Naari Bhakti Sutra - 22 in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 22.भक्ति के ग्यारह तरीके

Featured Books
Categories
Share

नारद भक्ति सूत्र - 22.भक्ति के ग्यारह तरीके

22.
भक्ति के ग्यारह तरीके

त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरियसी भक्तिरेव गरियसी ॥८१॥
अर्थ : तीनों सत्यों (कायिक, वाचिक, मानसिक) में भक्ति ही श्रेष्ठ है ।।८१।।

ईश्वर को प्राप्त करने के अध्यात्म में अलग-अलग मार्ग, साधनाएँ हैं। जैसे योग, ईश्वर ध्यान, जप, तप, सेवा आदि। इन साधनाओं को मनुष्य तीन तरीके से करता है– शरीर से, मन से और वचन से। इन्हें क्रमशः कायिक, मानसिक और वाचिक साधनाएँ कहा जाता है। उदाहरण के लिए श्रम सेवा, तीर्थयात्रा, योगासन हठयोग आदि शरीर से की जानेवाली साधना है। बैठकर ध्यान करना मानसिक साधना है। मंत्रोचारण, पूजा-पाठ वाचिक साधना है।

नारद जी प्रस्तुत सूत्र में भक्ति को इन सभी साधनाओं में श्रेष्ठ बताते हैं। वह इसलिए क्योंकि भक्ति को छोड़कर बाकी सभी साधना पद्धतियों में साधक को कुछ न कुछ करने को कहा जाता है, जिसके लिए उसे संकल्प लेने पड़ते हैं, प्रयास करने पड़ते हैं। खुद को बदलने के लिए बहुत श्रम करने पड़ते हैं। अतः इन साधनों में साधक का अहंकार नहीं गिर पाता बल्कि उसे अपनी साधना का अहंकार होने लगता है। वह सोचने लगता है, ‘देखो, मैंने साधना में यह छोड़ दिया, इतना-इतना जप किया, फलां-फलाँ साधनाएँ की आदि। पहले उसे सांसारिक प्राप्तियों का अहंकार होता था। अब साधना और आध्यात्मिक प्राप्तियों का अहंकार होने लगता है। अहंकार वहीं के वहीं रहता है, गिरता ही नहीं।

जबकि भक्ति में भक्त को कुछ करना नहीं होता। न बदलना होता है, न कुछ पाना होता है, न छोड़ना होता है क्योंकि भक्ति ही वह मार्ग है जिसमें सब छूटने योग्य चीजें खुद ही छूट जाती हैं और पाने योग्य ईश्वर स्वयं प्राप्त हो जाता है।

तेज़ हवाओं में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए प्रयासशील पेड़ के किसी पत्ते को देखिए। पेड़ से जुड़े पत्ते कैसे हिलते रहते हैं और पूरी कोशिश करते हैं कि पेड़ से जुड़े रहें। मगर एक ज़मीन पर पड़ा टूटा हुआ पत्ता देखिए, वह कैसे हवा के रुख के साथ बहता चला जाता है... कहीं कोई प्रतिरोध नहीं होता। उसे किसी से जुड़े रहने की चिंता नहीं होती, ना ही कुछ छूट जाने या स्वयं को खो देने का डर होता है। हवा उसे जहाँ ले जाकर बिठा देती है, वह वहीं बैठ जाता है।

साधक को पेड़ के पत्ते की तरह समझें, जो कुछ न कुछ पकड़े रखता है। कभी कुछ त्यागने का संकल्प तो कभी कुछ पाने की इच्छा, भले ही वह ईश्वर ही क्यों न हो, कुछ न कुछ पकड़कर ही रखता है। उसकी यह पकड़ तभी छूटती है, जब वह साधक से भक्त बनता है।

टूटे हुए पत्ते को भक्त समझें, जो हर बंधन को तोड़कर मुक्त हो जाता है। अब हवा (ईश्वर, कुदरत) उसे जिधर ले जाए, वह जाने को तैयार है। न कोई शिकायत, न प्रतिरोध, न उड़ने की इच्छा, न बचने का संघर्ष... बस उस हवा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से उसी के भरोसे निश्चिंत रहता है।

यह समर्पण भाव, जो एक भक्त सहज ही पा लेता है, बड़े से बड़ा ज्ञानी और साधक नहीं पाता। जबकि इसके बिना ईश्वर प्राप्ति (स्वबोध) संभव ही नहीं है। असल में किसी भी मार्ग से ईश्वर की ओर चले, उस तक पहुँचने का अंतिम पड़ाव भक्ति ही है इसीलिए भक्ति श्रेष्ठ है।

बड़ी-बड़ी साधनाओं के चक्कर में वे ही साधक पड़ते हैं, जिनका लक्ष्य ईश्वर नहीं बल्कि सिद्धि, शक्ति की प्राप्ति होती है। आपने ऐसे कुछ साधकों, योगियों के बारे में सुना-पढ़ा होगा, जिन्होंने कुछ ऐसे काम किए, जो आम आदमियों को चमत्कार लगते हैं। जैसे बिना भोजन के जीवित रहना, बिना सोए रहना, हवा में उड़ना, पानी पर चलना, आग में जाकर भी सुरक्षित रह लेना, भविष्य देख लेना आदि...। लेकिन ये एक प्रकार की सिद्धियाँ हैं, स्वबोध या मुक्ति पाना नहीं। जिन्हें सिर्फ ईश्वर को अनुभव से जानना है, उनके लिए तो उसे प्रेम करना ही काफी है। अतः सम रहकर, अपने कर्तव्य निभाते हुए, ईश्वर से निष्काम प्रेम करते रहें, वह अवश्य ही मिल जाएगा।

गुण महात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति कमवणासक्ति दाक्यासक्ति सख्यासक्ति कांतासक्ति वात्सल्यासक्ति त्मनिवेदनासक्ति तन्मयासक्ति परविरहासक्ति रूपाधाप्येका एकदशधाभवति ॥८२॥
अर्थ : एक होते हुए भी (भक्ति) ग्यारह प्रकार की है। गुणमहात्म्यासक्ति, रूपासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणासक्ति, दास्यासक्ति, साख्यासक्ति, कान्तासक्ति, वात्सल्यासक्ति, तन्मयासक्ति, आत्मनिवेदनासक्ति, परमविरहासक्ति।।८२।।

एक बार एक राजा ने अपने सैनिकों को एक पुरुष का चित्र देकर कहा, 'जाओ इसके बारे में इसके मित्र, परिचित और रिश्तेदारों से ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी लेकर आओ।' सैनिक वह चित्र लेकर नगर की ओर चल दिए। पहले उन्होंने एक व्यक्ति को चित्र दिखाया तो वह बोला, 'अरे यह मेरा मित्र है। मैं अपने दिल की हर बात इसे कह सकता हूँ, इस पर विश्वास कर सकता हूँ। यह मेरी बड़ी से बड़ी समस्याओं को यूँ ही हल कर देता है। इस जैसा मित्र और कोई नहीं।'

सारी बातें नोट कर सैनिक एक वृद्ध दंपत्ति के पास गए। उन्होंने बताया, 'यह हमारा बेटा है। बड़ा ही आज्ञाकारी और सेवाधारी है। स्वभाव से थोड़ा चंचल है। जब यह घर पर आता है तो हम इसके लिए अच्छे-अच्छे व्यंजन बनाते हैं, यह बहुत खुश होता है। इसके आने से ही हमारे घर में रौनक आती है। भगवान ऐसा बेटा सबको दे।'

उसके बाद सैनिक दो और लोगों के पास गए। उन्होंने कहा, 'ये हमारे मालिक हैं, हम इनके यहाँ नौकरी करते हैं। ये बेहद अनुशासित और कठोर हैं जरा सी गलती भी बर्दाश्त नहीं करते।'

फिर सैनिक एक स्त्री के पास गए। उसने बताया, 'ये मेरे प्रियतम हैं, मैं इन्हें प्रेम करती हूँ, यह बहुत शांत और विनम्र स्वभाव के हैं। मुझसे बहुत प्रेम करते हैं, मेरी हर इच्छा का, हर बात का सम्मान करते हैं। मैं जिस दिन इन्हें ना देखु, लगता है दिन ही व्यर्थ हो गया।'

इस तरह से सैनिक कुछ और लोगों के पास गए, सबने उस पुरुष के लिए अलग-अलग बातें बोलीं।

देखा आपने, चित्र एक ही था, पुरुष एक ही था किंतु कोई उसे बेटा मानकर प्रेम करता था, कोई प्रियतम मानकर, कोई उसे मित्र मानता था तो कोई मालिक। अलग-अलग लोगों के उससे अलग-अलग रिश्ते जुड़े हुए थे। वे उन्हीं रिश्तों के अनुसार उससे व्यवहार करते थे।

ईश्वर के साथ भी ऐसा ही होता है, वह एक ही है लेकिन उसके भक्त उससे अलग-अलग रिश्ते जोड़कर, उसकी भक्ति करते हैं। भक्ति तो प्रेम है और प्रेम शुद्ध एवं पूर्ण है। ये तो भक्त ही हैं, जो अपने भाव और स्वभाव अनुसार ईश्वर से अलग अलग रिश्ते बनाते हैं और अपने तरीके से ईश्वर की भक्ति करते हैं।

नारद जी प्रस्तुत सूत्र में भक्तों के भक्ति करने के ग्यारह अलग-अलग तरीके बता रहे हैं। हर तरीके में भक्त भगवान से अलग तरह का संबंध बना रहा है। किसी में उसे पिता मान रहा है, किसी में प्रेमी, किसी में स्वामी तो किसी में सखा। आइए, देखते हैं नारद जी के अनुसार ये ग्यारह प्रकार की भक्ति कौन सी हैं।

१. गुणमहात्म्य आसक्ति नारद जी पहले प्रकार की भक्ति गुण-महात्म्य आसक्ति बता रहे हैं, जिसमें इस संपूर्ण जगत को भगवान का प्रकट रूप जानकर, उनकी भक्ति की जाती है। उनके गुणों की, महिमाओं की सराहना, स्तुति की जाती है। इस भक्ति में चल-अचल, जड़-चेतन स्वरूप को उसी ईश्वर का स्वरूप मानकर उसे ही अनुभव किया जाता है।

२. रूप आसक्ति इस प्रकार की भक्ति में ईश्वर के किसी साकार रूप की भक्ति की जाती है। उसी रूप को चैतन्यस्वरूप मानकर और हृदय में धारण कर, भक्त भक्ति में लीन रहता है।

३. पूजा आसक्तिइस प्रकार की भक्ति में भक्त ईश्वर के लिए प्रचलित पूजाउपासना पद्धतियों का पालन कर, बताए हुए नियमों का अनुसरण कर, भक्ति करता है। ऐसी भक्ति में कर्मकाण्ड अधिक होता है। किंतु यह कर्मकाण्ड अगर भक्त के भक्ति भाव को प्रगाढ़ करे तो इसमें कोई बुराई नहीं।

४. स्मरण आसक्ति इस प्रकार की भक्ति में भक्त ईश्वर को हमेशा स्मरण करता रहता है। उसके नाम का जाप करता रहता है।

५. दास्य आसक्ति इस प्रकार की भक्ति में भक्त स्वयं को प्रभु का दास मानकर भक्ति करता है। इसका सबसे आदर्श उदाहरण हनुमान जी की श्रीराम के प्रति भक्ति है। वे स्वयं को श्रीराम का दास मानकर, उनके निमित्त कठिन से कठिन कार्य कर जाया करते थे।

६. साख्य (सखा) आसक्ति इस प्रकार की भक्ति में भक्त ईश्वर को अपना मित्र मानकर, अपना सुख-दुःख साँझा करते हुए उनकी भक्ति करता है। जैसे अर्जुन, उद्धव, सुदामा, द्रौपदी ने श्रीकृष्ण की सखा भाव से भक्ति की। ऐसी भक्ति में भक्त ईश्वर पर मित्र की भाँति पूरा अधिकार समझता है।

७. कान्ता आसक्ति इस प्रकार की भक्ति में भक्त ईश्वर को अपना प्रियतम और स्वयं को उसकी प्रेमिका मानता है। वह कहता है एक प्रभु ही पुरुष हैं, बाकी सब उसकी प्रियतमा हैं। ज़्यादातर कृष्णभक्त इसी भाव से भक्ति करते हैं और उनकी प्रेयसी की भावदशा में रहते हैं। राधा, गोप-गोपियाँ, मीरा, चैतन्य महाप्रभु, रसखान आदि इसी भाव से कृष्ण भक्ति किया करते थे।

८. वात्सल्यासक्ति इस प्रकार की भक्ति में भक्त ईश्वर को संतान मानकर, उनसे प्रेम करता है। बहुत से घरों में श्रीकृष्ण के बालरूप लड्डू गोपाल को रखकर उसे बच्चा मान उसकी सेवा, पूजा, भोग आदि किया जाता है।

९. तन्मय आसक्ति यह योगियों, स्वअनुभवियों की भक्ति है। जिसमें ध्यान आदि के द्वारा अपनी चेतना को ईश्वरीय चेतना में लीन कर, उससे एकम् यानी अभिन्नता के भाव में रहा जाता है। भक्त हर समय उसी ईश्वरीय चेतना में तन्मय (लीन) रहकर जीता है।

१०. आत्मनिवेदन आसक्ति यह समर्पण भक्ति है। इस प्रकार की भक्ति में भक्त ईश्वर को अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है और फिर जो भी मिलता है, उसे ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण कर लेता है। ऐसा भक्त सदा संतुष्ट और निश्चिंत रहता है। वह ईश्वर की मर्ज़ी से, उससे मार्गदर्शन लेकर ही जीवन जीता है।

११. परमविरहासक्ति ऐसी भक्ति में भक्त प्रभु से वियोग और विरह का अनुभव करके, उनसे पुनः मिलने के लिए तड़पता है। आत्मज्ञान पाने से पूर्व बहुत से भक्तों की यही दशा होती है। मीरा ने अपनी विरह व्यथा में श्रीकृष्ण के लिए बहुत से भजन लिखे हैं। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद पूरा गोकुल ऐसी ही परम विरह भक्ति में लीन रहता था। चैतन्य महाप्रभु का भी श्रीकृष्ण को खोजते हुए यही भाव था।

जैसा कि पहले भी कहा गया है, भक्ति में कोई नियम नहीं होता, उसमें प्रेम करना ही काफी है। अतः भक्त यहाँ बताई गई भक्ति के तरीकों के अतिरिक्त ईश्वर से जो चाहे संबंध बाँध सकते हैं। जैसे बहुत सी महिलाएँ अपने आराध्य देव को भाई मानकर, रक्षाबंधन पर उन्हें भी राखी बाँधती हैं। रामकृष्ण परमहंस काली देवी को माँ कहकर पुकारते थे और स्वयं को उनका छोटा बच्चा समझते थे। ईसामसीह भी प्रभु को पिता कहते थे।

तात्पर्य— ईश्वर, अल्लाह, वाहेगुरु... चैतन्य, चेतना सभी एक ही हैं। भक्त को उसकी भक्ति जिस विधि से सरल लगे, जिस तरीके से उसमें भाव जगे, वही विधि उसे अपनानी चाहिए। किसी की देखा-देखी भक्ति नहीं करनी चाहिए।

इत्यिवं वदन्ति जनजल्पनिर्भया एकमताः कुमारव्यास शुकशांडिल्य गर्गविष्णुकौडिन्य शेषोध्दवारुणिबलिहनुमद्विबिभीषणादयो भक्त्याचार्याः॥८३॥
अर्थ : सभी भक्ति के आचार्य, जगत निंदा से निर्भय होकर, इसी एक मत के हैं। सनत् कुमार आदि, वेदव्यास, शुकदेव, शाण्डिल्य, गर्ग, विष्णु कौडिन्य, शेष, उद्धव, आरूणि, बलि, हनुमान, विभीषण ।। ८३ ।।

नारदजी अपने अंतिम सूत्रों में, शास्त्रों-पुराणों आदि में वर्णित भक्ति तत्त्व के श्रेष्ठ आचार्यों, भक्तों का नाम लेकर, अपनी बात प्रमाणित कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, लोग चाहे कुछ भी कहें, कैसी भी निंदा-स्तुति करें, इसका उन्हें और मुझे कोई भय नहीं क्योंकि सत्य तो यही है— भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है'। वैसे भी जो प्रेम के राही हैं, वे कब किसी की निंदा-स्तुति से डरते हैं। मीरा का जीवन देखिए, चैतन्य महाप्रभु का जीवन देखिए, संत ज्ञानेश्वर, जीज़स, मंसूर का जीवन देखिए... लोगों ने उनकी राह में कितने काँटे बिछाए मगर भक्त प्रेम से नहीं हटे। ना गिरे, ना अहंकार की सीढ़ी चढ़े क्योंकि जो भक्त हो गया, वह हर बंधन से मुक्त हो गया।

य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रध्दत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभत इति ॥ ८४॥।
अर्थ : जो इस नारद कथित शिवानुशासन में विश्वास तथा श्रद्धा रखता है वह प्रियतम को पाता है, वह प्रियतम को पाता है ।।८४।।

इस अंतिम सूत्र के साथ नारदमुनि 'नारद भक्ति सूत्र' का समापन करते हुए कहते हैं, जो भी भक्ति का ज्ञान उन्होंने इन सूत्रों में दिया है, वे उनके मात्र वाचक हैं, ज्ञान का मूल स्त्रोत तो शिव (परमसत्य, परमचैतन्य) है। वहीं से भक्ति के सारे रहस्य आ रहे हैं। वास्तव में संसार में विद्या, ज्ञान, समझ सब एक ही स्त्रोत से आया है। वही ईश्वर है जो हर शरीर में चेतना रूप में रहता है। जो ईश्वर को तत्त्व से जानता है, वही स्वयं को निमित्त मान, ईश्वर को स्त्रोत मानता है। जबकि, अज्ञानी जन खुद को ज्ञाता समझकर अहंकार बढ़ाते हैं।

नारदजी आगे कहते हैं, जो भक्त भक्ति के इन सूत्रों की समझ जीवन में उतार लेता है, उसे ईश्वर तक पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता। वह स्वबोध को पाकर स्वयं ही भगवान से ऐक्य स्थापित कर, वही हो जाता है।

नारद भक्ति सूत्र के साथ अब तक आपने भक्ति के हर पहलू को समझा लेकिन यह ज्ञान तब तक कोरा है, जब तक यह आपके भाव स्तर पर नहीं उतरता। कुछ ज्ञानी लोग भक्ति को भी बुद्धि के स्तर पर ही समझते हैं, उसके बारे में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, वे सच में ईश्वर के प्रेम में नहीं पड़े होते। उन्हें प्रेम होता है अपने पांडित्य से, अपनी वाह-वाही से... और उनसे, जो उनके बघारे गए ज्ञान वाक्यों की प्रशंसा कर, उनके अहंकार को मोटा करते रहते हैं।

कुछ लोग आध्यात्मिक किताबें अपनी बौद्धिक संतुष्टि के लिए पढ़ते हैं। मगर आपको भक्ति में अपने लिए कुछ पाना नहीं है बल्कि जो भी आपके मन, बुद्धि, अहंकार ने जमा किया हुआ है, उसे ईश्वर के निमित्त छोड़ना है। आपको भक्ति के नाम पर फैली इस माया से मुक्त होना है। भक्ति को सुनना-कहना नहीं, उसे पी जाना है...।

जब आपके हृदय से ईश्वर के लिए करुण पुकार उठने लगे, तीव्र भाव जगने लगे, माया से ज़्यादा ईश्वर का नाम लेने में, उसे याद करने में आनंद आने लगे तब समझिए आपने भक्ति का स्वाद चख लिया। भक्ति ही वह रास्ता है जिसमें आप अपने भीतर की असली खुशी पाएँगे। फिर आपको क्षणिक और झूठी खुशी के लिए माया में भटकने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

अगर भक्ति करते हुए आप कहीं अटकें, भटकें तो नारदमुनि द्वारा दिए गए चौरासी भक्ति सूत्र आपकी भक्ति की रक्षा करेंगे। इनमें दी गई समझ को आत्मसात कर लिया तो आपकी भक्ति ना कहीं अटकेगी, ना भटकेगी, ना अंधभक्ति बनेगी। यह निरंतर बढ़ती हुई मंज़िल यानी मुक्ति पर अवश्य पहुँचेगी।