Jab Vishwas hi Gunha ban jaye - 3 in Hindi Love Stories by Puneet Katariya books and stories PDF | जब विश्वास ही गुनाह बन जाए - 3

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जब विश्वास ही गुनाह बन जाए - 3

अध्याय 3: दोस्ती की नींव – विश्वास की डोर
समय का पहिया अपनी गति से आगे बढ़ता रहा और दिल्ली की भागदौड़ भरी जिंदगी में अर्जुन और स्मिता की दुनिया सिमटकर एक-दूसरे में सिमटने लगी थी।
                         लाइब्रेरी की चौखट पर शुरू हुई एक साधारण-सी बातचीत अब रोज़ाना की आदत बन गई थी। किताबों, नोट्स और सपनों की बातें करते-करते अर्जुन और स्मिता की दोस्ती की एक मजबूत नींव पड़ चुकी थी। अर्जुन, जो खुद को इस बड़े शहर की भीड़ में अकेला और गुमशुदा महसूस करता था, अब उसके चेहरे पर एक अजीब-सा सुकून रहता था। उसे लगता कि वह अकेला नहीं है; दिल्ली की इस भीड़ में अब उसके पास कोई अपना है, जो उसकी खामोशी को भी समझ सकता है, जो बिना कहे ही उसके दिल का हाल जान लेता है।

                             धीरे-धीरे स्मिता उसके लिए सिर्फ़ एक साथी नहीं, बल्कि सबसे अच्छी दोस्त बन गई। अर्जुन के दिल की कठोर दीवारें, जो लोगों के धोखे और कड़वे अनुभवों से बनी थीं, पहली बार ढह रही थीं। उसे लगने लगा कि शायद भगवान ने उसकी ज़िंदगी में भरोसा लौटाने के लिए स्मिता को भेजा है। वह स्मिता की भोली बातों में एक सच्चाई देखता था, जो उसे इस दुनिया की नकली चमक से दूर महसूस कराती थी। वह अक्सर स्मिता की मासूमियत पर हैरान रह जाता था।

                                लेकिन तभी उनकी कहानी में एक नया मोड़ आया। स्मिता के साथ एक नया नाम जुड़ा—विक्रम। वह स्मिता का पुराना परिचित था, जिसे वह भाई समान मानती थी। जब अर्जुन ने पहली बार विक्रम का नाम सुना, तो उसके भीतर एक तूफ़ान उठा। पुराने घाव हरे हो गए और मन ही मन उसने सोचा—“क्या ये रिश्ता सच में सिर्फ़ दोस्ती का है? या फिर मैं ही कुछ ज़्यादा सोच रहा हूँ?” भीतर कहीं एक गहरी ईर्ष्या और संदेह का बीज बो चुका था, जिसे वह रोकना तो चाहता था, पर रोक नहीं पा रहा था। उसका दिमाग उसे समझा रहा था कि यह सब उसकी पुरानी असुरक्षाओं का नतीजा है, लेकिन दिल में एक अनजाना-सा डर घर कर गया था।


                          लेकिन स्मिता ने अर्जुन के मन का कोहरा जल्दी साफ़ कर दिया। एक शाम, जब अर्जुन ने अनमने भाव से विक्रम के बारे में पूछा, तो स्मिता ने उसकी उदासी को तुरंत भांप लिया। वह बोली, “अर्जुन, विक्रम मेरे भाई का पुराना दोस्त है। उसने मेरे मुश्किल समय में मेरी बहुत मदद की थी। मेरे लिए वह सिर्फ़ दोस्त जैसा है, और कुछ नहीं और न ही हमारा कभी कुछ हो सकता है।” उसकी आवाज़ में सच्चाई और स्पष्टता थी, जिसने अर्जुन के मन की सारी शंकाएँ दूर कर दीं। यह सुनकर अर्जुन ने राहत की साँस ली। बल्कि वह विक्रम के लिए आदर से भर गया, क्योंकि वह हर उस वक्त स्मिता के साथ खड़ा रहा था, जहाँ केवल एक सगा भाई खड़ा हो सकता था। अर्जुन के मन में पहली बार यह भावना जागी कि दुनिया में अभी भी निस्वार्थ रिश्ते मौजूद हैं।


                                    लेकिन वक्त की हवा एक ही दिशा में नहीं बहती। धीरे-धीरे अर्जुन ने महसूस किया कि स्मिता का रवैया उसके प्रति बदल रहा है, वह शायद किसी और की बातों में आकर बदल रही है।

                अब वह जब चाहे अर्जुन को बुला लेती और जब अर्जुन उसे साथ चलने को कहता, तो बहाने बना देती। दिसम्बर महीने में एक शाम उसने अर्जुन को अपना एग्जाम फॉर्म भरने के लिए बुलाया, अर्जुन पार्क पहुंच कर इंतजार करने लगा, लेकिन स्मिता नहीं आई... एक घंटा, फिर दो, और फिर चार घंटे बीत गए। अर्जुन का फोन पर लगातार ध्यान था, उसके दिल की धड़कन बढ़ रही थी कि क्या हुआ, सब ठीक तो है न? लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिला........ अंततः चार घंटे बाद स्मिता का जवाब आता है, "Sorry, मेरी दोस्त आई थी इसलिए मैं नहीं आ पाई।" अर्जुन को यह मैसेज पढ़ते ही बहुत गुस्सा आया , कि यार मुझे बुला कर मुझे ही भूल गई कि मैं इंतजार कर रहा हु मैं टेंशन में सोच रहा था कि कही उसे कुछ हो न गए हो पर यह तो ...... दोस्त इतना ही खास था तो एक मैसेज तो कर सकती थी कि वह नहीं आ सकती । वह बहुत कुछ बोलना चाहता था, लेकिन स्मिता को लेकर उसकी परवाह ने उसे रोक दिया और इतना ही बोल पाया कि "कोई न पर टाइम पर मैसेज कर दिया करो कोई फिक्र के मरे मर भी सकता है।"

 
                 अब धीरे-धीरे यही होने लगा। कभी-कभी उसकी बातें इतनी औपचारिक हो जातीं कि अर्जुन को लगता, जैसे वह उसके लिए महज़ एक विकल्प भर है। वह जब चाहे उसे बुला लेती, और जब वह व्यस्त होता, तो उसे भूल जाती। यह बदलाव अर्जुन को भीतर तक चुभने लगा। वह सोचता—“क्या मैं सच में उसकी ज़िंदगी में सिर्फ़ एक सहूलियत हूँ? क्या यह दोस्ती सिर्फ़ मेरी तरफ़ से है?” उसके मन में एक गहरा शून्य भर गया था।


                                  एक शाम, जब अर्जुन ने अपनी सारी हिम्मत जुटाकर स्मिता को चाय पीने के लिए बुलाया, तो जवाब में उसे झिड़की मिली— "मेरे पास फालतू वक्त नहीं है। मैं यहाँ पढ़ने आई हूँ मेरे घर वालों ने मेरे पर भरोसा करके यहां पढ़ने भेजा है  घूमने नहीं, मेरी स्थिति तुम्हारी तरह नहीं है तुम अफोर्ड कर सकते हो इस बार फेल होना पर मैं नहीं ,  अबसे मैं एक मिनट भी बर्बाद नहीं करूँगी।”

                          ये शब्द अर्जुन के दिल पर हथौड़े की तरह गिरे। उस ठंडी शाम में अर्जुन को लगा जैसे किसी ने उसकी आत्मा को चीर दिया हो। वह कुछ कह नहीं पाया और चुप हो गया, पर अंदर ही अंदर पूरी तरह टूट गया। उसके मन में स्मिता के प्रति जो भरोसा था, वह चूर-चूर हो गया।

                             और फिर, अजीब विडंबना यह कि सिर्फ़ दो दिन बाद वही स्मिता उसे बाहर खाने के लिए बुलाने आई। इस विरोधाभास ने अर्जुन को और उलझा दिया। उसकी दुनिया अब सवालों और शंकाओं से भर चुकी थी। इस शक और शंका ने गहराई तब ले ली जब एक रोज़ अर्जुन ने स्मिता को एक मंदिर चलने के लिए मैसेज किया। स्मिता ने मैसेज का कोई रिप्लाई नहीं दिया, पर शाम को अर्जुन को पता चलता है कि स्मिता अपने किसी और दोस्त के साथ उसी मंदिर गई हुई है, लेकिन उसने अर्जुन का मैसेज का रिप्लाई तक करना उचित न समझा।

पूरी तरह से भ्रमित होकर अर्जुन ने अपनी एक करीबी दोस्त से सलाह ली। उसने सारी बातें बताईं और कहा, “मुझे समझ नहीं आता असली दोस्ती कैसी होती है। कौन सच में साथ होता है और कौन सिर्फ़ औपचारिकता निभाता है?”
                 उसकी दोस्त ने गहरी साँस लेकर कहा, “अर्जुन, मुझे लगता है स्मिता तुम्हारा इस्तेमाल कर रही है। वह तुम्हारी तरह सच्चाई से तुम्हें दोस्त नहीं मानती।” और उसने अर्जुन के लिए फिक्र दिखाते हुए उसे "कसम दिलाई कि आज के बाद तुम स्मिता से दूर ही रहना क्योंकि मैं जानती हूँ तुम्हारा दिल और दोस्ती सच्ची है पर उसे ऐसे लोगों की वजह से मत तोड़ो जिन्हें तुम्हारी कदर ही नहीं।"
  
                    अर्जुन को यह बात काट गई। उसे यक़ीन नहीं हुआ। उसकी नज़र में स्मिता अब भी मासूम और सच्ची थी। उसे लगने लगा कि स्मिता ऐसा नहीं कर सकती, वह शायद किसी की बातों में आ रही है, लेकिन सच्चाई क्या है पता नहीं। लेकिन अर्जुन अंदर कहीं वह टूटने लगा था।
                                   
                                  दिन बीतते गए और गलतफहमियाँ बढ़ती चली गईं। अर्जुन ने ठान लिया कि वह अब एकतरफा दोस्ती नहीं निभाएगा। 
                    और फिर, जैसे अचानक किसी ने पर्दा गिरा दिया हो—दोनों के बीच खामोशी आ गई। वे पास होकर भी अजनबी बने रहे। तीन महीने तक लाइब्रेरी में आमने-सामने बैठते, गलियारों में टकराते, पर नज़रें मिलाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। वह रिश्ता, जिसने कभी भरोसे की नींव रखी थी, अब रेत की तरह बिखरता जा रहा था।
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                         तीन महीने बाद, एक शाम अर्जुन के फ़ोन पर अचानक एक संदेश आया। भेजने वाली स्मिता थी— “ऐसा भी क्या हुआ कि तुमने बात करना बंद कर दिया?” अर्जुन ने कुछ पल सोचा, फिर ठंडे स्वर में जवाब दिया— “दोस्ती ज़बरदस्ती नहीं होती। अगर तुम्हें साथ नहीं निभाना था तो मैं क्यों बार-बार अपने स्वाभिमान को ठेस पहुँचाता?”
                फोन की स्क्रीन पर उभरते इन शब्दों ने जैसे सारी चुप्पी तोड़ दी। स्मिता ने तुरंत जवाब दिया— “मुझे लगा तुम अहंकार दिखा रहे हो, इसलिए मैंने भी दूरी बना ली। लेकिन मेरे एक दोस्त ने कहा कि मुझे तुम्हें पूछना चाहिए था। शायद हम दोनों ही ग़लतफ़हमी में फँस गए।”

                        अर्जुन ने संदेश पढ़ते हुए गहरी साँस ली। दिल के किसी कोने में अब भी उसके लिए जगह बाकी थी। वह सोचने लगा—“शायद हालात ही हमें इस मोड़ तक ले आए हैं। शायद एक और मौका देना चाहिए।”
           और इसी सोच के साथ, उसने स्मिता को फिर से दोस्ती का हाथ थमा दिया।
       इस बार रिश्ता टूटा नहीं, बल्कि नए सिरे से जन्मा—विश्वास की डोर पर टिका हुआ, जिसकी जड़ें अब और गहरी होने लगी थीं।