भाग 4
-: "साये जो साथ चलते हैं..."
"रचना: बाबुल हक़ अंसारी
पिछले खंड से...
"अब कोई और गिनती नहीं चाहिए, बस आज की शाम चाहिए... सिर्फ़ तुम्हारे साथ।"
अबकी बार, वक़्त की गिरहें खुल रही थीं...
हर खामोशी अब कोई राज़ नहीं, बल्कि एक मुकम्मल इकरार बनती जा रही है
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उस पुरानी बेंच पर बैठी आर्या और नीरव की ख़ामोश जोड़ी अब किसी वक़्त की मोहताज नहीं रही।
लेकिन उन दोनों की ख़ामोशियों में एक तीसरा साया भी था...
जिसे न तो आर्या देख पा रही थी और न ही नीरव महसूस कर रहा था —
वो साया था ‘अनया’ का।
आर्या का पोती समान एक चेहरा…
मगर सोच में बुना हुआ,
भावनाओं में उलझा हुआ,
और आँखों में कुछ सवाल लिए हुए।
वो आश्रम की देखभाल में लगी रहती थी, लेकिन उसकी नज़रे अक़्सर नीरव पर टिक जातीं।
कभी खीझ, कभी जिज्ञासा और कभी कोई अनकहा डर।
एक शाम, जब आर्या अकेली बैठी थी, अनया पास आई।
"दादी… वो नीरव अंकल… क्या वो वही हैं, जिनका ज़िक्र आपने कभी उस टूटी डायरी में किया था?"
आर्या चौंक गई।
"तुमने मेरी डायरी पढ़ी?"
अनया झिझकते हुए बोली,
"सिर्फ़ वो पन्ने… जो खुद को अधूरा कह रहे थ
आर्या ने गहरी साँस ली।
"हाँ… वही है वो। लेकिन ये मत सोचो कि हर अधूरी कहानी पूरी होनी चाहिए… कुछ अधूरापन ही मुकम्मल होता है।"
अनया कुछ पल चुप रही, फिर बोली —
"लेकिन कभी-कभी… वही अधूरापन अगली पीढ़ी की ज़िंदगी को उलझा देता है।"
आर्या की आँखें भर आईं।
"क्या तुम्हें लगता है कि मेरा अतीत… तुम्हारे आज को चोट पहुँचा रहा है?"
"नहीं दादी," अनया की आवाज़ भीग गई,
"मगर जिस इंसान से आप प्यार करती थीं… शायद वही इंसान किसी और की नफ़रत का कारण बन चुका है।"
अगली सुबह, आश्रम में हलचल थी।
एक अजनबी आया था…
बाहरी चेहरा शांत, लेकिन आँखों में ग़ुस्से की आँच।
उसका नाम था विवेक।
नीरव को देखते ही उसके लहजे में तुर्शी आ गई —
"आप ही हैं न… नीरव शेखर? वो कलाकार जिसने कभी मेरे पिता की ज़िंदगी तबाह कर दी थी?"
नीरव की आँखें भौंचक…
"आप कौन हैं?"
"मैं विवेक हूँ — अनया का पिता… और उस शख्स का बेटा जिसे आपके नाम ने बर्बाद कर दिया!"
नीरव के चेहरे पर उस क्षण जो भाव थे, वो न तो शर्मिंदगी थे और न ही ग़ुस्सा…
वो शुद्ध स्तब्धता थी — जैसे कोई भूला हुआ अध्याय सामने रख दिया गया हो।
आर्या कुछ कहने ही वाली थी कि विवेक फिर बोला —
"आपको याद नहीं होगा, लेकिन आपके नाम से प्रकाशित हुई उस कविता ने मेरे पिता को हर उस मंच से गिरा दिया, जिसे उन्होंने बरसों से संजोया था।"
नीरव की आवाज़ कांप गई —
"आप किस कविता की बात कर रहे हैं?"
"'बिना नाम की वफ़ा' — आपने जब वो छपवाई थी, तब मेरे पिता ने आप पर साहित्यिक चोरी का आरोप लगाया था।"
नीरव जैसे पीछे लौट गया हो…
"रघुवीर त्रिपाठी…?"
"हाँ।" विवेक की आँखों में आँधियाँ थीं।
"आपने उन्हें झूठा साबित किया, अदालत से बाहर मामला सुलझा लिया… लेकिन मेरे पिता टूट गए।"
सन्नाटा फैल गया।
आर्या आगे बढ़ी, उसने नीरव का हाथ पकड़ा —
"नीरव, ये सच है?"
नीरव की आँखें भर आईं।
"वो कविता… मेरी नहीं थी आर्या।
वो तुम्हारी चिट्ठियों से निकली थी।
मैंने बस उन्हें शब्द दिए थे… और गलती से अपने नाम से छपवा दी।
मैंने माफ़ी माँगी थी, लेकिन तब बहुत देर हो चुकी थी।"
विवेक ने एक काग़ज़ आर्या की ओर फेंका —
"ये रघुवीर त्रिपाठी की आखिरी चिट्ठी है।
उन्होंने आपकी लिखी पंक्तियाँ पहचान ली थीं… लेकिन वो आपके नीरव को बर्बाद नहीं करना चाहते थे।
इसलिए चुप रह गए।"
आर्या चुपचाप चिट्ठी पढ़ती रही।
"आर्या,
जिन पंक्तियों को मैंने चुराया कहा…
शायद वो तुमसे नीरव तक पहुँची थीं।
मैं अब सिर्फ़ एक पिता हूँ… जो चाहता है कि मेरे बेटे को सच्चाई मिले।
दोष मेरा भी था — मैंने एक अधूरी कहानी को पूरा कह दिया था
आर्या की आँखें अब भीग गई थीं।
विवेक जाने के लिए मुड़ा।
"क्या तुम बस बदले की आग में जीना चाहते हो?" आर्या ने पूछा।
विवेक रुका,
"नहीं।
मैं बस चाहता हूँ… कि मेरी बेटी अनया को भी वो सच मिले, जिससे वो अपना भविष्य तय कर सके — बगैर किसी झूठी प्रशंसा या आस्थाओं के।"
आर्या अब जानती थी —
सिर्फ़ नीरव से उसका रिश्ता दांव पर नहीं है,
बल्कि अब एक पूरी पीढ़ी के भरोसे की परीक्षा थी।
(जारी रहेगा …)