भाग- 3
"धड़कनों की दस्तक..."
रचना: बाबुल हक़ अंसारी
(पिछले भाग से...)
और जब नीरव ने पूछा — "क्या आर्या ज़िंदा है?"
आयशा ने सिर्फ़ इतना कहा —
"शायद... लेकिन कभी-कभी कुछ लोग सिर्फ याद बनकर जीते हैं।"
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उस रात नीरव की सांसें भारी थीं।
दीवार पर टंगी आर्या की वही पुरानी तस्वीर उसे टकटकी लगाए देख रही थी —
सहलाते हुए, पूछते हुए... "क्या अब भी तुम मुझे उसी शिद्दत से महसूस करते हो?"
उसने धीरे से अलमारी में छिपी उस डायरी को निकाला, जो उसने कभी आर्या की मुस्कान से चुराई थी।
हर पन्ना खुलते ही कोई भूला हुआ एहसास सामने आ खड़ा होता।
अचानक आखिरी पन्ने से एक सूखा गुलाब गिरा —
नीचे लिखा था:
"अगर किसी रोज़ मेरी आवाज़ ना सुनो, तो मेरी खामोशी पढ़ लेना... शायद वो ज़्यादा कहती है।"
— आर्या
अगली सुबह...
नीरव एक पुराने आश्रम के पते पर पहुंचा, जो लिफ़ाफ़े में एक और पर्ची पर लिखा था।
वहाँ की दीवारों पर स्याहपन था, लेकिन अंदर एक अजीब-सी सुकून भरी गूंज थी।
"आप किससे मिलना चाहते हैं?"
एक वृद्ध महिला ने पूछा।
"क्या... क्या यहाँ कोई आर्या नाम की महिला रहती हैं?"
नीरव की आवाज़ फिसलती जा रही थी।
वृद्धा कुछ पल चुप रही, फिर धीरे से बोली —
"आर्या...? वो तो अब किसी से नहीं मिलती, बस खिड़की के पास बैठती हैं… और हर आते-जाते चेहरे में किसी 'नीरव' को तलाशती रहती हैं।"
नीरव की धड़कनें तेज़ हो गईं।
जब वो उस कमरे की ओर बढ़ा, तो हर कदम उसके बीते सालों की परछाई बन गया।
दरवाज़ा खुला।
खिड़की के पास एक बुढ़ाती हुई, मगर अब भी नाज़ुक-सी औरत बैठी थी।
सिल्वर बाल, हल्की कांपती उंगलियाँ, लेकिन चेहरा... वही पुराना।
"आर्या..."
नीरव के होंठ काँपे।
आर्या ने सिर मोड़ा।
कुछ पल नज़रें टिकी रहीं —
फिर उसकी आँखों से दो आँसू बहे, और होंठ हिले —
"नीरव...? क्या तुम अब भी... वही हो?"
नीरव उसके पैरों में बैठ गया।
"मैं अब भी... वही हूँ, जिसने कभी तुम्हारी खामोशियों से इश्क़ किया था।"
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कमरे में खामोशी घुल गई —
लेकिन वो खामोशी अब पहले जैसी नहीं थी।
इस बार वो सुकून में बदल रही थी।
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क्या अब ये दो अधूरी रूहें मुकम्मल हो पाएंगी?
या इस मिलन में भी कोई अधूरापन छिपा है?
उस कमरे की खामोशी में,
आर्या की साँसों की धीमी ताल और नीरव की धड़कनों की लय अब एक हो चली थी।
खिड़की से आती हल्की धूप उनके चेहरे पर गिर रही थी,
जैसे बीते वक्त की राख़ पर उम्मीद की पहली किरन।
आर्या ने कांपते हाथों से नीरव की उंगलियाँ थामीं —
"तुम... इतने सालों बाद क्यों लौटे नीरव?"
नीरव चुप रहा, फिर बोला —
"क्योंकि मेरा हर जवाब... तुम्हारे उसी आख़िरी सवाल में खो गया था, जो तुम बिना कहे छोड़ गई थीं।"
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आर्या की आँखें भीग गईं।
"मैं कभी नहीं चाहती थी कि तुम लौटो... क्योंकि मैं अब पहले वाली नहीं रही।"
"और मैं वही रह गया, जिसे तुम अधूरा छोड़ गई थीं,"
नीरव की आवाज़ थरथरा उठी,
"हर रोज़ तुम्हारी तलाश में सिर्फ़ खुद से टकराता रहा…"
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आर्या ने सिर झुका लिया।
फिर धीमे स्वर में बोली —
"क्या तुम मेरे साथ उस बेंच तक चलोगे... एक आख़िरी बार?"
नीरव ने हाथ थाम लिया।
"अगर वो आख़िरी है, तो फिर उसे हमेशा बना दो।"
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वो दोनों आश्रम के पिछवाड़े उस बेंच तक पहुँचे,
जहाँ कभी खामोशियाँ उनकी बातों से ज़्यादा बोली थीं।
बूढ़ी आंखों में अब भी वो जज़्बात थे,
जो वक्त ने सहेज तो लिए थे... मगर मिटा नहीं पाया था।
आर्या ने कहा —
"मैंने हर उस शाम का हिसाब रखा, जब तुम नहीं आए...
और हर उस सुबह का अफ़सोस जो तुम्हारे बिना जगी थी।"
नीरव ने उसकी हथेली पर होंठ रखे —
"अब कोई और गिनती नहीं चाहिए, बस आज की शाम चाहिए... सिर्फ़ तुम्हारे साथ।"
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वो दोनों उस बेंच पर फिर वैसे ही बैठे,
जैसे कभी जवानी की धड़कनों में बैठे थे।
अबकी बार, वक़्त की गिरहें खुल रही थीं...
हर खामोशी अब कोई राज़ नहीं,
बल्कि एक मुकम्मल इकरार बनती जा रही थी।
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(जारी रहेगा ..)