Ishq Benaam - 20 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 20

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इश्क़ बेनाम - 20

20

देह और आत्मा का संवाद

कईएक दिन और बीत चुके थे। मंजीत और राघवी की मुलाकातें अब नियमित हो चली थीं। दोनों पर्यावरण संरक्षण और शिक्षा के लिए सामुदायिक परियोजनाओं में एक साथ काम कर रहे थे। इन मुलाकातों ने उनके बीच एक अनोखे रिश्ते को जन्म दे दिया था, कि न तो यह वह पुराना प्रेम था, जो कभी उनके दिलों को बाँधे हुए था, न ही यह पूर्ण वैराग्य था, जो राघवी ने साध्वी बनकर अपनाया था। यह एक नया बंधन था, जो देह और आत्मा के बीच की महीन रेखा को समझने की कोशिश कर रहा था। यह रिश्ता न तो इच्छाओं से बंधा था, न ही राग-द्वेष से मुक्त था- यह एक ऐसी खोज थी, जो दोनों को एक गहरे आत्मिक स्तर पर एक-दूसरे के और करीब ले जा रही थी।

शरद ऋतु का आगमन हो चुका था। हवा में ठंडक थी, और रावी नदी अपनी स्वाभाविक गति से बह रही थी। उसका जल सूरज की किरणों में चमक रहा था, मानो प्रकृति भी इस मौसम की सुंदरता में खोई हो। नदी के घाट पर एक छोटा-सा सामुदायिक आयोजन था, जिसमें मंजीत और राघवी दोनों शामिल थे। आयोजन में स्थानीय बच्चों के लिए शिक्षा और पर्यावरण जागरूकता पर चर्चा हुई थी। मंजीत ने बच्चों को कहानियों के माध्यम से प्रकृति से जुड़ने की प्रेरणा दी, जबकि राघवी ने जैन धर्म की अहिंसा और संयम की शिक्षाओं को सरल शब्दों में समझाया। दोनों का एक साथ काम करना, उनकी ऊर्जा और विचारों का संगम, सभी के लिए प्रेरणादायक था।

आयोजन के समापन के बाद, जब सूरज धीरे-धीरे डूब रहा था और आकाश नारंगी-गुलाबी रंगों से सज गया था, मंजीत ने राघवी से अकेले में बात करने की इच्छा जताई। राघवी ने हल्की मुस्कान के साथ सहमति दे दी। दोनों नदी के किनारे एक स्वच्छ, चिकनी शिला पर जाकर बैठ गए। चारों ओर शांति थी, केवल नदी के जल की हल्की-सी छलछलाहट और दूर कहीं पक्षियों की आवाज सुनाई दे रही थी। मंजीत ने गहरी साँस ली, जैसे वह अपने मन के भारीपन को हल्का करना चाहता हो। फिर उसने धीरे से कहा, ‘रागिनी, मैं जानता हूँ कि तुम अब साध्वी राघवी हो। तुमने एक नया जीवन चुना है, और मैं उसका सम्मान करता हूँ। लेकिन मेरे लिए तुम अब भी वही रागिनी हो, जिसके साथ मैंने कभी एक जिंदगी का सपना बुना था। मैं तुम्हें वापस नहीं माँग रहा, न ही पुराने दिनों में लौटने की कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी सच्चाई जानो। मेरा प्यार कभी तुम्हारी देह तक सीमित नहीं था। यह उससे कहीं गहरा था, और अभी भी है।’

राघवी ने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में एक गहराई थी, जो उसे हमेशा आकर्षित करती थी। लेकिन आज उन आँखों में एक नई शांति भी थी, एक ऐसी शांति जो साधना और आत्म-नियंत्रण से आती है। मंजीत के शब्दों ने उसके मन में एक हल्की-सी हलचल मचा दी थी। ये शब्द साधारण नहीं थे;  यह वह प्रेम था, जो देह से परे, आत्मा की गहराइयों को छू रहा था। नताशा के पत्र ने जो डर उसके मन में रोप दिया था, वह अब धीरे-धीरे उखड़ रहा था। उसने शांत स्वर में कहा, ‘मंजीत, मैंने भी बहुत सोचा है... साधना ने मुझे सिखाया कि देह नश्वर है, लेकिन प्रेम, अगर वह राग-द्वेष से मुक्त हो, तो अमर हो सकता है! मैं डर गई थी, क्योंकि मुझे लगा था कि प्रेम में देह की चाह ही सब कुछ है। लेकिन तुम्हारी बातें, तुम्हारा बदलाव... यह मुझे दिखा रहा है कि प्रेम उससे कहीं गहरा है।’

मंजीत ने एक पल रुककर उसकी बातों को आत्मसात किया। फिर उसने हिम्मत जुटाकर कहा, ‘रागिनी, क्या हम एक बार फिर से शुरूआत कर सकते हैं!’ 

राघवी ने उसकी ओर नजरें उठाईं, जिनमें एक गहरा सवाल था। मगर इससे पहले कि वह कुछ कह पाती, मंजीत ने जल्दी से कहा, ‘न-न, मैं देह की बात नहीं कर रहा, न ही इच्छाओं की। मैं चाहता हूँ कि हम एक-दूसरे की आत्मा को समझें। मैं यह जानना चाहता हूँ कि वह चिड़िया, जो इस देह के जंगल में कहीं छिपी है, वह आखिर रहती कहाँ है?’

राघवी एक पल के लिए हतप्रभ रह गई। मंजीत के शब्दों में एक ऐसी गहराई थी, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। उसने रावी की ओर देखा, जहाँ चाँद की किरणें जल पर नाच रही थीं। फिर उसने मंजीत की आँखों में देखा और सोच-समझकर कहा, ‘मंजीत, मैं एक साध्वी हूँ। मेरी जिम्मेदारियाँ हैं, मेरे नियम हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं तुम्हारी भावनाओं को नहीं समझती। मैं तुम्हें एक दोस्त के रूप में, एक आत्मा के रूप में स्वीकार कर सकती हूँ। लेकिन हमें यह समझना होगा कि प्रेम का असली आनंद देह में नहीं, बल्कि मन की शांति और आत्मा की एकता में है।’

...

समय बीतने लगा, और उस बीतते समय के साथ राघवी और मंजीत का रिश्ता एक अनोखे रूप में ढलने लगा। मंजीत ने आश्रम में नियमित रूप से आना शुरू कर दिया था। वह राघवी के प्रवचनों को ध्यान से सुनता, जैन धर्म की शिक्षाओं को समझने की कोशिश करता। राघवी भी मंजीत के इस बदलाव से प्रभावित थी। वह देख रही थी कि मंजीत अब पहले जैसा बेचैन नहीं था। उसने अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना सीख लिया था, और उसकी बातों में अब एक नई परिपक्वता थी।

एक शाम, आश्रम में एक विशेष ध्यान सत्र का आयोजन था। सत्र के बाद जब सब लोग अपने-अपने स्थान पर लौट गए, मंजीत और राघवी आश्रम की चारदीवारी से निकलकर रावी के घाट पर आ बैठे। मौसम में अब पहले से अधिक ठंडक थी और चाँद की शीतल किरणें दोनों के चेहरों को और ठंडा कर रही थीं। 

मंजीत ने धीरे से कहा, ‘रागिनी, खुले में यहां ठंडक महसूस हो रही है...!'

रागिनी बोली, 'चलो, निर्मल माताजी की कुटिया में बैठें।'

पर वहां पहुंचे तो टट्टर बंद था। 

'अरे, ये तो अभी तक आश्रम से ही नहीं लौटीं!' यकायक मंजीत के मुंह से निकला।

'कोई बात नहीं, अंदर बैठते हैं...' कहते रागिनी ने कुटिया का बांस का फाटक जो कपड़े से मढ़ा था, खोल लिया। अंदर एक दीपक जल रहा था, जिसकी रोशनी में वे उसमें बिछी चौकी पर आकर बैठ गए। तब मंजीत उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला, 'रागिनी, जी, मैंने बहुत सोचा। तुम सही थीं। प्रेम देह से शुरू हो सकता है, लेकिन उसका असली सुख आत्मा की शांति में है। मगर मैं यह भी मानता हूँ कि देह का आकर्षण गलत नहीं है। यह हमारा स्वभाव है।’

राघवी ने हल्के से मुस्कुराकर कहा, ‘मंजीत, देह का आकर्षण गलत नहीं है, लेकिन उसे समझना जरूरी है। प्रेम में मिलन एक हिस्सा हो सकता है, लेकिन वह प्रेम का आधार नहीं है। अगर प्रेम केवल देह तक सीमित हो, तो वह क्षणिक और अगर आत्मा तक पहुँचे, तो अनंत।’

मंजीत ने उसकी बात को गहराई से सुना। फिर दोनों ने एक-दूसरे के साथ खुलकर बात की। राघवी ने बताया कि कैसे नताशा के पत्र ने उसके मन में डर भर दिया था, और कैसे उसने अपनी साधना के जरिए उस डर को पार किया। मंजीत ने भी अपनी कमजोरियों को स्वीकार किया और बताया कि कैसे उसने रागिनी की यादों को अपनी ताकत बनाया, और कैसे वह अब प्रेम को एक नए दृष्टिकोण से देखने लगा है...।

बातों के बीच, मंजीत ने राघवी का चेहरा अपनी हथेलियों में थामने की कोशिश की तो वह एक पल के लिए तो हिचकिचा गई, क्योंकि उसका मन साध्वी राघवी के नियमों और रागिनी की भावनाओं के बीच उलझ गया था। लेकिन दो पल बाद ही उसने अपना चेहरा मंजीत की बढ़ी हुई हथेलियों को सौंप दिया; इसी बोध के चलते कि भावना को शून्य कर लो तो चेहरा तो मांस का लोथड़ा है! और जब मंजीत ने अनायास अपने ओठ उसके ओठों पर रख दिये तो इसी बोध से उसने जाना कि यह स्पर्श देह का नहीं था, न ही इच्छा का; यह दो आत्माओं का मिलन था, जो एक-दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। 

उसने धीरे से कहा, ‘मंजीत, तुम्हारे लिए यह स्पर्श देह का हो सकता है, लेकिन मेरे लिए यह तुम्हारी आत्मा का साथ है।’

मंजीत के लिए यह सुनना बहुत मायने रखता था। अब वह आगे बढ़ सकता था। उसने पूछा, 'क्या निर्मल माताजी अब नहीं आएंगी?'

'शायद, नहीं,' राघवी बोली, 'ध्यान शिविर वाले दिन व्यवस्था के लिए अक्सर वे आश्रम में रुक जाती हैं।'

'फिर, आज हम लोग यहां रुक सकते हैं!' उसने अनुरोध किया।

'जरूर!' राघवी को कोई डर न था। वह तो तीर्थंकर भगवान की वाणी पर दृढ़ थी, 'मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणइ।'

रात्रि-भक्ति का त्याग होने की वजह से भोजन वे करके ही चले थे, सो इत्मिनान से उसी चौकी पर लेट गए। 

रागिनी आत्म-नियंत्रित थी, आंख बंद करते ही उसे नींद आ गई। तब मंजीत भी मन को साध कर थोड़ी देर में सो गया। उसके बाद सोते-सोते रागिनी ने उसकी ओर करवट ले ली और मंजीत ने उसकी ओर। यों सीना सीने से, कमर कमर से और चेहरा चेहरे से जुड़ गया। और तब साध्वी तो बदस्तूर सोती रही, पर मंजीत की नींद उचट गई। उसे याद आया वह दिन, जब गोष्ठी में उसने कलम के बहाने पहली बार रागिनी की उंगलियाँ चूमी थीं, अपने होठों में एक करंट-सा महसूस किया था। लेकिन आज का यह स्पर्श उससे भिन्न था। यह शुद्ध था, गहरा था, और इसमें एक अनकहा विश्वास था। उसने दिल पर हाथ रखकर कहा, ‘रागिनी! मैंने समझ लिया है, प्रेम में देह का आनंद हो सकता है, लेकिन असली सुख आत्मा की एकता में है...। मैं तुम्हें अब सिर्फ रागिनी के रूप में नहीं, बल्कि एक आत्मा के रूप में भी देखता हूँ।’

उस रात, नदी के किनारे, निर्मलमति की कुटिया में, दोनों ने एक-दूसरे से सटकर एक ऐसी शांति महसूस की, जो शब्दों से परे थी। यह न तो प्रेम की शुरुआत थी, न ही अंत। यह एक ऐसी यात्रा थी, जो देह और आत्मा के बीच की उस गठान को खोलने की ओर बढ़ रही थी, जिसे कोई विरला ज्ञान-मार्गी ही खोल पाता है। 

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