Jab Vishwas hi Gunha ban jaye - 2 in Hindi Love Stories by Puneet Katariya books and stories PDF | जब विश्वास ही गुनाह बन जाए - 2

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जब विश्वास ही गुनाह बन जाए - 2

अध्याय 2 : पहली मुलाक़ात – मासूम चेहरा
                   अर्जुन ने अपने जीवन के कुछ साल आत्मचिंतन और एकांत में बिताए थे। गाँव की मिट्टी और शहर की चकाचौंध से दूर, वह किताबों और ईश्वर के सान्निध्य में रहा। उस एकांत ने उसे भीतर से मज़बूत तो किया, लेकिन मन पर पड़े घाव अभी भी हरे थे। उसे लगता कि लोग केवल अपने स्वार्थ के लिए पास आते हैं, और इसी सोच ने उसे दूसरों से दूर कर दिया।
पर जीवन की धारा कभी स्थिर नहीं रहती। अब उसके सामने नई मंज़िल थी—दिल्ली जाकर यूपीएससी की तैयारी करना। सपनों का शहर, जहाँ हर साल लाखों विद्यार्थी अपनी किस्मत आज़माने आते हैं।
                जब अर्जुन ने पहली बार दिल्ली की भीड़-भाड़ में कदम रखा तो उसे लगा मानो वह किसी अनजान सागर में उतर आया हो। चारों ओर दौड़ते-भागते लोग, चमकती सड़कें और कृत्रिम मुस्कानें... हर चेहरा उसे नकली लगा। लेकिन उसके भीतर जलती आग—“लक्ष्य तक पहुँचना ही है”—उसे आगे बढ़ाती रही।
                मार्च की हल्की गर्मी थी। परीक्षा में अब सिर्फ़ दो महीने बाकी थे। अर्जुन रोज़ की तरह लाइब्रेरी में घंटों पढ़ाई करता और थक जाने पर बाहर चाय पीने चला जाता।
उसी लाइब्रेरी में, गेट के पास, उसने एक दिन पहली बार उसे देखा—
एक साधारण-सी लड़की, जो किताब में ऐसे डूबी हुई थी मानो पूरी दुनिया से उसका कोई लेना-देना ही न हो। उसकी आँखों में मासूमियत थी और चेहरे पर एक अजीब-सी ताजगी।
अर्जुन की नज़र अनायास ही उस पर टिक गई। उसने तुरंत ही अपने आपको डाँट दिया—“यह सब सोचने का वक़्त नहीं है।”
लेकिन अजीब बात यह थी कि हर बार लाइब्रेरी से आते-जाते उसकी नज़र उसी को ढूँढ़ लेती।
उसके पुराने अनुभव, जो उसे हमेशा चोट पहुँचा चुके थे, उसे कदम बढ़ाने से रोकते रहे। वह खुद को समझाता—“दूरी बनाए रखो अर्जुन, ये रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है।”
    
                 दिल्ली की एक थकी हुई शाम। सड़क किनारे छोटे से चाय के ठेले पर भाप उड़ाती चाय की खुशबू और भीड़ की चहल-पहल थी। अर्जुन अकेला बैठा हुआ सोचों में खोया था।
तभी वह आई—
वही लाइब्रेरी वाली लड़की, साधारण सलवार-कमीज़ में। उसके चेहरे पर बनावटीपन नहीं था, बल्कि सच्चाई की एक चमक थी।
उसकी मुस्कान ऐसी थी जैसे किसी शोरगुल वाले कमरे में अचानक कोई मधुर धुन सुनाई दे जाए।
अर्जुन के रोंगटे खड़े हो गए। दिल ने जैसे उसे पुकारा कि वह उससे कुछ कहे, लेकिन फिर उसकी पुरानी यादें उसे पीछे खींच लाईं। वह चुपचाप बैठा रहा, जैसे खुद से ही हार गया हो।
अब यह उसकी दिनचर्या बन गई।
शाम को वह अपने दोस्तों के साथ चाय पीने आता, और उसी वक्त स्मिता भी अपनी सहेली के साथ वहीं होती। अर्जुन की नज़र बार-बार उसी ओर चली जाती।
दिन बीतते गए। अर्जुन हर बार कुछ कहना चाहता, लेकिन उसकी झिझक उसे बाँध लेती।
                  फिर एक दिन नियति ने वह कर दिया, जो अर्जुन कभी सोच भी नहीं था।
चाय की उसी टपरी पर स्मिता ने अचानक उससे पढ़ाई को लेकर एक सवाल पूछ लिया, 
अर्जुन पहले तो खुशी से चौंक गया , लेकिन स्मिता की  आवाज़ में जो अपनापन था जो मिठास थी , उसने अर्जुन का मन हिला दिया।
बातें आगे बढ़ीं और दोनों ने ज़रूरत के हिसाब से नंबर भी आपस में साझा कर लिए।
यह अर्जुन के लिए अजनबी अनुभव था—
अब तक उसने अधिकतर लड़कियों को स्वार्थी समझा था, लेकिन स्मिता अलग थी। उसके चेहरे पर कोई मुखौटा नहीं था, उसकी बातें सीधी और सच्ची थीं।
              स्मिता की मासूमियत अर्जुन को खींच रही थी। उसे उसकी चिंता होने लगी।
वह सोचता—“इतनी भोली मासूम और सच्ची लड़की, कहीं इस छलावे भरी दुनिया में इसे कोई धोखा न दे दे , और इतना अच्छा दिल कही पत्थर न बन जाए । ”
अनजाने में ही वह उसके आस-पास उन लोगों को दूर करने लगा जिनकी नीयत उसे सही नहीं लगती थी।
धीरे-धीरे उनके बीच बातचीत बढ़ती गई।
लाइब्रेरी, कैंटीन, पढ़ाई और सपने—हर जगह अब स्मिता उसकी साथी थी।
                   दिल्ली घूमने का पहला अवसर आया तो अर्जुन ने किसी और को नहीं, सिर्फ स्मिता को अपने साथ चाहा।
सड़क पर चलते हुए, मेट्रो की भीड़ में, पुरानी किताबों की दुकानों पर... अर्जुन को पहली बार लगा कि वह अकेला नहीं है।
                  उसके साथ अर्जुन को भरोसा मिला, अपनापन मिला।
वह मन ही मन जान चुका था—यह रिश्ता चाहे दोस्ती कहलाए या कुछ और, लेकिन उसके लिए स्मिता अब सिर्फ़ एक सहपाठी नहीं थी।
उसके भीतर कहीं गहराई में एक अनकहा वचन जन्म ले चुका था—
मैं इस बंधन को जीवनभर निभाना चाहता हूँ।”