साल 1947।
भारत आज़ादी की दहलीज़ पर खड़ा था, और हर दिशा में जैसे कोई अनसुनी धुन गूंज रही थी। लोग बेकरार थे, धरती अधीर थी, और समय जैसे थम सा गया था। लेकिन जिन आंखों ने कभी सूरज को देखा नहीं, उन आँखों में भी उम्मीदों की लपटें थीं।
अंजलि अब 17 साल की हो चुकी थी। अंग्रेज़ों की गिरफ्त से छूटे तीन साल हो चुके थे, लेकिन उसके जीवन की रफ्तार कभी ठहरी नहीं। वो दिन-रात आज़ादी के विचार को जन-जन तक पहुँचाने के काम में लगी थी – अपने गीतों से, अपनी बातों से, अपने संकल्प से।
🔸 एक नया सपना – दृष्टिहीनों की टोली
पटना के एक पुराने हवेलीनुमा घर में अंजलि ने एक छोटी टोली बनाई थी – पाँच नेत्रहीन बच्चे, जिनमें से कुछ गाते थे, कुछ ब्रेल में लिखना सीख रहे थे, और कुछ सिर्फ उसकी आवाज़ को सुनते हुए आज़ादी को समझने की कोशिश करते थे।
उसका सपना था कि जब तिरंगा फहराया जाए, तो नेत्रहीन भी उसकी "ध्वनि" को सुनें – क्योंकि जो देख नहीं सकते, वो भी तो महसूस कर सकते हैं।
उसने सभी बच्चों को ब्रेल में राष्ट्रगान सिखाना शुरू किया। हर धुन को उंगलियों से महसूस करवाया। हर शब्द को स्पर्श के ज़रिए आत्मा तक पहुँचाया।
🔸 14 अगस्त 1947 की रात
वो रात बहुत लंबी थी। आसमान में कहीं बारूद की बू थी, तो कहीं दीयों की रौशनी। लोग एक-दूसरे को मिठाइयाँ बाँट रहे थे। कुछ लोग झूम रहे थे, कुछ रो रहे थे – किसी को बंटवारे का डर सता रहा था, किसी को नई सुबह की बेचैनी।
अंजलि ने अपनी टोली को बुलाया और कहा –
> “कल सूरज आज़ाद भारत में उगेगा। हमने उसे देखा नहीं, पर हम उसका गीत ज़रूर गायेंगे। हमें कोई देखे न देखे, पर हम खुद को देख पाएँगे – यही असली आज़ादी है।”
रात भर वे बच्चे राष्ट्रगान की ब्रेल स्क्रिप्ट पर उंगलियाँ फिराते रहे। गीत के हर शब्द को आत्मसात करते रहे। आँखें बंद थीं, पर दिलों में तिरंगा लहरा रहा था।
🔸 15 अगस्त – सुबह की पहली किरण
पटना के गाँधी मैदान में भीड़ उमड़ पड़ी थी। चारों ओर जश्न का माहौल था। जैसे ही दिल्ली में पंडित नेहरू का भाषण शुरू हुआ – “At the stroke of the midnight hour…” – अंजलि की टोली ने गाँधी मैदान के किनारे खड़े होकर ब्रेल में राष्ट्रगान गाया।
भीड़ एक पल को चुप हो गई।
किसी को समझ नहीं आया कि ये गीत कहाँ से आ रहा है। फिर अचानक एक महिला चिल्लाई – “अरे, ये तो अंधे बच्चे हैं…!”
लोगों की आँखें भर आईं।
जो बच्चे अब तक कोनों में धकेल दिए जाते थे, वे आज तिरंगे की लहरों में सुर बन चुके थे। उन्होंने सिर्फ गीत नहीं गाया – उन्होंने उस दिन आजादी को गाया।
🔸 अंजलि की आंखों से तिरंगे की अनुभूति
जब सारे बच्चे थककर चुप हो गए, अंजलि ने अपनी माँ की चूड़ी हाथ में पकड़ी और कहा:
> “माँ, आज तिरंगा हवा में नहीं, मेरे भीतर लहरा रहा है। मैंने उसकी आवाज़ सुनी, उसकी खुशबू महसूस की, और उसके रंगों को अपने दिल में गूँथ लिया है।”
वो मुस्कुराई – और वो मुस्कान उस दिन हर भारतीय की थी।
🔸 मीडिया और चर्चा
अगले दिन स्थानीय अखबारों में एक छोटी-सी खबर थी:
“नेत्रहीन बच्चों ने गाँधी मैदान में ब्रेल में राष्ट्रगान गाया। भीड़ रो पड़ी।”
किसी ने उनका नाम नहीं पूछा, किसी ने उनकी तस्वीर नहीं ली – लेकिन जो ध्वनि उस दिन गूंजी, वो हवा में तैरती रही।
🔸 बदलाव की शुरुआत
उस दिन के बाद, अंजलि के पास आसपास के गाँवों से कई नेत्रहीन बच्चे लाए गए। माता-पिता कहने लगे – “अगर अंजलि जैसी लड़की देश के लिए गा सकती है, तो हमारे बच्चे क्यों नहीं?”
पटना विश्वविद्यालय के कुछ प्रोफेसरों ने मिलकर अंजलि को “सम्मान पत्र” देने का प्रस्ताव रखा। लेकिन अंजलि ने विनम्रता से कहा:
> “मैं सम्मान नहीं चाहती, मैं अवसर चाहती हूँ – ताकि हर नेत्रहीन बच्चा खुद को सम्मान देने लायक समझे।”
🔸 एक नया लक्ष्य
अब अंजलि की आँखों में आज़ादी के बाद का सपना था – दृष्टिहीनों के लिए एक शिक्षालय, एक ऐसा स्थान जहाँ वो गीत गाकर संविधान पढ़ सकें, जहाँ वो राष्ट्र को सिर्फ शब्दों में नहीं, भावनाओं में गूंथ सकें।
उन्होंने इसका नाम रखा – “श्रवणशक्ति केंद्र”।
एक जगह, जहाँ ध्वनि ही रोशनी थी। जहाँ छूकर पढ़ना था, सुनकर समझना था, और गाकर जीना था।