"माफ़ कर दो माँ, इस बार सच में देर हो गई थी... लेकिन अब मैं हर उस माँ के लिए वक्त निकालूंगा जो अपने बेटे का इंतज़ार कर रही है।"