(आद्या अपनी माँ को बचाने के लिए तांत्रिक का सामना करती है। गरुड़ राख उस पर असर नहीं करती और वह अतुल्य व सनी की मदद करती है। तांत्रिक अतुल्य पर घातक मंत्र चला देता है पर उसे बचाते हुए सनी की मृत्यु हो जाती है। निशा गहरे सदमे से कोमा में चली जाती है। परिवार बिखर जाता है, पर अतुल्य इंसानी रूप में लौटकर जिम्मेदारी उठाता है। श्मशान घाट पर आद्या और अतुल्य मिलकर सनी का अंतिम संस्कार करते हैं। आद्या मन ही मन संकल्प लेती है कि पिता की मौत व्यर्थ नहीं जाएगी और वह तांत्रिक से बदला जरूर लेगी। उसके भीतर अब एक नई शक्ति और दृढ़ता जन्म ले चुकी थी। अब आगे)
बलिदान और बदला
अस्पताल की खामोश दीवारों के बीच, आद्या धीरे से निशा का हाथ थामे बैठी थी। उसका चेहरा शांत था, लेकिन भीतर एक तूफ़ान उमड़ रहा था। "मम्मी... अब कुछ नहीं खोने दूंगी। सबको वापस लाना है… भैया को भी…"
उसी रात —
अतुल्य चुपचाप जीप के पास खड़ा था। उसकी आंखों में पछतावा भी था और कोई ठोस निर्णय भी। आंसुओं से भरी निगाहें आसमान से जैसे कोई माफ़ी मांग रही थीं।
"आंटी ने कहा था कि तुम्हें जंगल लाना खतरनाक होगा... पर मैं नहीं माना। काश मान लिया होता," उसने खुद से बुदबुदाया।"
"और मैं... मम्मी-पापा से नाराज़ थी कि उन्होंने मुझे सब से दूर रखा। अब समझ आया ,क्यों?" पीछे से आती आद्या की आवाज़ ने उसे चौंका दिया।
उसके हाथ ने अतुल्य के कंधे को थाम लिया — जैसे विश्वास ने पछतावे को छू लिया हो।
कुछ पल की चुप्पी के बाद आद्या ने पूछा, "भैया, आप नाग हैं... और आपको खुद ही नहीं पता? ये कैसे मुमकिन है?"
अतुल्य ने नजरें झुका लीं। "मुझे सच में नहीं पता था, मेरी..." वह अधूरी बात में ही रुक गया।
" 'प्यारी बहना' कह सकते हैं।" आद्या की मुस्कान में सच्चा विश्वास था। अतुल्य हल्का मुस्कराया, फिर बोला, "शहर में जो घर लिया है, तू वहीं रह ले। आंटी को वहीं के किसी अच्छे हॉस्पिटल में शिफ्ट कर देंगे।"
"और आप?" आद्या ने सीधा सवाल किया। "आप बदला लेने जाएंगे?" वो कुछ नहीं बोला।
आद्या थोड़ी देर चुप रही, फिर धीमे से कहा, "हम परिवार हैं, भैया। आप भी हमारे साथ रहेंगे… हमेशा।"
"तू घर जा, थोड़ा आराम कर। मैं यहीं रहूंगा मां के पास," उसने उसके सिर पर हाथ रखा और निशा के कमरे की ओर बढ़ गया।
रात गहराने लगी थी, लेकिन आद्या के भीतर सवालों का उजाला जल रहा था। "एक तांत्रिक का हमारे परिवार से क्या लेना-देना?" "भैया नाग मानव हैं, पर उन्हें याद क्यों नहीं?"।
"पापा ने भैया को देखकर डर के बजाय नफ़रत क्यों दिखाई?"
"मुझ पर उस भस्म का असर नहीं हुआ, पर मम्मी पर क्यों हुआ?"
"और पापा ने कहा था — 'वो पहले भी हमला कर चुका है' — यानी वो हमें पहले से जानता है।"
सोचते-सोचते वो घर लौटी तो दरवाजे पर पड़ी एक चिट्ठी ने उसके हाथ रोक दिए।
कागज़ पढ़ते ही उसकी उंगलियाँ कांपने लगीं — "कर्मचारी की मृत्यु के कारण यह क्वार्टर 15 दिनों में खाली करना होगा।"
आद्या ने लंबी सांस ली, जैसे जीवन की हकीकत को पहली बार बिना चौंके स्वीकार किया हो। "इस घर में रहना चाहती थी… और अब जब आई हूं, तो ये घर ही नहीं रहा।"
फोटो फ्रेम में सनी और निशा की तस्वीर को देखते हुए उसके आंसू बह निकले।
उसी वक्त, एक परछाई — जो उसके हॉस्टल के दिनों से उसे देखती आई थी — फिर उसी कोने से उसे घूर रही थी। वह अब भी वहां थी, लेकिन नागशक्ति खो चुकी आद्या अब उसे पहचान नहीं पा रही थी।
कुछ देर बाद —"हां स्नेहा, मैं ठीक हूं। मां अब तक बेहोश है।" "हाँ, हाँ... ध्यान रखूंगी। नहीं पता कब आऊंगी। या आ भी पाऊंगी या नहीं..."
फोन रखते ही वह चुपचाप बैठ गई, जैसे अपने भीतर की हलचल को सुनने लगी हो। तभी मोबाइल फिर बजा —"हैलो?"
"हां, क्या आप निशा साहा की बेटी बोल रही हैं?"
"जी... क्या!? अतुल्य भैया... वहां नहीं हैं?"
"मैं... मैं अभी आती हूं!" फोन बंद करते ही वह लगभग दौड़ पड़ी।
हॉस्पिटल के गलियारे में पांव थक चुके थे, लेकिन आंखें अब भी खोज रही थीं।
"भैया! कहां हो आप? मुझे आपकी ज़रूरत है...आपके बिना मैं मां को कैसे संभालूंगी? कहां हो आप!" वो हॉस्पिटल के बाहर जाकर फूट-फूटकर रो पड़ी।
"यहां हूं बहना!" पीछे से आवाज आई तो जैसे किसी ने साँस वापस लौटा दी। अतुल्य थोड़े हैरान था — "तू तो घर चली गई थी न? यहां क्या कर रही है?"
"आप कहां चले गए थे भैया?" वो गहरी सांस के साथ बोली।
"डाॅक्टर ने कुछ दवाइयां लिखी थी, वह इस दुकान में नहीं थी तो दूसरी दुकान में गया था। दुकान दूर थी तो.. यह छोड़ , तू रो क्यों रही है?
आद्या हल्का मुस्कराई, "कुछ नहीं... बस ऐसे ही।"
पर उस रात —दोनों ने एक-दूसरे से छुपा लिया कि वो एक ही आग में जल रहे हैं — फर्क बस इतना था कि एक को 'बदला' चाहिए था, और दूसरी को 'न्याय'।
.....
वनधरा नागलोक
गुफा की दीवारों पर दीपों की हल्की लौ टिमटिमा रही थी।बीचोंबीच चंदन लेप से आच्छादित नागगुरु शांत मुद्रा में बैठे थे। उनकी आँखें बंद थीं, लेकिन शब्द उनके भीतर से निकलते हुए पूरे नागलोक में गूंज गए—"नाग रक्षिका ने यह युद्ध जीत लिया… बिना नागशक्ति के। लेकिन इस विजय की कीमत उसे अपने पिता के बलिदान से चुकानी पड़ी है। वह भीतर से टूट रही है… हमारी नाग रक्षिका अत्यंत पीड़ा में है।"
गुरु के पास खड़ा वृद्ध नाग झुककर बोला—"नाग रक्षिका ने यह सिद्ध कर दिया कि युद्ध केवल बल से नहीं, बलिदान, बुद्धि और आत्म-नियंत्रण से भी जीते जाते हैं। वह सच्चे अर्थों में रक्षिका है। उसमें वे सारे गुण हैं जो किसी नाग रक्षिका में होने चाहिए।"
नाग गुरु ने अपनी दृष्टि आकाश की ओर उठाई, मानो कहीं दूर उस साहसी कन्या — आद्या — की आत्मा को प्रणाम कर रहे हों। "आद्या..." उन्होंने धीमे स्वर में कहा। "तेरी चेतना जहाँ भी हो, ये प्रणाम समर्पित है तुझको।" उनकी इस भावना के साथ ही समस्त नाग मानव—छोटे से बड़े, योद्धा से सेवक— सबने एक स्वर में आद्या को नमन किया।
धरती पर एक गूंज उठी — श्रद्धा और स्वीकार की। उसी क्षण, एक नाग आगे बढ़ा और बोला—"आद्या के पिता — सनी — एक सच्चे योद्धा थे। उनका बलिदान केवल पुत्री या नागपुरुष के लिए नहीं, पूरे नाग समाज के लिए था। उनकी यह अंतिम आहुति…नाग वंश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जाएगी। वनधरा नागलोक उनका सदैव ऋणी रहेगा।" सभी नागों ने एक साथ झुककर सनी को नमन किया। गुफा के भीतर मौन की ऐसी गरिमा फैल गई मानो समय भी आदर में थम गया हो। किनारे खड़ी नागरानी, यह दृश्य देख रही थी। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था, पर उसकी आँखों की गहराई में कुछ काँपा। नारी सत्ता की यह स्वीकारोक्ति… किसी और की महिमा में बँटी हुई यह प्राचीन गद्दी…उसे अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन वह चुप थी —क्योंकि आज का दिन आद्या और सनी का था।
1) जोश से आद्या का तिलक करने वाली नागरानी अब मायूस क्यों थी?
2)तांत्रिक से कौन बदला लेगा अतुल्य या आद्या?
3) क्या सच में अतुल्य आद्या की रक्षा करेगा?
4) कौन है वो परछाई जो होस्टल से जंगल तक आ गयी?
जानने के लिए पढ़िए "विषैला इश्क"।