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रागिनी से राघवी
और यह उन्हीं दिनों की बात है, कि जब वह आश्रम से लौट रही थी, मंजीत अचानक सामने आ गया। उसका चेहरा थका-हारा था, आँखों में पश्चाताप झलक रहा था। उसने कहा, ‘रागिनी, मैंने जिस सम्पत्ति के लिए तुम्हें छोड़ा, नताशा वह सम्पत्ति मुझ पर छोड़कर सदा को चली है। वह मुझसे तुम्हें छुड़ाने के लिए ही आई थी...। मानता हूं, मैंने बहुत गलतियां कीं, पर एक मौका दो, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता!"
रागिनी ने उसकी आँखों में देखा, लेकिन उसका मन नहीं डगमगाया। उसने शांत स्वर में कहा, "मंजीत, मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है, क्योंकि जैन धर्म मुझे सिखाता है कि क्रोध मेरी आत्मा को बंधन में डालता है। लेकिन मेरी राह अब दूसरी है। मैं अब सांसारिक रिश्तों की तलाश में नहीं हूँ। मैं अपनी आत्मा की शुद्धि और मोक्ष के मार्ग पर चल रही हूँ। तुम भी अपनी राह ढूँढो।"
मंजीत स्तब्ध रह गया। वह कुछ कहना चाहता था, लेकिन रागिनी की आवाज में एक ऐसी दृढ़ता थी कि वह चुपचाप सिर झुकाकर चला गया। जाते-जाते रागिनी ने उसे नताशा का पत्र भी थमा दिया। तब उसे जाते हुए देखा, और पहली बार उसे अपने मन में कोई बोझ नहीं लगा। उसे लगा जैसे उसने अपने अतीत को अब सचमुच छोड़ दिया है...।
...
रागिनी ने अपनी साधना को अब और गहरा करना आरम्भ कर दिया था। उसने फैसला किया कि वह अपनी जिंदगी को जैन धर्म के सिद्धांतों- अहिंसा, सत्य, और सेवा के लिए समर्पित करेगी। उसने आश्रम के साथ मिलकर एक छोटा सा केंद्र शुरू किया, जहाँ बच्चों को जैन धर्म की शिक्षाएँ, नैतिकता, और मुफ्त शिक्षा दी जाती थी। बच्चों की मासूम हँसी और उनकी जिज्ञासा रागिनी के लिए एक नया सुख बन गई। वह अब जैन भजनों की रचना भी करने लगी थी, जिनमें आत्मा की शुद्धता, अहिंसा, और मोक्ष की बातें होती थीं।
एक दिन, जब वह आश्रम के प्रांगण में बैठकर अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी, काव्या उसके पास आई और पूछा, ‘दीदी, क्या आप अब सचमुच शांत हो?’
रागिनी ने मुस्कुराकर कहा, ‘शांति का मतलब मैंने पहले गलत समझा था। मैं इसे प्यार में, रिश्तों में, दुनिया में ढूँढ रही थी। लेकिन तत्वार्थ सूत्र और साध्वी जी ने मुझे सिखाया कि शांति मेरे भीतर है। जब मैं अपनी आत्मा को राग-द्वेष से मुक्त रखती हूँ, अहिंसा का पालन करती हूँ, तो मुझे कुछ और चाहिए ही नहीं।’
काव्या ने उसकी डायरी की ओर देखा और पूछा, ‘क्या लिख रही हो?’
रागिनी ने अपनी नई रचना पढ़ी:
रिश्तों की ओर चली दुख का कांटा चुभा,
प्यार की चाह में माया का जाल मिला।
तत्वार्थ ने राह दी आत्मा को जाना,
शांति की ज्योत मिली अहिंसा का दीप जला।
साध्वी विशुद्धमति पास ही खड़ी थीं, उन्होंने मुस्कुराकर कहा, ‘बेटी, तुमने जैन धर्म का सच्चा मार्ग पकड़ लिया है। अब इस राह पर अडिग रहना।’
रागिनी ने सिर झुकाया और मन ही मन प्रण किया कि वह अपनी जिंदगी को जैन साधना, अहिंसा, और सेवा के लिए समर्पित कर देगी। प्यार, जो कभी उसकी कमजोरी था, अब उसके लिए एक सबक बन चुका था। वह अब न किसी के प्यार की तलाश में थी, न किसी रिश्ते की। उसका रिश्ता अब सिर्फ उसकी आत्मा और उन पंच परमेष्ठी से था, जो उसे हर पल मोक्ष के मार्ग की ओर ले जा रहे थे।
...
एक और दिन, आश्रम में साध्वी जी ने रागिनी से लंबी बात की। उन्होंने उसकी आँखों में दुख और एक गहरी खोज देखी, तब कहा, ‘बेटी, तुम्हारा मन संसार से मुक्त होने को तैयार है। अगर तुम चाहो, तो साध्वी बनकर इस संसार के बंधनों से आजाद हो सकती हो। सच्ची शांति वही है, जो आत्मा को मिलती है।’
रागिनी के मन में यह बात घर कर गई। उसने कई रातें सोचते हुए बिताईं। तब एक दिन उसने फैसला कर लिया कि वह साध्वी बन जाएगी।
जब उसने यह बात अपनी माँ और पिताजी को बताई, वे स्तब्ध रह गए। माँ ने रोते हुए कहा, ‘रागिनी, अभी तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है। ये वैराग्य की बातें छोड़ दे, तू मंजीत के साथ अपनी दुनिया बसा ले।’
पिताजी ने भी समझाया, ‘बेटी, ये जो तू आश्रम जा रही है, ये ठीक है। लेकिन साध्वी बनना? तूने अभी दुनिया देखी ही कहाँ है?’
मगर रागिनी का मन अब संसार से पूरी तरह उचट चुका था। उसने कहा, ‘माँ, पिताजी, मैंने बहुत सोचा है। मुझे अब इस संसार में कुछ नहीं चाहिए। मैंने जो दुख झेले, वो मुझे और नहीं चाहिए। मैं साध्वी बनकर अपनी आत्मा को मुक्त करना चाहती हूँ।’
आखिरकार, माँ-पिताजी की लाख कोशिशों के बावजूद रागिनी ने साध्वी बनने का संकल्प ले लिया। इस अवसर पर गाँव से ताऊ-ताई और सौम्या भी आ गए। ताऊ ने खूब धूमधाम से बिनौली निकलवाई। सौम्या ने शृंगार किया। आई उसकी बड़ी बहन रमा भी, पर उसके चेहरे का रंग उड़ा रहा। दिल कचोटता रहा कि छोटी का दिल आखिर किसने तोड़ दिया, क्यूँ! पर इन बातों का अब कोई मूल्य न था। समाज में गजब का उत्साह जिसने एक माँ के दिल का हाल न पूछा! एक पिता के अरमानों का गला घोंट दिया...। खूब बढ़चढ़ कर बोलियाँ लगाई गईं और एक भव्य समारोह में उसे आचार्य जी और मुनियों के समूह द्वारा दीक्षा दिला दी गई। उसने अपने लंबे बाल त्याग दिए, सादा वस्त्र धारण किया, और साध्वी राघवी के नाम से जानी जाने लगी।
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मंजीत को जब रागिनी के साध्वी बनने की खबर मिली, तो वह टूट गया। उसने सोचा था कि वह रागिनी को मना लेगा, मगर अब उसके पास कोई रास्ता नहीं बचा था। वह एक बार आश्रम गया, जहाँ रागिनी अब साध्वी बनकर रहती थी। उसे दूर से देखा- उसका चेहरा शांत था, आँखों में एक अजीब सी चमक थी, जो संसार से परे थी। मंजीत ने उसे पुकारने की हिम्मत नहीं की। वह चुपचाप वापस लौट आया।
उसके बाद मंजीत ने रागिनी से मिलने की कोशिश छोड़ दी। क्योंकि यहाँ से उनकी कहानी अब दो अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ी थी- एक वैराग्य की राह पर, और दूसरा अपने अधूरे सपनों के साथ अपने काम में डूबा हुआ। मगर जिसका दिल हमेशा रागिनी की याद में डूबा रहता।
रागिनी, अब साध्वी राघवी, मंदिर में प्रवचन देती, लोगों को वैराग्य का रास्ता दिखाती। उसका मन शांत था, मगर कभी-कभी, किसी गहरी रात में, वह भी अपने अतीत को याद करती, और उसकी आँखों में एक हल्का सा अश्रु झिलमिला उठता।
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