Khamosh jindagi ke bolate jajbat - 8 in Hindi Love Stories by Babul haq ansari books and stories PDF | खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 8

Featured Books
Categories
Share

खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 8

                       भाग: 8

               रचना: बाबुल हक़ अंसारी


       "जब सच और जज़्बात आमने-सामने हों…"


पिछले खंड से…

   "नहीं… नया मैं।"

अगली सुबह…
आश्रम की बरसाती गैलरी में हवा में हल्की नमी थी।
रात को बारिश हुई थी, और पत्तों से टपकते कतरे जैसे कोई अनसुना गीत गा रहे थे।

अनया धीरे-धीरे बरामदे में पहुँची, जहाँ नीरव पुराने अख़बार के साथ बैठा था।
उसके हाथ में कलम थी, लेकिन वो लिख नहीं रहा था —
बस चुपचाप काग़ज़ पर उंगलियों से गोल घुमाता जा रहा था।

"मुझसे बात करनी है," अनया ने सीधी नज़र से कहा।

नीरव ने अख़बार मोड़ा, "किस बारे में?"

"उस बारे में, जो इतने सालों से हमारे बीच दीवार बनकर खड़ा था," अनया बोली,
"और शायद… आज टूट सकता है।"


आँगन में पीपल का पेड़ था।
दोनों उसकी छाँव तले बैठ गए — वहीं, जहाँ पहले आर्या और नीरव कभी घंटों चुपचाप बैठे रहते थे।

"तुम जानते हो न, मेरे पापा ने डायरी में क्या लिखा है?" अनया ने पूछा।

नीरव ने हाँ में सिर हिलाया,
"हाँ… और यही वजह है कि मैं आज तुम्हारे सामने हूँ, भाग नहीं रहा।"

अनया की आँखों में नमी थी, लेकिन लहजा ठंडा,
"अगर तुम चाहते, तो उस समय सच बोल सकते थे।
मेरे पापा हारते नहीं… टूटते नहीं… और शायद, हमारी ज़िंदगी ऐसी न होती।"

नीरव के होंठ कांपे,
"मैंने सच को छुपाया नहीं था… बस वक्त पर कह नहीं पाया।
क्योंकि उस वक्त, जीत-हार से ज़्यादा तुम्हारे पापा की इज्ज़त मुझे अहम लगी।
लेकिन हाँ… इस खामोशी ने हम सबकी उम्र से कई साल चुरा लिए।"


थोड़ी देर सन्नाटा रहा।
फिर अनया ने गहरी सांस ली,
"मैंने तय किया है — न तुम्हें, न पापा को… मैं किसी को पूरी तरह माफ़ नहीं करूँगी।
लेकिन मैं नफ़रत भी नहीं रखूँगी।
क्योंकि नफ़रत दिल को जंग लगा देती है, और मैं ज़ंग में नहीं… रंग में जीना चाहती हूँ।"

नीरव ने उसकी बात पर हल्की मुस्कान दी,
"तो फिर, ये हमारी पहली सच्ची बातचीत थी… बिना झूठ, बिना मुखौटे।"


उसी समय, आश्रम के गेट पर एक गाड़ी आकर रुकी।
गाड़ी से एक बुज़ुर्ग उतरे, हाथ में बांसुरी… आँखों में अजनबीपन और अपनापन, दोनों।

आर्या ने उन्हें देखते ही चौंककर कहा,
"ये…!"

नीरव खड़ा हो गया, उसकी सांसें तेज़ हो गईं।
"ये मेरे गुरु… आचार्य शंकरनंद हैं।
जिसके बिना मेरा सफर कभी शुरू ही नहीं होता।"


गुरु ने धीमे स्वर में कहा,
"नीरव… अब वक्त है, तुम्हें वो सुनाने का… जो तुमसे भी छुपा था।"

उन्होंने बांसुरी को होंठों से लगाया, और एक धुन बजने लगी —
वो धुन, जिसमें आर्या के लिखे अल्फ़ाज़… नीरव की आवाज़… और अनया के बचपन की हँसी…
सब एक साथ घुलते चले गए।


नीरव ने फुसफुसाकर कहा,
"शायद, यही है हमारी असली कविता —
जहाँ कोई लेखक, कोई पाठक… कोई हारने-जीतने वाला नहीं…
सिर्फ़ कहानी है, जो हमें जोड़ती है।"

आर्या की आँखें भीग गईं…
और अनया ने पहली बार, दिल से मुस्कुराया।


बांसुरी की धुन खत्म होते ही हवा में एक गहरा सन्नाटा छा गया।
किसी ने कुछ नहीं कहा, लेकिन तीनों की आंखों में अलग-अलग कहानियां तैर रही थीं।

गुरु ने बांसुरी को अपने घुटनों पर रखा और धीमे स्वर में बोले —
"सच की सबसे बड़ी ताकत यही है… कि चाहे कितनी भी देर से आए, वो अपना रास्ता खुद बना लेता है।
और जब वो आता है, तो किसी को भी पहले जैसा नहीं छोड़ता।"

नीरव ने अनया की ओर देखा, और पहली बार महसूस किया कि उनकी खामोशी भी एक संवाद है —
जो आने वाले दिनों में उन्हें और करीब ले जाएगा।


---
(जारी रहेगा… खंड 9 में)