Andhere ki Anjali - 5 in Hindi Biography by Vrunda Amit Dave books and stories PDF | अंधेरे की अंजली - भाग 5

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अंधेरे की अंजली - भाग 5

भारत आज़ाद हो चुका था। सड़कों पर अब पुलिस की वर्दी बदल चुकी थी, अंग्रेज़ी बोलने वाले अफसर अब भारतीय बन गए थे, और सरकारी भवनों पर यूनियन जैक की जगह तिरंगा लहरा रहा था। लेकिन आज़ादी के उस पर्व के बाद भी कई आवाज़ें थीं जो अंधेरे में गुम थीं – उन आवाज़ों में एक थी अंजलि शास्त्री की।

अंजलि को सम्मान मिला, पहचान मिली, लेकिन उसने आराम नहीं चुना। उसे याद थी अपनी माँ की बात – "तू अकेली नहीं, तेरे जैसी हजारों बेटियाँ हैं जिन्हें देखना नहीं आता, लेकिन जीना आता है।"

एक आश्रम की नींव:

1948 की जनवरी में, अंजलि ने पटना के बाहरी इलाके में एक पुराना ढहता हुआ मकान किराए पर लिया। वहाँ उसने पाँच नेत्रहीन बच्चों के साथ मिलकर एक संस्था की शुरुआत की – ‘श्रवणशक्ति आश्रम’। इस आश्रम का उद्देश्य था:

नेत्रहीन बच्चों को ब्रेल में शिक्षा देना

उन्हें देशभक्ति के गीतों, संविधान, इतिहास और नैतिक मूल्यों से जोड़ना

उन्हें आत्मनिर्भर बनाना – स्वर और स्पर्श के ज़रिए


कई लोगों ने मज़ाक उड़ाया – “अंधों का देशभक्ति से क्या लेना?” पर अंजलि ने हँसते हुए उत्तर दिया – "हम देख नहीं सकते, लेकिन महसूस करना तो हमें आता है। भारत सिर्फ आँखों से नहीं, आत्मा से जिया जाता है।"

समाज की चुनौतियाँ:

हर कदम पर अंजलि को संघर्ष करना पड़ा – सरकारी सहायता नहीं, आर्थिक तंगी, सामाजिक अवमानना, और सबसे बड़ी चुनौती – अपने बच्चों के आत्मबल को बनाए रखना।

एक दिन एक बच्चा, रमेश, जो जन्म से अंधा था, बोला – "दीदी, क्या मैं कभी स्कूल जा पाऊँगा जैसे और बच्चे जाते हैं?"

अंजलि ने उसका हाथ पकड़ा और कहा – "रमेश, तू स्कूल नहीं जाएगा, तू स्कूल बनेगा। तेरे गीतों से दुनिया पढ़ेगी।"

अंजलि ने ब्रेल में कई भारतीय देशभक्ति गीतों को संकलित किया, जिसमें राष्ट्रगान, जन गीत, संविधान की प्रस्तावना, और स्वतंत्रता सेनानियों के कथन शामिल थे।

संविधान और आवाज़:

1950 में जब भारत का संविधान लागू हुआ, तो अंजलि ने उसका ब्रेल संस्करण बच्चों को सुनाया। उसके लिए उन्होंने कई दिन मेहनत की। ब्रेल की पन्नियाँ खुद बनाई, हर अक्षर उभारने में घंटों लगाए।

जब उन्होंने ‘हम भारत के लोग...’ की ध्वनि बच्चों को सुनाई, तो पूरा आश्रम तालियों से गूंज उठा। वो पहली बार था जब किसी ने संविधान को ऐसे पढ़ा – न आँखों से, न ज़ुबान से – बल्कि उँगलियों और आत्मा से।

राष्ट्रीय पहचान:

धीरे-धीरे अंजलि के काम की चर्चा फैलने लगी। दिल्ली, मुंबई और कोलकाता से लोग आए, रिपोर्टर्स ने उनके आश्रम पर डॉक्यूमेंट्री बनाई। अंजलि को 1954 में राष्ट्रपति द्वारा “नारी वीरता सम्मान” से नवाज़ा गया। पर उसने शॉल और तमगा लेकर फिर उन्हीं बच्चों के पास जाकर कहा –

"ये तुम्हारा है। मैं सिर्फ तुम्हारी आवाज़ हूँ।"

एक खास बच्ची – मीरा:

1960 में आश्रम में एक नन्ही बच्ची आई – मीरा। वो भी जन्म से अंधी थी, पर उसकी आवाज़ में जैसे कोई देवता बसता हो। अंजलि ने उसकी आवाज़ को पहचान लिया। वो उसे गाना सिखाने लगी। मीरा ब्रेल पढ़ने में भी तेज़ थी।

एक दिन अंजलि ने मीरा से कहा – "मैं चाहती हूँ, जब मैं न रहूँ, तब तू इन बच्चों की आवाज़ बन। तू तिरंगे की धुन को हमेशा गाती रहना।"

मीरा ने वादा किया – “दीदी, मैं सूरज को भले न देख पाऊँ, लेकिन तेरे गीतों की रोशनी कभी बुझने नहीं दूँगी।”

अंजलि का अंतिम राष्ट्रगान:

1975 – आपातकाल का समय था। देश फिर से उथल-पुथल में था। अंजलि अब 45 साल की हो चुकी थी, लेकिन भीतर की आग वैसी ही थी। एक दिन आश्रम में सबको इकट्ठा करके उसने कहा –

"जब देश की आवाज़ रोकी जाए, तब हमें और गाना है। जब संविधान की बातें दबा दी जाएं, तब हमें और पढ़ाना है। हमने आज़ादी देखी नहीं, पर अब हम उसे खोने नहीं देंगे।"

फिर उसने जन गण मन गाया – धीमे स्वर में, पर इतना भावपूर्ण कि हर बच्चा, हर सुनने वाला, रो पड़ा। वो उसका अंतिम सार्वजनिक गायन था।

विदाई – एक दीप की लौ:

1980 की सर्द रात, अंजलि शास्त्री अपनी किताबों, गीतों, और बच्चों से घिरी हुई थी। अचानक सीने में दर्द हुआ। मीरा पास ही थी। अंजलि ने उसका हाथ पकड़ा और कहा –

"मैंने तिरंगे को कभी देखा नहीं, लेकिन उसकी धड़कन सुनी है। जब तू गाए, तो समझना – मैं तेरे साथ हूँ।"

वो मुस्कराई – और उसकी सांसें थम गईं।

उसकी चूड़ी – वही जो उसकी माँ ने दी थी – मीरा के हाथ में डाल दी गई।

अंतिम संस्कार और सम्मान:

अंजलि को पूरे राजकीय सम्मान के साथ विदा किया गया। आश्रम में हज़ारों लोग आए। सरकार ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया – जिस पर ब्रेल में लिखा था – “अंधेरे की अंजलि – जिसने रोशनी को महसूस किया।”

श्रवणशक्ति आश्रम – आज:

आज अंजलि द्वारा शुरू किया गया आश्रम एक विश्वविद्यालय बन चुका है – “अंजलि दृष्टिहीन विश्वविद्यालय।” यहाँ भारत भर के नेत्रहीन बच्चे पढ़ते हैं, संगीत सीखते हैं, संविधान की शिक्षा लेते हैं, और स्वतंत्रता संग्राम की गाथाएं ब्रेल में गाते हैं।

मीरा अब उसकी कुलाधिपति है – वो हर साल 15 अगस्त को वही चूड़ी पहनकर मंच पर खड़ी होती है और अंजलि की आवाज़ में राष्ट्रगान गाती है।

अंतिम शब्द – जो अंजलि की आत्मा से निकले थे:

“जिसे सबने अंधा कहा, उसने सबसे पहले सूरज को महसूस किया। आँखों से नहीं, आत्मा से देखा – भारत को आज़ाद।"