Ishq Benaam - 17 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 17

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इश्क़ बेनाम - 17

17

देह का यथार्थ

कुछ महीने बाद, मंजीत और राघवी की एक अनपेक्षित मुलाकात फिर हो गई। इस बार यह एक सामुदायिक आयोजन था, जहाँ आश्रम और मंजीत के स्कूल ने मिलकर एक पर्यावरण संरक्षण कार्यशाला आयोजित की थी। मंजीत बच्चों को पौधरोपण सिखा रहा था, और राघवी अपने शिष्यों के साथ वहाँ उपस्थित थी। दोनों की नजरें एक-दूसरे से टकराईं, और एक पल के लिए समय जैसे थम-सा गया।

मंजीत ने सिर झुकाकर अभिवादन किया, और राघवी ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया। आयोजन के बाद, जब सब लोग चले गए, मंजीत ने राघवी से बात करने की हिम्मत जुटाई। वह उसके पास गया और धीरे से बोला, ‘साध्वी जी, मैंने बहुत सोचा। आपकी बातें, जैन धर्म की शिक्षाएँ... मैं समझने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन यह देह, यह मन... यह मुझे बार-बार आपकी ओर खींचता है। क्या यह गलत है?’

राघवी ने रावी की ओर देखा, जहाँ सूरज की किरणें पानी पर चमक रही थीं। उसने कहा, ‘मंजीत, देह का आकर्षण झुठकाया नहीं जा सकता, क्योंकि यह हमारा स्वभाव है। लेकिन इसे समझना जरूरी है। तुम मुझे देखते हो, लेकिन तुम जो देख रहे हो, वह मेरी देह है। यह देह एक दिन खत्म हो जाएगी। लेकिन जो मैं हूँ, जो तुम हो; वह आत्मा है। वह न दिखती है, न बोलती है, न स्पृश्य है, लेकिन वह है, और वही परम सत्य है।’

यह सुन हठात श्वास खींच मंजीत झनझना गया। पर दो पल बाद ही, जैसे लहर गुजर गई और भीगा खड़ा रह गया, उसने कहा, ‘लेकिन साध्वी जी, अगर आत्मा दिखती नहीं, तो मैं उसे कैसे मानूँ? यह जो प्यार है, यह जो बेचैनी है, यह तो देह के होने से है, और यह हरदम महसूस होती है।’

तब अभ्यासी राघवी ने अपनी परिचित स्थिरता के साथ जवाब दिया, ‘प्यार देह से शुरू हो सकता है, मंजीत! लेकिन उसे आत्मा तक ले जाना तुम्हारा काम है। जब तुम मेरी देह को देखते हो, तो तुम मेरे रूप को देखते हो, मेरी आवाज सुनते हो, मेरी गंध पाते हो, मेरे रस और स्पर्श की कल्पना करते हो और उसी में स्वर्गिक आनंद का भ्रम पाल लेते हो। लेकिन जब तुम मेरी आत्मा को महसूस करोगे, तुम्हें शांति मिलेगी, भटकन मिट जाएगी। 

धर्म-दर्शन कहता है- देह को समझो, इसमें अटको मत।’

मंजीत ने गहरी साँस ली और उसके मोक्ष-मार्गी नग्न पैरों पर दृष्टि जमाकर कहा, ‘मैं कोशिश करूँगा, साध्वी जी! लेकिन यह आसान नहीं होगा।’

राघवी ने उसके मोह-ग्रस्त चेहरे को देखते मुस्कुराकर कहा, ‘कोई भी सच्ची राह आसान नहीं होती, मंजीत! लेकिन हर कदम तुम्हें अपने आपके करीब ले जाता है।’

...

उस दिन के बाद, मंजीत ने अपनी साधना को और गहरा किया। वह रोज ध्यान करता, जैन धर्म के ग्रंथ पढ़ता, और अपने मन की बेचैनी को समझने की कोशिश करता। उसने राघवी की यादों को अब देह से जोड़ना बंद कर दिया। वह उसे एक मार्गदर्शक के रूप में देखने लगा- एक ऐसी आत्मा के रूप में, जो अपनी राह पर चल रही थी, और उसे भी अपनी राह ढूँढने की प्रेरणा दे रही थी।

राघवी भी अपनी साधना में डूबी रहती। वह जानती थी कि देह का आकर्षण एक सच्चाई है, लेकिन उसकी साधना ने उसे सिखाया था कि यह सच्चाई क्षणिक है। उसने अपनी डायरी में लिखा:

‘देह का रंग गहरा है, लेकिन आत्मा का प्रकाश उससे भी अधिक पारदर्शी है। जब मन देह को छोड़कर आत्मा की ओर बढ़ता है, तभी सम्यक बोध की प्राप्ति होती है।’

रागिनी और मंजीत की कहानी अब देह और आत्मा के बीच के संवाद की कहानी बन चुकी थी। दोनों अपनी-अपनी राहों पर चल रहे थे, लेकिन उनकी यात्रा एक ही सत्य की ओर थी- देह का यथार्थ समझना और आत्मा की शांति को पाना। रावी नदी की तरह, जो अपने तटों को छूती हुई भी अपनी गहराई में शांत रहती थी, उनकी जिंदगी भी अब एक गहरे संतुलन की ओर बढ़ रही थी।

...

शिवालिक की तलहटी में ग्रीष्म की वह एक सुहानी साँझ थी, जब रावी का किनारा उसकी लहरों से टकराकर आ रही मंद-मंथर बयार और फूलों की महक से भरा था। साध्वी राघवी अपने शिष्यों के साथ आश्रम लौट रही थी, जब एक छोटे से गाँव में उसकी मुलाकात फिर से मंजीत से हो गई। 

मंजीत इस बार भी अकेला नहीं था; वह अपने स्कूल के बच्चों के मार्फत एक नुक्कड़ नाटक का प्रदर्शन करा रहा था, जो अहिंसा और प्रेम की थीम पर आधारित था। मंजीत की आँखों में अब पहले जैसी बेचैनी नहीं थी, लेकिन एक गहरी उदासी थी, जो राघवी ने भाँप ली।

प्रदर्शन के बाद जब छात्र और शिष्य प्रदर्शन के प्रभाव से उत्पन्न चर्चा में व्यस्त हो गए, मंजीत राघवी के पास गया। उसने सिर झुकाकर कहा, ‘साध्वी जी, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ।’

‘कहो ना!’ आज बहुत दिन बाद राघवी के भीतर से रागिनी बहुत धीमे से बोली।

और मंजीत भावुकता भरे लहजे में कहने लगा, ‘यह मन- यह अभी भी भटकता है। मैंने साधना की, जैन धर्म के सिद्धांतों को समझने की कोशिश की, लेकिन तुम्हारी याद; वह मुझे चैन नहीं लेने देती।’

तब राघवी ने उसकी ओर गौर से देखा, और उसकी आँखों में सहसा ही पुरानी रागिनी झलक उठी। उसने गहरी साँस ली और अपने मन में कहा- मंजीत, तुम्हारी यह बेचैनी स्वाभाविक है। देह और मन का रिश्ता बड़ा गहरा है। पर मेरे लिए यह समझना मुश्किल नहीं कि जो तुम मेरे लिए महसूस करते हो, वह केवल देह का आकर्षण है...यह उस प्रेम का हिस्सा भी है, जो हमने कभी साझा किया था।

और तब लगा कि मंजीत ने जैसे उसके मन की बात सुन ली! उसने हिम्मत जुटाकर कहा, ‘रागिनी जी, मैं जानता हूँ कि तुम अब साध्वी राघवी हो; लेकिन मेरे लिए वही रागिनी, जिसके साथ मैंने सह-जीवन के सपने देखे, हमने अपना निजत्व एक दूसरे से साझा किया...। पर नताशा का वह पत्र- उसने सब कुछ बदल दिया! 

मैंने आपको खोया, और खुद को भी। लेकिन मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा प्यार सच्चा था।’

कहते हुए मंजीत की आँखें नम थीं, सुनते हुए राघवी की आँखें भी नम हो गईं। नताशा का वह पत्र उसके मन में एक गहरा डर पैदा कर गया था। उस पत्र ने उसके मन में यह भय भर दिया था कि मंजीत का प्यार केवल देह तक सीमित था, और अपेक्षाओं की पूर्ति के बाद वह नताशा की भांति उसे त्याग सकता था। लेकिन अब, मंजीत की बातें सुन, उसका बदला हुआ स्वरूप और व्यवहार देख, उनके मन में एक नया विचार जागा- क्या वह पत्र वाकई सच था? या वह उनकी ईर्ष्या थी, जिसने उसे संन्यास की राह पकड़ा दी और मुआवजा छोड़ मंजीत का सर्वस्व छीन लिया!

उसने खुलासा किया, ‘मंजीत, नताशा का पत्र मेरे लिए एक आघात् था। मैं डर गई थी। लेकिन अब, इतने सालों बाद, मुझे लगता है कि मेरा आकलन शायद गलत था! प्रेम देह से शुरू हो सकता है, लेकिन वह देह तक सीमित नहीं रहता।’

मंजीत ने उसकी बात को ध्यान से सुना, उसे एक नई आशा बंधी, उसने अपनी बात को और स्पष्ट किया, ‘रागिनी, मैंने कभी तुमसे केवल देह की चाह नहीं की। हाँ, मैं इंसान हूँ, मेरे मन में भी वह इच्छाएँ थीं। लेकिन मेरा प्यार तुम्हारी आत्मा के लिए था- तुम्हारी हँसी, तुम्हारी बातें, तुम्हारा साथ।’

यह सुन रागिनी उसे गौर से देखने लगी और तब खुद में डूबे मंजीत ने एक गहरी साँस ले, आगे कहा, ‘नताशा ने जो लिखा, वह आधा सच था। मैंने उसे छोड़ा, लेकिन सिर्फ इसलिए नहीं कि मैं केवल देह की भूख रखता था। मुझे उसे छोड़ना पड़ा, क्योंकि मेरा दिल तुम्हारे पास चला गया था।’

और यह सुन रागिनी गोया संवेदना के अतिरेक से भर गई। उसने एक गहरी साँस ली, जैसे मन में एक तूफान उठ खड़ा हुआ हो...। साधना ने उसे राग-द्वेष से मुक्त होने की शिक्षा दी थी, लेकिन यह पल उनके लिए एक परीक्षा था। वह जानती थी कि साध्वी के रूप में उसकी जिम्मेदारियाँ थीं, लेकिन उसके भीतर बैठी रागिनी का मन तो अभी भी कहीं न कहीं जीवित था।

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