Adhure Sapno ki Chadar - 8 in Hindi Women Focused by Umabhatia UmaRoshnika books and stories PDF | अधूरे सपनों की चादर - 8

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अधूरे सपनों की चादर - 8

अध्याय 8

गाँव के जीवन में रिश्तों की गहराई और उनकी जटिलता अक्सर बच्चों की समझ से परे होती है। तनु भी ऐसी ही मासूम बच्ची थी, जिसे अपने ही परिवार की परतों को पहचानने में समय लगा।गाँव के दूसरे छोर पर दादाजी की ज़मीन और खेत-खलिहान थे। वही पर भैया रहते थे और विवाह के बाद भाभी भी वहीं जा बसीं। तनु को यह पता ही नहीं था कि यह भैया उसके अपने सगे बड़े भाई हैं। जब भी वह आते, तनु मासूमियत से उनकी जेब में हाथ डालकर सिक्के निकाल लिया करती। भैया हँसते और जाते-जाते उसकी मुट्ठी सिक्कों से भर देते। तनु सोचती यह कोई दूर का रिश्तेदार है जो उससे बहुत स्नेह करता है। विवाह के बाद जब भाभी घर आईं, तब जाकर तनु को सच का पता चला कि यह तो उसका अपना ही भैया है। यह जानकर तनु का हृदय धड़क उठा – कितनी भोली थी वह, अपने ही भाई को अनजान मानती रही।तनु की यादों में उसकी बूढ़ी दादी भी अक्सर उतर आती थीं। बहुत अधिक उम्रदराज़ दादी कपास से हाथी-घोड़े बनाया करती थीं। उनके बनाए खिलौने तनु के लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं थे। छोटे हाथों से वह उन्हें पकड़कर घंटों खेलती रहती। दादी की कलाकारी और धैर्य देखकर तनु को लगता, जैसे उनका सारा संसार बस बच्चों की मुस्कान को सँवारने में ही बसता है। बाबूजी भी दादी का बहुत ध्यान रखते थे। मगर उम्र का बोझ उन पर भारी था।दादी दिनभर कभी पानी माँगतीं, कभी किसी छोटे काम के लिए आवाज़ देतीं। बच्चों को यह झंझट लगता और वे उनसे कतराते। तनु भी कई बार उनकी पुकार से भाग जाती थी। मासूमियत में समझ न पाती कि बुज़ुर्ग की हर पुकार में उनकी निर्भरता और अकेलापन छिपा है। माँ भी दादी से अक्सर चिड़चिड़ा जातीं। वजह थी कि माँ खुद बहुत छोटी उम्र में ब्याह कर आई थीं। अनुभव की कमी और जिम्मेदारियों का बोझ उन पर भारी पड़ता। दादी कभी उन्हें डाँट देतीं, कभी "बुद्धू" कहकर चिढ़ातीं। माँ खीज उठतीं और कभी-कभी गुस्से में मार भी बैठतीं। तनु अपनी मासूम नज़र से यह सब देखती और सोचती रहती—क्या हर घर में ऐसे ही झगड़े होते हैं?फिर एक दिन दादी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। पूरा गाँव शोक में डूब गया। लोग इकट्ठा हुए, रोये, बड़बड़ाए। मगर छोटी-सी तनु समझ ही नहीं पाई कि मौत का मतलब क्या होता है। वह बाहर खेल रही थी, जैसे कुछ हुआ ही न हो। किसी ने आकर पूछा—"तुम्हें दुख नहीं हुआ?" तनु मासूमियत से बोली—"पता नहीं।" वह अभी इतनी छोटी थी कि जाने-पहचाने चेहरे की स्थायी अनुपस्थिति को समझ ही न पाई।माँ का गुस्सा और तनु की मस्ती अक्सर टकरा जाती थी। एक दिन माँ ने कहा, बाहर से तीली वाला झाड़ू ले आ। तनु ने झाड़ू को कंधे पर रख लिया और मस्ती में गाना गाते-गाते भीतर चली आई। खेल-खेल में झाड़ू की तीली माँ की आँख में लग गई। माँ पहले से ही थकी हुई और बीमार थीं। उस दिन उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसी झाड़ू से उन्होंने तनु को इतना पीटा कि पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया। लोग बचाने आए—"छोड़ दो, छोड़ दो, बच्ची है, समझ जाएगी।" मगर माँ का दर्द और गुस्सा तब तक उतरता नहीं जब तक वह तनु को धुनाई न कर लेतीं।तनु अक्सर सोचती—"माँ मुझे इतना क्यों मारती है? मैं क्या इतना बुरा करती हूँ?" एक और दिन का वाक़या उसकी स्मृति में अमिट है। तनु पड़ोस के किसी घर में चली जाती थी, जहाँ एक छोटा बच्चा उसे बहुत प्यारा लगता था। वह उसे घंटों खिलाती और समय का ध्यान ही नहीं रहता। माँ परेशान हो जातीं। उनके पास कामों का ढेर रहता था, ऊपर से तनु की शैतानियाँ। एक दिन जब माँ ने उसे वहाँ से पकड़ा, तो पूरे रास्ते भर पीटते हुए लाई। तनु रोती रही, पर माँ का गुस्सा थमने का नाम ही न ले।घर में मेहमान आते तो अच्छे खाने बनते। महक से तनु का मन ललचा उठता। वह मासूमियत से कहती—"माँ, मुझे पहले दो, मुझे पहले दो।" मगर माँ का नियम सख़्त था—पहले मेहमान खाएँगे। तनु की ज़िद से चिढ़कर माँ उसे गुसलखाने में ले जातीं, मुँह दबा देतीं कि बाहर तक रोने की आवाज़ न जाए। और फिर मार पड़ती। तनु को समझ ही नहीं आता था कि माँ क्यों इतनी कठोर हैं।एक दिन जब पीट-पीटकर माँ थक गईं और तनु ज़ोर से चिल्लाई—"माँ, तू रोज़ क्यों मारती है? मुझे मत मारा कर!" माँ उस क्षण सहम गईं। जैसे अचानक आईना सामने आ गया हो। उन्हें लगा, यह बच्ची अब बड़ी हो रही है। यह प्रश्न उसके दिल से निकला है, और अगर अब भी यही चलता रहा तो माँ-बेटी का रिश्ता टूट जाएगा। उसी दिन के बाद माँ ने तनु को पीटना लगभग छोड़ दिया।तनु के जीवन में एक और कोमल कोना था। पड़ोस की एक आंटी उसे अपने घर बुला लेतीं। वहाँ तनु को अजीब-सी खुशी मिलती। आंटी उसे प्यार से खाना खिलातीं, बातें करतीं, गोदी में बैठा लेतीं। तनु को लगता शायद यही पहली इंसान है जिसने उसे सच में दुलारा है। इसलिए वह वहाँ से लौटना ही नहीं चाहती थी। माँ की मार झेलती, मगर उस आंटी के घर से लौटने में हमेशा आनाकानी करती। शायद बच्चे का दिल वहीं खिंचता है जहाँ उसे सच्चा अपनापन मिलता है।धीरे-धीरे तनु ने यह समझा कि जीवन केवल पढ़ाई या खेल तक सीमित नहीं है। इसमें रिश्तों की उलझनें, माँ के गुस्से का कारण, दादी की निर्भरता, भैया की दूरी और फिर उनका अपनापन—सबकुछ उसे धीरे-धीरे सिखा रहा था। हर घटना तनु के मन पर एक गहरी लकीर खींच रही थी।कभी वह सिक्कों की खनखनाहट से खुश होती, कभी दादी के खिलौनों से खेलकर सपनों में खो जाती। कभी माँ की मार से रो पड़ती, तो कभी आंटी की गोद में सुकून पाती। यह सब अनुभव उसे भीतर से गढ़ रहे थे।तनु का बचपन भले ही कठिन था, मगर इन्हीं कठिनाइयों में से वह संवेदनशीलता, आत्मबल और समझ विकसित कर रही थी। यही छोटे-छोटे अनुभव आगे चलकर उसकी सोच को गहराई देने वाले थे।---