Ishq Benaam - 15 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 15

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इश्क़ बेनाम - 15

15

नया सवेरा

स्कूल के 15-20 लोगों के स्टाफ में कई महिलाएँ भी थीं, मगर मंजीत अपने आप में खोया रहता था। वह बच्चों की साज-संभाल में व्यस्त रहता और प्रिंसिपल मैडम से भी बहुत कम बात करता। लेकिन स्कूल में एक बुजुर्ग महिला शिक्षिका भी थीं, बिमल कौर। वे अक्सर मंजीत के एकाकीपन और उसके चेहरे में छिपे किसी अनजाने दुख को देखकर सोच में पड़ जातीं। 

एक दिन, जब स्कूल की छुट्टी के बाद मंजीत प्रांगण में अकेला बैठा था, बिमल कौर ने घर जाते-जाते उसके पास रुककर धीरे से पूछ लिया, ‘वीर जी, लगता है, तुहाडे जीवन विच कोई कमी है, कोई अपूर्ण गाथा...?’

मंजीत ने एक पल को उनकी ओर देखा, फिर हल्के से मुस्कुराया। उसने कहा, ‘नहीं, बीजी, मेरी जिंदगी दी कोई कहाणी अधूरी नहीं है। मेरा तां यही परिवार है, यही सेवा गुरुद्वारे दी सेवा है, और मन्नू अपने मन दी दुनिया विच ही सुख है।’

बात को उसने टाल दिया था, मगर उसकी आँखों में एक गहरी उदासी थी, जो बिमल कौर की नजरों से छुप न सकी। ये वही उदासी थी, जो सात-आठ साल पहले उसकी आँखों में राधा नाम की एक छोटी बच्ची को दिखी थी।

बिमल कौर जब चली गईं, मंजीत अचानक गुनगुना उठाः ‘जो तुम प्रेम मिलन का चाहो, फिर तर गली चली मेरी आओ, गली मेरी आओ...आओ।’

...

राघवी अब पूरे क्षेत्र में छोटी माताजी के नाम से जानी जाती थी। उसने कई गाँवों में जैन धर्म के केंद्र खुलवा दिए थे, जहाँ लोग अहिंसा और सत्य की राह पर चलने की प्रेरणा ले रहे थे। मंजीत ने अपने स्कूल को एक मॉडल स्कूल बना दिया था, जहाँ बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ नैतिकता और समाज सेवा सीख रहे थे।

एक रात, रावी के किनारे, दोनों अलग-अलग जगहों पर खड़े थे। राघवी नदी को निहारते हुए पंच परमेष्ठी की वंदना कर रही थी। मंजीत ने उसी चाँद को देखा, जिसे राघवी देख रही थी। दोनों ने एक ही हवा को महसूस किया, मगर उनके बीच एक अनजानी दूरी थी। मंजीत ने अपनी डायरी में एक और पंक्ति लिखी:

‘रावी बहती रहेगी, और हमारी कहानी अधूरी। मगर शायद यही जीवन का सत्य...।’

राघवी ने अपनी डायरी में लिखा:

‘संसार का बंधन छूटा, आत्मा की राह मिली।’

रावी का जल साक्षी बना चुपचाप बहता चला जा रहा था, और उनकी कहानी, अधूरी ही सही, मगर अपनी-अपनी राहों पर चलती चली जा रही थी।

...

उस साल भी शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसंत का मौसम अपनी पूरी रंगत में था, जैसा कि बारह साल पहले बसंत के उस मेले में था, जहाँ मंजीत और रागिनी एक प्रेमी जोड़े के रूप में मिले थे। फर्क था तो बस पठानकोट और दीना नगर के रावी तटों का। एक पहाड़ी इलाका तो दूसरा मैदानी। पर रावी नदी का निर्मल जल वहाँ भी अविरल बह रहा था, यहाँ भी। हल्की ठंडी हवा में फूलों की महक वहाँ भी घुली थी, यहाँ भी। और पेड़ों पर नई कोपलें झूम रही थीं, वहाँ और यहाँ भी। 

किन्तु यहाँ आज मंजीत, जिसके माथे पर अब उम्र की लकीरें और दाढ़ी में खिचड़ी बाल साफ दिख रहे थे, एक पुरानी डायरी लिए रावी के किनारे उदास अकेला बैठा था। आज वह किसी रागिनी के बालों में गजरा लगाता कोई गीत नहीं रच रहा था, उसकी आँखों में एक खालीपन था, जैसे वह सालों से किसी अधूरी खोज में भटक रहा हो...।

अपने कुटम्ब को तो वह चौदह साल पहले ही छोड़ चुका था जब नताशा से शादी कर अपनी स्वयं की बनवाई कोठी में आ बसा था। फिर रागिनी के विरह में कोई दस साल पहले अपनी सरकारी नौकरी भी छोड़ इस छोटे से प्रायवेट स्कूल में आके वार्डन बन गया और अब शिक्षक, जहाँ बच्चों को हिंदी और इतिहास पढ़ाता है। नताशा के विदेश लौट जाने और रागिनी के साध्वी बनने की घटना ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया था, सो उसने फिर किसी और रिश्ते में बंधने की बात कभी सोची ही नहीं... ‘मानस जनम दुलभ है, फेर नाहीं मिलेगा... सुधार ले, सुधर जा!’ जैसी गुरुवाणियाँ अपने मोबाइल से वह रोज सुनता और गुनता। उसका जीवन अब बच्चों की हँसी और किताबों के पन्नों में सिमट गया है। लेकिन रात की तन्हाई में रागिनी की यादें उसे अब भी सताती हैं...। 

उसकी डायरी में कुछ अधूरी कविताएँ थीं, जो उसने रागिनी के लिए लिखी थीं, लेकिन कभी उसे सुना नहीं पाया था।

...

उधर, रागिनी, अब साध्वी राघवी, जैन आश्रम की एक सम्मानित आर्यिका बन चुकी थी। उसकी वाणी में जैन धर्म की गहराई थी, और उसके प्रवचन सुनने दूर-दूर से लोग आते थे। उसकी आँखों में अब नवयौवना की चंचलता नहीं थी, बल्कि एक गहरी शांति थी, जो उसकी साधना की गवाही देती थी। वह आश्रम के बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण और अहिंसा के लिए एक अभियान भी चला रही थी इसलिए इस बार वह अपने आश्रम के कुछ शिष्यों के साथ शिवालिक की तलहटी में एक ध्यान शिविर के लिए आई थी।

...

उस शाम, जब सूरज पहाड़ों के पीछे ढल रहा था, मंजीत रावी के किनारे अपनी डायरी में कुछ लिख रहा था। उसने अनजाने में एक पुरानी कविता दोहराई, जो रागिनी के लिए लिखी थी:

‘तू चूड़ी थी, मैं कंगन, अधूरे हम बिना संगम,

तेरी राहें राग-मुक्त थीं, मेरी राहें भटकी-सी...’

और वह खुद में, प्रकृति में, पुरानी यादों में गुम-सा बुदबुदा ही रहा था कि अचानक, एक सौम्य आवाज ने ध्यान भंग कर दिया। 

‘यह कविता... अभी भी अधूरी है, मंजीत?’

मंजीत ने चौंककर सिर उठाया। सामने साध्वी राघवी खड़ी थी, सादे सफेद वस्त्रों में, चेहरे पर वही शांति, लेकिन आँखों में अतीत का साया लिए। मंजीत की साँसें थम गईं। वह उठ खड़ा हुआ, डायरी उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर गई। 

‘रागिनी... साध्वी जी...’ उसकी आवाज काँप रही थी।

राघवी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, ‘रागिनी अब नहीं है, मंजीत। मैं साध्वी राघवी हूँ। लेकिन तुम... तुम अब भी वही हो, न?’

मंजीत की आँखें नम हो गईं। वह कुछ कहना चाहता था, लेकिन शब्द साथ नहीं दे रहे थे। उसने बस सिर झुका लिया। राघवी के नंगे चरण नदी किनारे की पथरीली भूमि पर अनायास उगे जंगली फूल से प्रतीत हो रहे थे। मंजीत उन्हें अपलक देख रहा था और राघवी रावी की लहरों को। 

कुछ पल बाद उसने हिम्मत जुटाकर कहा, ‘मैंने बहुत गलतियाँ कीं, रागिनी...साध्वी जी। न-न...न-ताशा को नहीं समझा, तुम्हें खो दिया। मैंने सोचा था कि प्यार का मतलब है सब कुछ पा लेना, लेकिन अब समझ आया कि प्यार का मतलब है  छ-छ-छ... छोड़ देना।’

राघवी ने गहरी साँस ली और कहा, ‘प्यार छोड़ देना नहीं, मंजीत! प्यार को समझना है। धर्म ने मुझे सिखाया कि सच्चा प्यार राग-द्वेष से मुक्त होता है। तुम जो कर चुके, वह अतीत है। उसे क्षमा कर दो... अब तो अपनी आत्मा को शुद्ध करने की राह ढूँढो।’

मंजीत की आँखों से एक आँसू ढुलक गया।

‘मैंने कोशिश की, साध्वी जी। लेकिन तुम्हारी याद... वो मुझे हर रात रुलाती है। मैंने तुम्हें खोकर सब खो दिया!’ वह फफक पड़ा।

राघवी ने उसे सहारा नहीं दिया, शांत स्वर में कहा, ‘खोया कुछ नहीं, मंजीत! जो छूटा, वह माया थी। असली खजाना तुम्हारी आत्मा में है। उसे खोजो और पा लो।’

उसके बाद, राघवी अपने शिष्यों के साथ ध्यान शिविर की ओर बढ़ गई। मंजीत उसे जाते हुए देखता रहा, उसकी डायरी अब भी नदी किनारे की पथरीली भूमि पर पड़ी थी। उसने उसे उठाया और एक नया पन्ना खोला। उसमें लिखाः ‘मैंने तुझे खोजा, माया में, पर तू तो आत्मा में थी...।’

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