Anternihit - 1 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | अंतर्निहित - 1

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अंतर्निहित - 1

आठ वर्ष पूर्व :-

दूसरे दिन प्रात: ब्राह्म मुहूर्त से ही सेलेना की योग साधना प्रारंभ होनेवाली थी। सेलेना को रात्री भर निद्रा नहीं आई। कारण यह नहीं था कि पहाड़ पर सभी सुख सुविधा का अभाव था जिसकी वह अभ्यस्त थी किन्तु उस स्थान की अनुभूति ही कुछ विशेष थी और नए अध्याय की उत्तेजना भी। 

रात्री भर पहाड़ पर से व्योम को निहारती रही। चंद्र की गति, कुछ छूट पूट छोटे छोटे बादलों की क्रीडा, पहाड़ पर बिछी हुई श्वेत चंद्रिका, कभी भी न अनुभव की गई गहन शांति, शीतल मधुर वायु का मंद मंद स्पर्श, दूर दूर तक एकांत, पहाड़ों के पीछे व्याप्त अंधकार से देखती हुई क्षितिज, चंद्रमा के साथ साथ यात्रा पर निकले तारे। 

*****

वर्तमान समय :-

“जब कोई सर्जक किसी रचना का सर्जन करता है तो केवल दो ही संभावनाएं होती हैं। हैं न श्रीमान सर्जक?” शैल ने कहा। 

“हो सकती है।” ऊसने कहा। 

“वह तो मेरा कहना है। आप अपना भी तो कुछ कहोगे?”

“मैं आपके मत से सहमत हूँ। मुझे बस यही कहना है।”

“बिना जाने इन दो संभावनाओ के विषय में, आप सीधे ही सहमत हो गए?”

उसने कोई प्रतिभाव नहीं दिया।

“बड़ी शीघ्रता है आपको मेरी बातों से सहमत होने की। प्रत्येक बात पर ऐसे ही शीघ्रता से सहमत हो जाते हो?”

उसने पुन: कोई प्रतिभाव नहीं दिया। किसी प्रतिमा की भांति निश्चल खड़ा रहा।

“श्रीमान सर्जक, आप न ही कोई उत्तर दे रहे हो न ही कोई प्रतिभाव। अपने रचे हुए शिल्प की भांति स्थिर क्यों खड़े हो? इतना तो ज्ञात ही होगा कि आप शिल्पकार हो, शिल्प नहीं।”

वह मौन ही रहा। 

“मैं आपसे कुछ कह रहा हूँ। आपसे बात कर रहा हूँ। कुछ पुछ रहा हूँ। और आप कुछ नहीं बोल रहे हो। आपका यह मौन आपके विरुद्ध जा सकता है, श्रीमान सर्जक।” शैल क्षणभर रुका। उसके मुख पर किसी भाव को खोजने का शैल ने यत्न किया किन्तु उसे वह आनन भाव विहीन प्रतीत हुआ। 

‘कितना शून्य है यह मुख!  क्या सर्जक इतने भाव शून्य होते हैं?’ शैल ने मन में विचार किया। 

“श्रीमान सर्जक। नहीं नहीं। श्रीमान शिल्पकार। यही उचित होगा। आप शिल्प ही रचते हो ना?”

“श्रीमान इंस्पेक्टर। आपको जो कहना है वह कहिए। उस पर मेरे अनुमोदन की प्रतीक्षा ना करें। आप किसी दो संभावनाओं की बात कर रहे थे।”

“शैल नाम है मेरा। शैल स्वामी। इस समय मैं केवल शैल बनकर आप से बात करना चाहता हूँ। आशा है आप पूर्ण सहयोग करेंगे। शैल स्वामी से मुझे इंस्पेक्टर शैल बनने के लिए विवश नहीं करोगे। यदि मेरे भीतर का इंस्पेक्टर आपसे बात करने लगेगा तो उसका मूल्य ....।”

शैल ने शब्दों को अपूर्ण ही छोड़ दिया। शब्दों की अपूर्णता का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पडा। 

शिल्पकार का धैर्य शैल को विचलित कर रहा था किन्तु वह अविचल था। 

“शिल्प रचते रचते, शिल्पों के साथ रहते रहते तुम भी शिल्प की भांति प्रस्तुत हो रहे हो। शिल्पकार महाशय।“

“आप बार बार मुझे शिल्पकार या श्रीमान सर्जक क्यों संबोधित कर रहे हो?” 

“क्या यह दोनों नाम असत्य है? अनुचित है?”

“कोई भी सर्जक हो, शिल्पकार हो उसका एक नाम होता है। क्या इस सत्य को आप नहीं जानते इंस्पेक्टर?”

“शैल नाम है मेरा, शैल स्वामी।”

“और मेरा वत्सर है।”

“ओह। स्मरण कराने के लिए धन्यवाद। किन्तु यदि मैं तुम्हें शिल्पकार या सर्जक कहूँ तो उसमें आपत्ति क्या है? क्या तुम शिल्पकार नहीं हो? सर्जक नहीं हो? श्रीमान वत्सर।”

“है, भरपूर आपत्ति है। श्रीमान शैल।”

“क्या है? क्यों है?” 

“समय आने पर बता दूंगा। आप भी तो इंस्पेक्टर हो। आपको इंस्पेक्टर कहता हूँ तो आपको क्यों आपत्ति हो रही है?”

“यदि मैं इंस्पेक्टर बन गया तो तुम्हारे लिए आपत्ति ही आपत्ति हो जाएगी।”

“और यदि मैं सर्जक या शिल्पकार बन गया तो आपको अधिक आपत्ति होगी इस बात का स्मरण रखना।”

“तुम मुझे भय दिखा रहे हो?”

“भयाक्रांत करने का प्रारंभ मैंने तो नहीं किया था।”

“तुम कहना क्या चाहते हो? बात को उलझा क्यों रहे हो?”

“स्पष्ट सुन लो, स्पष्ट समज भी लो। यदि आप मुझे कुछ कहना चाहते हो तो मुझे मेरे नाम से ही संबोधित करोगे। यदि प्रमाद में या किसी दोष से या किसी अन्य उद्देश्य से सर्जक या शिल्पकार के रूप में संबोधित किया तो मैं कोई उत्तर नहीं दूंगा। न ही कोई प्रतिभाव या प्रतिक्रिया दूंगा।”

“ऐसा क्यों?”

“क्यों कि जब जब मैं शिल्पकार होता हूँ तब तब मैं मौन होता हूँ। तब पत्थर बोलते हैं। पत्थर के भीतर छिपी प्रतिमा मुझसे बात करती है। मैं उसे सुनता हूँ। मेरा पूरा ध्यान उसकी बातों पर होता है। वह जैसे जैसे कहती है मैं वैसे वैसे करता जाता हूँ। बिना कुछ कहे, बिना कुछ पूछे । उस समय मैं किसी भी बात को नहीं सुनता। न ही किसी वस्तु को देखता हूँ। इस प्रकार प्रतिमा स्वयं अपना अनावरण करवाती है। यह बात केवल मेरे लिए ही नहीं, किसी भी सर्जक के लिए सत्य होती है। उस समय सभी सर्जक की यही अवस्था होती है। किसी भी सर्जक से बात करने का यह विवेक जितनी शीघ्रता से सिख लोगे उतना ही लाभ होगा, श्रीमान शैल जी।” 

“चलो यह बात मैंने गांठ बांध ली। इसका कभी विस्मरण नहीं होगा।”

“इतनी सी बात स्वीकार करने के लिए धन्यवाद, शैल जी।”

“मैं मेरी बात रखूं उससे पूर्व दो बातें विशेष रूप से करनी है।”

“कहो।”

“एक, तुम मुझे शैल नाम से ही संबोधित करोगे। यह आग्रह है मेरा, वत्सर से।”

“स्वीकार है।”

“दूसरी बात। क्या मैं अपने प्रयासों से वत्सर नाम के अंतर्गत निहित किसी प्रतिमा का अनावरण कर सकूँगा?”

“यह तो आपके शिल्प कौशल्य पर निर्भर है जिससे इस समय तक तो मैं अनभिज्ञ ही हूँ।”

“मेरे कौशल्य की चिंता से तुम मुक्त हो।”

“जैसी आपकी मनसा।”

“मैं कह रहा था कि जब कोई सर्जक किसी रचना का सर्जन करता है तो केवल दो ही संभावनाएं हो सकती हैं, श्रीमान सर्जक।”

वत्सर ने शैल की आँखों में तीव्रता से देखा। शैल उस दृष्टि के भावों को समज गया। 

“क्षमा; क्षमा करना। सर्जक नहीं। वत्सर।”

वत्सर की दृष्टि कोमल हो गई। 

“यदि आप उस के विषय में बताना चाहते हो तो बता सकते हो। अन्यथा मैं पूछूँगा नहीं।”

“तथापि सुननी तो पड़ेगी ही।”

वत्सर निर्लेप रहा। 

“एक, कोई भी सर्जन उसके सर्जक की कल्पना हो सकती है।” शैल कुछ घड़ी रुका। वत्सर के मुख पर कोई भाव को, किसी मुद्रा को खोजता रहा। 

विफल। 

वत्सर की सभी मुद्राएं स्थिर थी, भाव शून्य थी। 

“दूसरी संभावना होती है कि सर्जक ने स्वयं कुछ ऐसा देखा हो, सुना हो या अनुभव किया हो।” शैल ने पुन: वत्सर के भावों को परखा। पुन: विफल। 

“तो वत्सर, यह बताओ कि तुम्हारे साथ क्या हुआ था उस समय कि तुमने उस शिल्प की रचना कर डाली? कहाँ है वह शिल्प?”