Khamosh jindagi ke bolate jajbat - 2 in Hindi Love Stories by Babul haq ansari books and stories PDF | खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 2

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खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 2

           रचना:  बाबुल हक़ अंसारी

                  भाग 2.   

"दरवाज़ा जो कभी खुला नहीं..."

नीरव की ज़िंदगी अब धीरे-धीरे अपनी पुरानी लय में लौट रही थी, मगर अंदर कुछ बदल गया था। आर्या के जाने के बाद वो जितना बाहर से शांत था, उतना ही अंदर से टूटा हुआ।

एक शाम, जब वो अपने पुराने कॉलेज के गलियारे से गुजर रहा था, किसी ने पीछे से पुकारा —

"नीरव?"

वो मुड़ा — एक लड़की खड़ी थी, घुंघराले बाल, आंखों में जिज्ञासा और हाथ में एक कैमरा।

"मैं अन्वेषा हूँ... फोटोजर्नलिज़्म की स्टूडेंट।"

नीरव ने हल्की मुस्कान दी — "मैंने तुम्हें नहीं देखा पहले यहां..."

वो हँसते हुए बोली, "मैं नई हूँ। लेकिन तुम्हारे बारे में सुना है। बहुत कम बोलते हो, मगर बहुत कुछ लिखते हो..."

अन्वेषा ने धीरे से एक पन्ना नीरव की तरफ़ बढ़ाया —

"ये तुम्हारी डायरी से था न? मुझे गलती से लाइब्रेरी में मिला।"

नीरव का दिल धड़कने लगा — वो पन्ना आर्या के नाम लिखा गया था।

"तुमने... पढ़ा इसे?"

"नहीं," उसने आंखें झुका लीं, "बस इतना महसूस किया कि ये किसी के बहुत करीब था।"

उन दिनों के बाद, अन्वेषा नीरव की ज़िंदगी में धीरे-धीरे दाखिल होने लगी। वो उसकी खामोशियों को कैमरे की नजर से पकड़ती, और नीरव उसकी तस्वीरों में अपना अतीत ढूंढता।

लेकिन एक दिन उसने एक तस्वीर देखी — वो बेंच... बारिश में भीगी हुई... और उस पर बैठा एक शख्स, पीठ पीछे से... ठीक वैसे ही जैसे वो आर्या के साथ बैठा करता था।

"ये कब ली थी?" नीरव ने कांपती आवाज़ में पूछा।

अन्वेषा ने चौंक कर देखा —

"ये तो दो दिन पहले की है... कोई लड़की आई थी वहाँ बैठने, थोड़ी देर रोई, फिर चुपचाप चली गई।"

नीरव के हाथ कांपने लगे।

"क्या... उसके हाथ में लाल रंग की छतरी थी?"

अन्वेषा चौंक गई —

"हाँ! तुम कैसे जानते हो?"

नीरव के होंठ कांपे —

"क्योंकि... वो आर्या ही हो सकती है।"

क्या आर्या वापस लौटी है?

या ये किसी अधूरी याद का धोखा है?

अब आगे की

राह सिर्फ़ जज़्बातों से होकर जाएगी...


उस रात नीरव को नींद नहीं आई।

बार-बार वो तस्वीर उसकी आंखों के सामने घूमती रही —

वही बेंच, वही बारिश, और वही लाल छतरी...

सुबह होते ही वह उस बेंच पर पहुंच गया।

चारों ओर नमी थी, धुंध हल्के से फैली थी, और हवा में आर्या की खुशबू जैसी कोई जानी-पहचानी बात।

"ये पागलपन है," उसने खुद से कहा,

"या... यादों का कोई छलावा?"

तभी एक बच्ची उसकी ओर दौड़ती आई —

"अंकल, ये आपकी है?"

उसने हाथ में एक छोटा सा पर्स पकड़ा था — लाल रंग का, थोड़े पुराने डिजाइन का।

नीरव ने उसे थामा। अंदर एक छोटा नोट था —

"अगर मिल सको, तो उसी वक़्त पर आना — जहां हम अक्सर खामोश रहा करते थे।"

— A

नीरव की साँसें थम सी गईं।

“A... आर्या?”

या कोई और?

उसी शाम...

वो फिर पहुँचा उस बेंच के पास।

वक़्त वही था — धूप ढल रही थी, छायाएँ लंबी हो रही थीं।

कदमों की आहट हुई।

लेकिन इस बार कोई लड़की नहीं, एक अधेड़ उम्र की महिला सामने खड़ी थी —

सफेद सूट, आंखों पर चश्मा, लेकिन चेहरे पर वही तीखी झलक।

"आप?"

नीरव धीरे से बोला।

"मैं... आयशा हूँ। आर्या की बड़ी बहन।"

नीरव चौंक गया।

"उसने तुम्हारे लिए कुछ छोड़ा था, लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि क्यों आज तक..."

आयशा ने उसे एक लिफ़ाफ़ा दिया।

लिफाफ़े में एक पुरानी फोटो थी — नीरव और आर्या, उस बेंच पर बैठे हुए।

और पीछे लिखा था —

"जिसे तुमने ख़ामोश रहकर भी समझा, वही तुम्हारी सबसे ऊँची चीख़ थी।"

नीरव की आंखें नम थीं।

"तो क्या... आर्या ज़िंदा है?"

नीरव ने कांपती आवाज़ में पूछा।

आयशा चुप रही, फिर बोली —

"शायद... लेकिन कभी-कभी कुछ लोग सिर्फ याद बनकर जीते हैं।"


(जारी रहेगा — ...)


क्या यह सिर्फ़ एक याद थी?

या कोई ऐसा राज़, जो अब खुलने को है?